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भव्य
५. शुद्ध नयसे दोनों समान हैं और अशुद्ध नयसे
असमान
स./ /४ महिन्त परश्येति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु। 181-हिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा ये तोन प्रकारके आत्मा सर्व यो
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द्र स / टी / १४ / ४८ / १ त्रिविधात्मसु मध्ये मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण तिष्ठति, अन्तरात्मपरमात्मद्वय शक्तिरूपेण भाविनैगमनयापेक्षा तिपय पुनर्बहिराच्या व्यक्तिरूपेण अन्तरात्म परमात्मद्वय शक्तिरूपेणैव च भाविनै गमनयेनेति । यद्यभव्यजोवे परमात्मा शक्तिरूपेण वर्त्तते तर्हि कथमभव्यत्वमिति चेत् परमात्मा केलानादिरूपेण तिर्न भविष्यतीत्यभव्यत्व शक्ति पुन शुद्धसेनोभयत्र गमाना यदि पुन शक्तिरूपेणाप्यभव्यजीवे केवलज्ञानं नास्ति तदा केवलज्ञानावरणं न घटते भव्याभव्यद्वय पुनरशुद्धमयेनेति भावार्थ । एवं यथा मिथ्यादृष्टिसज्ञे बहिरात्मनि नयविभागेन दर्शितमात्मत्रयं तथा शेषगुणस्थानेष्वपि । तद्यथाबहिरात्मारस्थायामन्तरात्म परमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविने गमनयेन व्यरूपेण च विज्ञेय अन्तरात्मावस्थाया तु वहिरात्मा भूतपूर्व न्यायेन घृतघटवत् परमात्मस्वरूप तु शक्तिरूपेण भाविने गमनयेन, व्यक्तिरूपेण च । परमात्मावस्थाया पुनरन्तरात्मबहिरात्मद्वय भूतपूर्वनयेनेति । तीन प्रकारके आत्माओ में जो मिथ्यादृष्टि भव्य जीव है. उसमें बहिरात्मा तो व्यक्ति रूपसे रहता है और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनो शक्ति रूपसे रहते है, एवं भावि नैगमनयकी अपेक्षा व्यक्ति रूपसे भी रहते है मिध्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरामा व्यक्ति रूपसे और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनो शक्ति रूपसे ही रहते है. भावि गमनयकी अपेक्षा भी अभव्यमें अन्तरारमा तथा परमात्मा व्यक्ति रूपमे नहीं रहते। प्रश्न- अभव्य जीवमे परमात्मा शक्तिरूपसे रहता है तो उसमे अभव्यत्व कैसे उत्तरअभव्य जीव मे परमात्मा शक्तिकी केवलज्ञान आदि रूपसे व्यक्ति न होगी इसलिए उसमे अभव्यत्र है। शुद्ध नयकी अपेक्षा परमात्माकी शक्ति तो मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य इन दोनो में समान है। यदि अभव्य जीवमे शक्ति रूपसे भी केवलज्ञान न हो तो उसके केवलज्ञानावरण कर्म सिद्ध नही हो सकता। साराश यह है कि भव्य व अभव्य ये दोनो अशुद्ध नयसे है। इस प्रकार जैसे मित्र्यादृष्टि बहिरात्मामें नय विभागमे तानो आत्माओको बतलाया उसी प्रकार शेष तेरह गुणस्थानों ने भी घटित करना चाहिए जैसे कि बहिरात्मा की दशामे अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनो शक्ति रूपसे रहते है और भावि नैगमनयसे व्यक्ति रूपसे भी रहते है ऐसा समझना चाहिए । अन्तरात्माकी अवस्थामे बहिरात्मा भूतपूर्व न्याय से घृतके घटके समान और परमात्माका स्वरूप शक्तिरूपसे तथा भावि नैगमनयकी अपेक्षा व्यक्ति रूपसे भी जानना चाहिए। परमात्म अवस्था में अन्तरात्मा तथा बहिरामा पूर्व नयको अपेक्षा जानने चाहिए (स. दा. डी. ४) । दे०पारिणामिक शुद्ध नयसे भव्य भव्य भेद भी नहीं किये जा सकते। सर्व जोन शुद्ध चेतन्य मात्र है।
३. शंका-समाधान
१. मोक्षकी शक्ति है तो इन्हें अमव्य क्यों कहते है सस/६/२/१८२/२ भवस्य मन पर्ययज्ञानशक्ति केवलज्ञानशक्तिश्च स्याद्वा न वा । यदि स्यात् तस्याभव्यत्वाभाव । अथ नास्ति तत्तारणना व्यर्थेति । उच्यते - अदेशवचनान्न दोष, । द्रव्यार्थादेशात पर्यज्ञानशक्ति संभव । पर्यायार्यादेशात्तच्छवत्यभाव । यद्येव भव्याभवनविकल्पा नापपद्यते उभयत्र तच्छक्तिसद्
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३. शंका-समाधान
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भावात् । न शक्तिभावाभावापेक्षया भव्याभव्यविकल्प इत्युच्यते । - प्रश्न - अभव्य जीवके मन पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति होती है या नहीं होती। यदि होती है तो उसके अभव्यपना नही बनता। यदि नही होती है तो उसके उक्त दो आवरण- कर्मोंकी कल्पना करना व्यर्थ है। उत्तर- आदेश वचन होनेसे कोई दोष नहीं है। अव्ययाधिक नयकी अपेक्षा मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान शक्ति पायी जाती है पर पार्थिक नयको अपेक्षा उसके उसका अभाव है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो भव्याभव्य विकल्प नहीं बन सकता है क्योंकि दोनोंके मन पर्ययज्ञान और वेयत्तज्ञान शक्ति पायी जाती है। उत्तर- शक्तिके सद्भाव और असद्भावको अपेक्षा भव्याभव्य विकल्प नही कहा गया है। ( अपितु व्यक्तिके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा यह विकल्प कहा गया है । ( दे० भव्य / २ / १ ), ( रा. वा / ८/६/८-१/५०१/२५), (गो. क जो प्र/३३/२०१८), (बोर भी वे / भव्य /२/५)।
२. अभव्य सममव्यको भी भव्य कैसे कहते हैं। रावा./२/७/१/१२९/६ योऽनन्तेनापि कालेन न सत्स्यव्यसायभव्य एस चैव न भव्यराश्यन्तर्भावाद .. यथा योऽनन्तकालेनापि कनकपाषाणो न कनकी भविष्यति न तस्यान्ध पाषाणत्वं कनकपाषाणशक्तियोगात् यथा वा आगामिकासो योऽनन्तेनापि कालेन नागमिष्यति न तस्यागामित्व हीयते तथा भव्यस्यापि स्वशक्तियोगाइ असत्यामपि व्यक्तौ न भव्यत्वहानि । प्रश्न- जो भव्य अनन्त काल में भी सिद्ध न होगा वह तो अभव्यके तुल्य ही है। उत्तरनहीं, वह अभव्य नहीं है, क्योंकि उसमें भव्यत्व शक्ति है। जैसे कि कनक पाषाणको जो कभी भी सोना नहीं बनेगा अन्धपाषाण नहीं कह सकते अथवा उस आग. मी कालको जो अनन्त कालमें भी नहीं आयेगा अनागामी नही कह सकते उसी तरह सिद्धि न होनेपर भी भव्यत्व शक्ति होनेके कारण उसे अभव्य नही कह सकते। वह भव्य राशिमें ही शामिल है।
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१/१.१.१४९/२०/० मुकिमनुपगच्छता कथं पुनर्भव्यत्वमिति पेन मुक्तिगमनादेशात न च योग्याः सर्वेऽपि नियमेन निष्कलङ्का भवन्ति सुवर्ण पाषाणेन व्यभिचारात् । प्रश्नमुक्तिको नही जानेवाले जीवोके भव्यपना कैसे बन सकता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि, मुक्ति जानेकी योग्यताकी अपेक्षा उनके भव्य सज्ञा बन जाती है। जितने भी जीव मुक्ति जानेके योग्य होते है वे सब नियमसे कलक रहित होते है, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योकि, सर्वथा ऐसा मान लेनेपर स्वर्ण पाषाण में व्यभिचार आ जायेगा ( ४ / १.२.२१०/४०० / ३)।
कथचित् अनादि सान्तपना
२. मध्यख परख ०/२.२ / १३-१८४/१०६ भवाणुयादेण भवसिद्धिया केचिर कालादो होति ॥११३॥ अनादि जनसिदो ॥१६४॥ ध ७ / २.२, १८४ / १७६/८ कुदो। अणाइसरूवेणागयस्स भवियभावस्स अजोगिचरिमसमए विणासुवल भादो । अभवियसमाणी वि भवियजो अस्थि ति अणादिश्रो अपजनसिदो भवियभावो किष्ण परूविदो । ण, तत्थ अविणाससत्तीए अभावादो । सत्तीए चैव एत्थ अहियारो मसीए परि ति अगादि रूपासिदसुतण्णहामी प्रश्न- भव्यमपणा के अनुसार जीन भव्यसिद्धिक कितने कालतक रहते है । १८३१ उत्तर- जीव अनादि सान्त भव्यसिद्भिव होता है | १८४| क्योकि अनादि स्वरूपसे आये हुए भव्यभावका अयोगिकेवली के अन्तिम समयमे विनाश पाया जाता है। प्रश्नअभव्य के समान भी तो भव्य जीव होता है, तब फिर भव्य भावको अनादि और अनन्त क्यों नहीं प्ररूपण किया। उत्तर- नहीं, क्योकि
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