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प्रोषधोपवास
२. प्रोषधोपवास व उपवास निर्देश
दिवस द्वितीयरात्रि च। अतिवाहयेत्प्रयत्नादर्द्ध च तृतीयदिवसस्य ११५६। उपवाससे पूर्व दिन मध्याह्नको समस्त आरम्भसे मुक्त होकर, शरीरादिकमें ममत्वको त्यागकर उपवासको अंगीकार कर ।१५२॥ पश्चात समस्त सावद्य क्रियाका त्यागकर एकान्त स्थानको प्राप्त होवे । ओर सम्पूर्ण इन्द्रिय विषयोसे विरक्त हो त्रिगुप्तिमे स्थित होवे । यदि कुछ चेष्टा करनी हो तो प्रमाणानुकूल क्षेत्रमे धर्मरूप ही क्रे ।१५३। कर ली गयी है प्रात काल और सन्ध्याकालीन सामायिकादि क्रिया जिसमे ऐसे दिनको धर्मध्यानमें आसक्ततापूर्वक बिता कर, पठन-पाठनसे निद्राको जीतता हुआ पवित्र सथारे पर रात्रिको बितावे ।१५४॥ तदुपरान्त प्रात को उठकर तात्कालिक क्रियाओसे निवृत्त हो प्रासुक द्रव्योसे जिन भगवान् की पूजा करे ।१५। इसके पश्चात् पूर्वोक्त विधिसे उस दिन और रात्रिको प्राप्त होके तीसरे दिनके आधेको भी अतिशय यत्नाचार पूर्वक व्यतीत करै ।१५६।
चाहिए ।२६० जरूरी कार्यको समझकर सावध रहित यदि अपने घरू आरम्भको करना चाहे, तो उसे भी कर सकता है, किन्तु शेष विधान पूर्वके समान है ।२६०-२६१॥ ३, जघन्य-जो अष्टमी आदि पर्व के दिन आचाम्ल निर्विकृति, एक स्थान अथवा एकभक्तको करता है, उसे जघन्य प्रोषधोपवास समझना ।२६२। - ( गुण. श्रा। १७०-१७४), (का अ/मू /३७३-३७४ ); (सा. ध /५/३४-३६), (अन. ध /७/१५), (चा. पा /टी./२५/४५/१६) ।
६. प्रोषधोपचास प्रतिमाका लक्षण र क श्रा./१४० पर्व दिनेषु चतुर्ब पि मासे मासे स्वशत्ति मनिगृह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणिधिपर प्रोषधानशन. १४०। --जो महीने महीने चारो ही पर्वोमें ( दो अष्टमी और चतुर्दशीके दिनोमे) अपनी शक्तिको न छिपाकर शुभ ध्यानमे तत्पर होता हुआ यदि अन्तमें प्रोषधपूर्वक उपवास करता है वह चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमाका धारी है ।१४०1 (चा सा /३७/४) (द्र स /४५/१६५)।
वसु. श्रा./२८१-२६२ सत्तमि-तेरसि दिवसम्मि अति हिजणभोयणावसाणम्मि। भोत्तूण भंजणिज्जं तत्य वि काउण मुहसुद्वि २८श पक्वालिऊण वयणं कर-चरणे णियमिऊण तत्थेत्र । पच्छा जिणिदभवण गंतूण जिणं णमसित्ता १२८२। गुरुपुरओ किदियम्मं वदणपुब्वं कमेण काऊण । गुरुसक्खियमुबवास गहिऊण चउठिवहं विहिणा १२८३। बायण-कहाणुपेहण-सिवरखावण-चितगोवओगेहि। णेऊण दिवससेसं अवगण्यि वदणं किच्चा ।२८४। रयणि समयम्हि ठिच्चा काउसग्गेण णिययसत्तीए। पडिलेहिऊण भूमि अप्पपमाणेण सथारं ।२८५। दाऊण किचि रन्ति सइऊण जिणालए णियधरे वा। अहवा सयल रत्ति काउसग्गेण णेऊण ।२८६। पच्चूसे उदिठत्ता बंदणविहिणा जिणं णमंसिता। तह दव्व-भाव पुज्ज णिय-सुय साहूण काऊण ।२८७ उत्तविहाणेण तहा दियह रत्ति पुणो वि गमिऊण । पारण दिवसम्मि पुणो पूर्य काऊण पुव व २८८ ग तूण णिययगेह अतिहिविभाग च तत्थ काऊण । जो भुजइ तस्स फुड पोसह विहि उत्तम होइ।२८६। जह उक्कस्सं तह मज्झिम वि पोसहविहाणमुचिट्ठ। णवर विसेसो सलिल छडित्ता वज्जए सेसं ।२६० मुणिऊण गुरुबकज्जं सावज्जविवज्जिय णियारंभ । जइ कुणइ तं पि कुज्जा सेस पुवं व णायव्व ।२६१। आय बिल णिव्वयडी एयट्ठाण च एय भत्तं वा। जं कीरइ त णेय जहण्णयं पोसहविहाण ।२९२१ - १. उत्तम-सप्तमी और त्रयोदशीके दिन अतिथिजनके भोजनके अन्तमें स्वय भोज्य वस्तुका भोजन कर और वही पर मुखशुद्धिको करके, मॅहको और हाथ-पाँवको धोकर वहाँ ही उपवास सम्बन्धी नियमको करके पश्चात जिनेन्द्र भवन जावर और जिन भगवान्को नमस्कार करके, गुरुके सामने बन्दना पूर्वक क्रमसे कृतिर्म करके, गुरुकी साक्षीसे विधिपूर्वक चारो प्रकारके आहारके त्याग रूप उपवासको ग्रहण कर शास्त्र-वाचन, धर्मकथा-श्रवण-श्रावण, अनुप्रेक्षा चिन्तन, पठन-पाठनादिके उपयोग द्वारा दिवस व्यतीत करके, तथा अपराह्निक वन्दना करके, रात्रिके समय अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्ग से स्थित होकर, भूमिका प्रतिलेखन करके और अपने शरीरके प्रमाण बिस्तर लगाकर रात्रिमे कुछ समय तक जिनालयमें अथवा अपने घरमें सोकर, अथवा सारी रात्रि कायोत्सर्गसे बिताकर प्रात काल उठकर वन्दना विधिसे जिन भगवान्को नमस्कार कर तथा देव-शास्त्र और गुरुकी द्रव्य वा भाव पूजन करके पूर्वोक्त विधानसे उसी प्रकार सारा दिन और सारी रात्रिको भी बिताकर पारणाके दिन अर्थात नवमी या पूर्ण मासीको पुन' पूर्ष के समान पूजन करनेके पश्चात् अपने घर जाकर और वहाँ अतिथिको दान देकर जो भोजन करता है, उसे निश्चयसे उत्तम प्रोषधोपवास होता है । २८१२८१ । २ मध्यम-जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रोषधोपवास विधान कहा गया है, उसी प्रकारसे मध्यम भी जानना चाहिए। विशेषता यह है कि जलको छोडकर शेष तीनो प्रकारके आहारका त्याग करना
७. एकमक्तका लक्षण मु आ./३५ उदयत्यमणे काले णालीतियबज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि
दुअ तिये वा मुहुत्तकालेय भत्त तु ।३५॥ = सूर्य के उदय और अस्तकालकी तीन घडी छोडकर, वा मध्याह्न कालमे एक मुहूर्त, दो मुहूर्त, तीन मुहूर्त कालमें एक बार भोजन करना वह एकभक्त मूल गुण है।३५
. चतुर्थभक्त आदिके लक्षण ह. पु /३४/१२५ विधीनामिह सर्वेषामेवा हि च प्रदर्शना। एकश्चतुर्थकाभिरख्यो द्वौ पष्ठ तु त्रयोऽष्टम' । दशमाद्यास्तथा वेद्या. षण्मास्यतोपवासका. ।१२। - उपवास विधिमे चतुर्थक शब्दसे एक उपवास, षष्ठ शब्दसे बेला, और अष्ट शब्द से तेला लिया गया है, तथा इसी प्रकार आगे दशम शब्दसे चौडा आदि छह मास पर्यन्त उपवास
समझने चाहिए। (भ. आ /भाषा./२०६/४२५ )। मू. आ./भाषा /३४८ एक दिनमें दो भोजन वेला रही है। (एक वेला धारणके दिनकी. दो वेला उपवासके दिनकी और एक बेला पारणके दिनकी, इस प्रकार ) चार भोजन वेलाका त्याग चतुर्थ भक्त अथवा उपवास कहलाता है। छह वेलाके भोजनका त्याग षष्ट भक्त अथवा बेला (२ उपवास) कहलाता है। इसी प्रकार आगे भी चार-पाँच आदि दिनोंसे लेकर छह उपवास पर्यन्त उपवासोके नाम जानने
चाहिए। ब्रतविधान सं 1पृ २६ मात्र एक बार परोसा हुआ भोजन सन्तोष पूर्वक
खाना एकलठाना कहलाता है।
२.प्रोषधोपवास व उपवास निर्देश
१.प्रोषधोपवासके पाँच अतिचार त. सू./७/३४ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि 1281 -अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित भूमिमें उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित वस्तुका आदान, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तरका उपक्रमण, अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान ये प्रोषधोपवास ब्रतके पाँच अतिचार है। (र. क. श्रा./११०)।
१.प्रोषधोपवास व उपवास सामान्यमें अन्तर र.क. श्रा./१०१ चतुराहारविसर्जनमुपवास प्रोषध सकृदभुक्तिः। स प्रोषधोपवासो येदुपोष्यारम्भमाचरति ।१०६।- चारो प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास है । और एक बार भोजन करना प्रोषध है।
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