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ब्रह्म
१२. जैन व बौद्धधर्मकी तुलना
शुद्ध पार्थिक सूत्र नयकी अपेक्षा मौसमदर्शन भी एक निरवयव, अविभागी, एक समयवर्ती तथा स्वलक्षण निर्विकल्प ही तत्व मानता है । अहिंसाधर्म तथा धर्म व शुक्लध्यानकी अपेक्षा भी दोनों में समानता है । अनेकान्तवादी होनेके कारण जैनदर्शन तो उसके विपक्षी द्रव्यार्थिक नयसे उसी तत्त्वको अनेक सावयव, विभागी, नित्य व गुण पर्याय युक्त आदि भोम्बीकार कर लेता है । परन्तु एकान्तवादी होनेके कारण मौर्शन उसे सर्वथा स्वीकार नहीं करता है । इस अपेक्षा दोनोंमें भेद है। बौद्धदर्शन ऋजुसूत्र नयाभासी है। (दे० अनेकान्त /२/१ ) एकत्व अनेकत्वका विधिनिषेध व समन्वय दे० दव्य / ४ ) निष्यत्व व अनित्यत्रका विधि निषेध व समन्वय दे० उत्पाद / २ ।
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ब्रह्म- पुष्पदन्त भगवा
दे
देवोंका एक भेद - दे० स्वर्ग / ३, ३ ब्रह्मयुगल का तृ० पटल - दे० स्वर्ग/५: ४. कल्पवासी स्वर्गीका पाँचवा कल्प-- दे० स्वर्ग /५/२ ।
१. ब्रह्मका लक्षण
स.सि./०/९६/३/४/४ अहिंसादयो गुणा यस्मिद् परिपात्यमाने 'हन्ति वृद्धिमुपयान्ति न अहिंसादि गुण जिसके नाम करनेपर बढ़ते है वह ब्रह्म कहलाता है। ( चा. सा / १५/२० घ. ६/४.९.२१/१४/२
शान्तिपुरमा
चारित्रं पंचम समिति त्रिगुप्यार. महा अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि, वह शान्तिके पोषणका हेतु है । इस टी / १४/००/५ परममहसह निजशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नमुखा मृतमस्य सत उर्वशीरम्भातिलोसमाभिर्देयाभिरपि ब्रह्मचर्यवतं न खण्डितं स परमब्रह्म भण्यते । परमब्रह्म नामक निज शुद्ध आत्माको भावनासे उत्पन्न सुखामृत से तृप्त होनेके कारण उर्वशी. तिलोत्तमा, रंभा आदि देवकन्याओं द्वारा भी जिसका ब्रह्मचर्य स्खण्डित न हो सका अत' वह 'परम ब्रह्म' कहलाता है ।
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२. शब्द ब्रह्मका लक्षण
स सा/आ./५ इह कह सकतोद्भासि स्यात्पदमुद्रित शब्दमा । - समस्त वस्तुओंको प्रकाश करनेवाला और स्पात पर चिडिय शब्द ब्रह्म है..।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. सर्व जीव एक के अंश नहीं है०/२
२. परम ब्रह्म अपरनाम दे० मोहमार्ग /२/५
३. आदि ब्रह्मा - दे० ऋषभ ।
ब्रह्मऋषि - दे० ऋषि । ब्रह्मचर्यक्योंकि
- अध्यात्म मार्ग में ब्रह्मचर्यको सर्व प्रधान माना जाता है, में रमता ही वास्तविक चर्य है। निश्चयसे देखनेपर क्रोधादि निग्रहका भी इसी में अन्तर्भाव हो जानेसे इसके १०० भंग हो जाते है । परन्तु खोके त्यागरूप ब्रह्मचर्यकी भी लोक व परमार्थ दोनों क्षेत्रो में बहुत महत्ता है । वह ब्रह्मचर्य अणुव्रत रूपसे भी ग्रहण किया जाता है महाव्रत रूपसे भी । अब्रह्म सेवन से चित्त भ्रम आदि अनेक दोष होते हैं, अत. विवेकी जनोको सदा ही अपनीअपनी शक्तिके अनुसार दुराचारिणो थियोके पर खो स्वोके भी सायेसे बचकर रहना चाहिए, और इसी प्रकार स्वीका पुरुषोसे बचकर रहना चाहिए। यद्यपि को भी क यावद्य कहा जाता है, परन्तु फिर भी इसका पालन करना श्रेयस्कर है।
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१ वेश्या गमनका निषेध |
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परस्त्री निषेध ।
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भेद व लक्षण
ब्रह्मचर्य सामान्यका लक्षण ।
ब्रह्मचर्य विशेष के लक्षण |
ब्रह्मचर्य महात अणुव्रत लक्षण प्रतिमाका लक्षण
पोर व अधोरण अह्मचर्य प० ।
शीलफे लक्षण ।
शीलके १८००० भंग व भेद !
ब्रह्मचर्य निर्देश
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
दश च
ब्रह्मचर्य ि
चर्य व्रतकी पाँच भावनाएँ। ब्रह्मचर्य धर्मके पालनार्थ 'कुछ भावनाएँ ब्रह्मचर्य अणुमके अतिचार पीके दस दोष ।
उसकी भावनाओं व अतिचारी सम्बन्धी विशेष विचार - दे० व्रत / २ ।
अब्रह्मका निषेध व ब्रह्मचर्यकी प्रधानता
ब्रह्म सेवनमें दाष ।
काम व कामके १० विकार
अब्रह्मका हिंसामें अन्तर्भाव ब्रह्मचर्य भी कचित् सालय है
शीलकी प्रधानता । ब्रह्मवर्षकी महिमा।
ब्रह्मचये
दुराचारिणी स्त्रीका निषेध
धर्मपत्नी के अतिरिक्त मगरत स्त्रीका निषेध - दे० स्त्री ।
स्त्रीके लिए पर पुरुषादिका निषेध ।
परस्त्री त्याग सम्बन्धी ।
ब्रह्मचर्य व्रत व प्रतिमामे अन्तर ।
- दे० धर्म /८ ।
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समाधान
स्त्री पुरुषादिका सहवास मात्र अब्रहा नहीं हो सकता ।
२ मेवुनके लक्षण से हस्तक्रिया आदि अब्रा सिद्ध न
होगा।
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-दे० काम ।
-३० हिंसा१/४ - दे० सावध ।
१. भेद व लक्षण
१. ब्रह्मचर्य सामान्यका लक्षण - १. निश्चय
भ. अ / /८७८ जीवो बंभा जीवम्मि चैव चरिग्राहबिज्ज जा जनिदो । जाण बभचेर विमुक्का रदेहतित्तिस्स १८७८ | = जीव ब्रह्म है. जीव टी मे जो मुनिकी वर्मा होती है उसको परदेहकी सेवा रहित महत्चर्य जान' (द्र स / टी / ३५/१०१ पर उद्धृत ) |
वि / १२ / २ आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं पर। स्वाङ्गागविवर्जितेकमनसस्तद्ब्रह्मचर्यं मुने । 12 ब्रह्म शब्दका अर्थ
=
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