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भव्य
ranean अविनाश शक्तिका अभाव है, अर्थात् यद्यपि अनादि से अनन्त कालतक रहनेवाले भव्य जीव है तो सही, पर उनमें शक्ति रूपसे तो ससार विनाशकी सम्भावना है, अविनाशित्वकी नहीं । प्रश्न- यहाँ, भव्यत्व शक्तिका अधिकार है, उसकी व्यक्तिका नहीं, यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-- भव्यत्वको अनादि सपर्यवसित कहनेवाले सूत्रको अन्यथा उपपत्ति बन नही सकती, इसीमे जाना जाता है कि यहाँ भव्यत्व शक्तिसे अभिप्राय है ।
४. मन्यत्वमें कथंचित् सादि- सान्तपना
घ. नं. ७/२,२ / सू. १८६५/१७७ ( भवियाणुत्रादेण) सादिओ सपज्जवसिदो ११८६ |
घ ७/२.२.१८५/१७७/३ अभविओ भवियभाव ण गच्छदि भवियाभवियभावाणमच्चताभात्रपग्मिहियाण मेयाहियरणतविरोहादो या सिद्धो भविओ होहि गट्टासेसावरणं पूणरूप्पत्ति विरोहादी सम्हा भविय भावो व सादिति व एस होतो. जनडियनमाणादण डिवणे सम्मत्ते अणादि-अनंतो भवियभावो अतादीदससारादो. पडिवण्णे सम्मत्ते अण्णो भवियभावो उप्पज्जर, पोग्गल परियहस्स अयमेतसाराद्वाद एवं समन- समापि परियट्टसंसाराणां जीवाणं पुध-पुध भवियभावो वत्तव्वो । तदो सिद्ध भवियाण सादि-सांतत्तमिदि । ( भव्यमार्गणानुसार ) जीव सादि सान्त भव्यसिद्धिक भी होता है । १८५ प्रश्न - अभव्य भव्यत्वको प्राप्त हो नहीं सकता, क्योकि भव्य और अभव्य भाव एक दूसरे के अत्यन्ताभावको धारण करनेवाले होनेसे एक ही जीवमें क्रमसे भी उनका अस्तित्व माननेमें विरोध आता है। सिद्ध भी भव्य होता नहीं है, क्योंकि जिन जीवोके समस्त कर्मास्रव नष्ट हो गये है उनके पुन उन कर्मास्रवोकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। भव्यश्व सादि नही हो सकता ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पर्यायार्थिक नयके अवलम्बन से जबतक सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया तबतक जीवका भव्यत्व अनादि-अनन्त रूप है, क्योंकि तबतक उसका संसार अन्तरहित है । किन्तु सम्यक्त्वके ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है, क्योकि, सम्यक्त्व उत्पन्न हो जानेपर फिर केवल अर्धल परिवर्तनमात्र कालतक संसार में स्थिति रहती है । इसी प्रकार एक समय कम उपार्ध पुद्गल परिवर्तन ससारवाले, दो समय कम उपार्ध पुद्गल परिवर्तन ससारवाले आदि जीवोके पृथक-पृथक भव्यभावका कथन करना चाहिए। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि भव्य जीव सादि-सन्त होते है।
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५. मध्यामन्यस्य पारिणामिकपना कैसे है
४/१०/२३/२३० अभवसिद्धिय ति को भावी पारिणामित्रो भावो ॥६३॥
ध. / प्र, ५/१,७,६३/२३०/९ कुदो । कम्माणमुदएण उवसमेण खएण खओवसमे वा अवतारतीदोभवियत्तस्स वि पारिणामिओ चै
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भागाभाग
भानो, कम्माणमुदयश्वसम-मय खोक मेहि भयात्तदो । प्रश्न- अभव्य सिद्धिक यह कौन-सा भाव है। उत्तर- पारिणामिक भाव है। क्योंकि, कर्मके उपशमय अथवा क्षयोपशन से अभव्यत्व भाव उत्पन्न नहीं होता है। इसी प्रकार भव्यत्व भी पारि णामिक भाव ही है, क्योंकि, कर्मोंके उदय, उपशम क्षय ओर क्षयोपशम से भव्यत्व भाव उत्पन्न नही होता। (रा.वा./२/७/२/ ११०/२१) ।
६. अन्य सम्बन्धित विषय
१. अभव्य भाव जीवकी नित्य व्यंजन पर्याय है -३० पर्याय /३/७ । २, मोक्षर्पे भव्यत्वभावका अभाव हो जाता है पर जीवत्वका नहीं - दे० जीवख / ५१ २. निर्व्यय अभव्यों में अनन्तताकी सिद्धि कैसे हो -२० अनन्त / २ । ४ मोक्ष जाते-जाते भव्य राशि समाप्त हो जायेगी- दे० मोक्ष / ६ । ५. भव्य व अन्य कर्मभि औदयिक है ०२ ६. भव्यत्व व अभव्यत्व कथंचित् अशुद्धपारिणामिक भाव है - दे० पारिणामिक / ३ भव्यकुमुद चन्द्रिका - आशाचर (ई. १९०३-१२४३) की संस्कृत भाषाबद्ध रचना ।
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भव्यजन कण्ठाभरण- कवि अर्हदास (वि. ग. १४ प्रारम्भ) कृत २४२ पद्य प्रमाण, पौराणिक समीक्षा तथा जैनाचार विषयक हिन्दी काव्य । (ती./४/५३) ।
भव्य सेन - वस्ती नगरी सवनायक एकादशनिवारी तपस्वी थे। मुनिगुने एक विद्याधर द्वारा रामी रेवतीको धर्मवृद्धि भेजी, परन्तु इनके लिए कोई सन्देश न भेजा। तब उस विद्याधरने इनकी परीक्षा ली, जिसमें ये असफल रहे। (बृ. क. को / कथा नं. ७ / २१-२६ ) । भव्यस्पर्श - दे० स्पर्श / १ ।
भाग - Division ( ध ५ / प्र, २७) २, अंश, पर्याय, भाग, हार. विधा, प्रकार, भेद, छेद और भंग एकार्थवाची है- दे० पर्याय /९/१ । भागचन्द - महावीराष्टक, अमितगति श्रावकाचार वचनिका प्रमाण
परीक्षा वचनिका, उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला वचनिका, पदसग्रह आदि के कर्ता एक हिन्दी कवि । समय-विश. ११-२० (ई. श. ११ उत्तरार्ध) (४२ भागहार - Divor] दे० गणित / II /२/५।
भागाभाग — कुल द्रव्यमेंसे विभाग करके कितना भाग किसके हिस्से में आता है, इसे भागाभाग कहते है। जैसे एक समयप्रबद्ध सर्व कर्म प्रदेशोंका कुछ भाग ज्ञानावरणीको मिला, उसमें से भी चौथाई -चौथाई भाग मतिज्ञानावरणीको मिला। इसी प्रकार कर्मोके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेशमधमें, उनके चारों प्रकारके सव अथवा भुजगार व अस्पतर बन्धक जीवों आदि विषयोंमें यथायोग्य करके विस्तृत प्ररूपणाएं की गयी है जिनके सन्दर्भोंकी सूची नीचे दी गयी है
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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