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प्रोषधोपवास
तीसरे दिन पुन एक वेला, इस प्रकार चार बेलामें भोजनका त्याग होने के कारण उपवासको चतुर्भत बेलेको भक्त आदि कहते है। व्रत प्रतिमा प्रोषधीषवास सातिवार होता है, और प्रोषधोपवास प्रतिमा में निरतिचार ।
१. भेद व लक्षण
१. उपवास सामान्यका लक्षण १. निश्चय
का.अ./मू / ४३६ उवसमणो अक्खाणं उनवासो वण्णिदोसमासेण । जम्हा भुजता वि य जिदिदिया होति उबवासा ।४३६१ - तीर्थंकर, गणधर आदि युनिन्होने उपशमनको उपवास कहा है. इसलिए पुरुष भोजन करते हुए भी उपवासी है।
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अनध / ७/१२ स्वार्थादुपेत्य शुद्धात्मन्यक्षाणा बसनाल्लयात् । उपवासोसनस्वायत्त्राद्यपेयमि गम् १२ पूर्वक व धातुसे उपनाम बनता है अर्थात उपसर्गका अर्थ उपेय हट तथा वसू धातुका अर्थ निवास करना या लीन होना होता है । अतएव इन्द्रियोंके अपनेअपने विषयसे हटकर शुद्धात्म स्वरूपमें लीन होनेका नाम उपवास है। इस
२. व्यवहार
स.सि./७/२१/३६९/३ शब्दादिग्रहण प्रति निवृतोत्सुक्यानि पञ्चापीन्द्रि याण्युपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवास । चतुर्विधाहारपरित्याग इत्पर्थ पाँच इन्द्रियों के सम्वादि विषयों से हटकर उसमें निवास करना उपवास है । अर्थात् चतुर्विध आहारका त्याग करना उपवास है। (रा.मा./०/२१/८/१४/ सा./ ०/१०)।
२. उपवासके भेद
म.प्र. २८० उत्तम मम जहां तिविद्धं पोसणा विहारामुट्ठि - तीन प्रकारका प्रोषध विधान कहा गया है-उत्तम, मध्यम, जघन्य | अन ध / ७ /१४ उपवासो बरो मध्यो जघन्यश्च त्रिधापि स कार्यो विरले. विरक्त पुरुषोका उत्तम, मध्यम व जघन्यमे से कौन सा भी उपवास प्रचुर पातकोकी भी शीघ्र निर्जरा कर सकता है। * अक्षयनिधि आदि अनेक प्रकारके व्रत ३० मत १९
३. प्रोषधोपवासका लक्षण
...// १०१ चतुराहारविसर्जनमा प्रोषध कृति स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति । १०६ । चार प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास है। एक बार भोजन करना प्रोषध है। जो धारणे पारनेके दिन प्रोषधसहित गृहार भादिको छोडकर उपवास करके आरंभ करता है, वह प्रोषधोपवास है। स.सि./७/२१/६१/२ मा प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवास. । = प्रोषधका अर्थ पर्व है । पर्व के दिनमें जो उपवास किया जाता है हमे प्रवास कहते है ( वा १०/२१/१६४८/६). (सा. ध. / ५ / ३४) ।
का.अ./मू./३३०-२५१ हा विणण ही सग्ग-गंधादी जो परिहवी पाणी बेरग्नाभ्रमण किया। दो पिस उववास एय भत्तणित्रियडी । जो कुणदि एवमाई तस्स वय पोसह विदियं । ३५६ | = जो श्रावक सदा दोनो पर्वोमे स्नान, विलेपन, भूषण, स्त्री समर्ग गंध, धूप, दीपादिका रुपान करता है। वैराग्यरूपी भूषणभूषित होकर उपवास या एक बार भोजन, वा निर्विकृति भजन करता है। उसके प्राषधोपवास नामका शिक्षावत होता है १३५८-३५६१
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४. प्रोषधोपवास सामान्यका स्वरूप
// १६-१० पर्ययम्या क्षाराव्य प्रोषधोपयासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यान सदेच्छाभि । १६ । पञ्चाना पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम् । स्नानाञ्जननस्यानामुपवासे परिहति कुर्यात |१०| धर्मामृतं ससृष्ण प्रवणाभ्या पितु पायायात् ज्ञानध्यानप वा भवसन्दा ११८ चर्दशी तथा अमी दिन सदावत विधानकी इच्छासे चार तरह के भोजनके त्याग करनेको प्रवास जानना चाहिए । १६ उपवास के दिन पाँचो पापोका शृङ्गार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान, अञ्जन तथा नश्य (सूघने योग्य) वस्तुञ्जका व्याग करे १० (सु.आ./२१३) उपवास के दिन आलस्य रहित हो कानोसे अतिशय उत्कंठित होता हुआ धर्म रूपी अमृतको पोयें तथा दूसरोंको पिलाने अथवा ज्ञान-ध्यानमेतत्पर होने खा.स./६/९१५-१६०) ।
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१. भेद व लक्षण
ससि /०/२१/३६२/४ स्वशरीरसस्कारकारणस्नानगन्धमान्याभरणादिविरहित शुचावकाशे साधुनिवासे चैत्यालये स्वप्राषधोपवासगृहे या धर्मका प्रवणावचिन्तनविहितान् करणः सन्नुपवसेझिरारम्भ श्रावक. 1 = प्रोषधोपवासी श्रावकको अपने शरीर के सस्कार के कारण, स्नान, गन्ध, माला और आभरणादिका त्याग करके किसी पवित्र स्थानमें वैश्यालय मे या अपने प्रोषधोपयासके लिए नियत किये गये घरमें धर्म कथा सुनने-सुनाने और चिन्तवन करनेमे मनको लगाकर उपवास करना चाहिए और सब प्रकारका आरम्भ छोड देना चाहिए। ( रा वा / ७ / २१/२६/५४६/३५), (का अ / ३५८) |
६/२०४ चयं च कर्तव्यं धारणावि दिनक्रम परयोषितका प्राश्वात्मकतप्रके १२०४१ - धारणाके दिन से लेकर पारणाके दिन तक, तीन दिन उसे ब्रह्मचर्म पालना चाहिए। यह ध्यान में रखना चाहिए। व्रती श्रावकके लिए परस्त्रीका निषेध तो पहले ही कर चुके हैं, यहाँ तो धर्मपत्नी ध्यानकी बात बतायी जा रही है। व्रत विधान सग्रह / पृ. २२ पर उधृत प्रात सामायिक सत तात्कालिक क्रियाम्। धीताम्बरधरो धीमान् जिनध्यानपरायणम् ॥ १॥ महाभिषेकमभुत्यै जिनागारे व्रतान्वितै । कर्तव्यं सह संघेन महापूजादिकोत्सवम् |२| ततो स्वगृहमागत्य दानं दद्यात् मुनीशिने । निर्दोष प्राशु शुद्ध मधुरं तृष्टिकारण ३ प्रत्याख्यानो भूत्वा रातो गया जिनालय प्रिपरी कार्याक्तिजिना लयम् |४| विवेकी, व्रती श्रावक प्रात काल ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सामायिक करे, और बाद में शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध साफ वस्त्र धारण कर श्रीजिनेन्द्र देवके ध्यानमे तत्पर रहे |१| श्री मन्दिरजीमें जाकर सबको आश्चर्य करे ऐसा महाभिषेक करें, फिर अपने संघके साथ समारोह पूर्वक महा पूजन करे २] यत विधान स. पू. २७ पर उद्धृत । पश्चात अपने घर आकर मुनियोको निर्दोष प्रामुक, शुद्ध, मधुर और सृष्टि करनेवाला आहार देकर शेष बचे हुए आहार सामग्री को अपने कुटुम्बके साथ सानन्द स्वयं आहार करे |३ | फिर मन्दिरजी मे जाकर प्रदक्षिणा देवे और व्रत विधान में कहे गये मन्त्रोका जाप्य करे |४|
५. उत्तम, मध्यम व जघन्य प्रोषधोपवासका स्वरूप
पु. सि. उ. / १५२-१५६ मुक्तसमस्तारम्भ प्रोषधदिन पूर्व वासरस्याओं 1 उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादी । १५२ ॥ श्रित्वा विविक्तवसति समस्तसाव वयोगमानीय सर्वेन्द्रियार्थं विरत कायमनोवचन
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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मिति २५ धर्मध्यानाशको वासरमतिवाहाविहित सान्ध्यविधि। शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः १६४४ प्रात प्रोरथाय ततः कृखा साकालिक क्रियाकल्प निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्राशुकैव्ये १२५ उक्तेन ततो विधिना नखा
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