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भावना विधि व्रत
भावना
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(मु. आ/४८), (नि सा./मू./१०२), इत्येकरवभावनया तस्या' फल स्वजनपरजनादौ निर्मोहत्वं भवति। मानापमानसमताबलेनाशनपानादौ यथालाभेन सतोषभावना तस्या, फल आत्मोस्थसुखतृप्त्या विषयसुखनिवृत्तिरिति । - अनशन आदि बारह प्रकारके निर्मल तपको करना सो तपोभावना है। उसका फल विषयकषायपर जय प्राप्त करना होता है। प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानयोगके भेदसे चार प्रकारके आगमका अभ्यास करना श्रुतभावना है। मूल और उत्तरगुण आदिके अनुष्ठानके विषय में गाढ वृत्ति होना सो सत्त्वभावना है, धोर उपसर्ग अथवा परीषहके आनेपर भी पाण्डवादिकी भॉति उसको दृढतासे मोक्ष प्राप्त होती है, यही इसका फल है। "ज्ञान दर्शन लक्षणवाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है। शेष सब संयोग लक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य है।" (भा. पा./मू 1५६), (मू. आ/४८), (नि. सा./१०२) यह एकत्व भावना है। स्वजन व परजनमें निर्मोहत्व होना इस भावनाका फल है।.. मान अपमानमें समतासे. अशनपानादिमें यथा लाभमे समता रखना सो सन्तोष भावना है।
आत्मासे उत्पन्न सुख में तृप्ति और विषय सुखसे निवृत्ति ही इसका
३. पाँच कुत्सित भावनाएँ भ आ./मू /१७६/३१६ कंदपदेवखिम्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा । एदाहु संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिदा। कान्दी (कामचेष्टा) कैत्विषी (क्लेशकारिणी) आभियोगिकी (युद्धभावना), आसुरी ( सर्वभक्षणी) और संमोही ( कुटुम्ब मोहनी)। इस प्रकार ये पाँच भावनाएँ संक्लिष्ट कही गयी है ।१७।। (मू. आ। ६३), (ज्ञा /४/४१), (भा. पा/टी./१३/१३७ पर उद्धृत)। ४, अन्य सम्बन्धित विषय १. मैत्री प्रमोद आदि भावनाएँ
-देव्रत/२॥ २. पाँच कुत्सित भावनाओंके लक्षण
-दे०वह वह नाम। ३. सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी भावना -दे० वह वह नाम । ४. वैराग्य भावनाएँ
-दे० वैराग्य। ५. महाव्रतकी पॉच भावनाएँ
-दे०वह वह व्रत। ६. व्रतोंकी पाँच-पाँच भावनाएँ मुख्यतः साधुओंके लिए,
और गोणतः श्रावकोंके लिए कही गयी है --दे० व्रत/२। ७ परमात्म भावनाके अपरनाम -दे० मोक्षमार्ग/२/५। ८. भावना व ध्यानमें अन्तर
-दे० धर्मध्यान/३ ।
प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण ज्ञानोण्योगयुक्तता, इन सोलह कारणोसे जीव तीर्थकर चाम-गोत्रकर्मको बाँधते है।४१॥ (म. १/३४/३५/१६)। त. सू./६/२४ दर्शनविशुद्धिविनयसपन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्ण
ज्ञानोपयोगसवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकरणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सन्न त्वमिति तीर्थ करत्वस्य ।२४। - दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और बतोका अतिचार रहित पालन करना, ज्ञानमें सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्तिके अनुसार त्याग, शक्तिके अनुसार तप, साधुसमाधि, वैयावृत्त्य करना, अरहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओको न छोडना, मोक्षमार्गकी प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये तीर्थ कर नामकर्म के आसव है ।२४। (द्र, सं /टी/३८/१५६/१) । *षोडशकारण भावनाकि लक्षण-दे०वह वह नाम । २. सर्व वा किसी एक भावनासे तीर्थकरत्वका बन्ध सम्भव है स. सि./६/२५/३३६/६ तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च तीर्थकरनामकस्सिवकारणानि प्रत्येतव्यानि।
ये सोलह कारण है। यदि अलग-अलग इनका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकम के आस्रवके कारण होते है और समुदाय रूपसे सबका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी 'ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रवके कारण होते हैं। (रा. वा। ६/२४/१२/५३०/२२), (ध ८/३,४१/११/६); (चा, सा.७/५७/२)। ध ८/३,४१/पृष्ठ पंक्ति-तीए दसण विमुज्झाए एक्काए वि तित्थयरकम्म अंधति । (८०/६)। तदो विणयसंपण्णदा एक्काए वि तित्थयरणामकम्म मणुआ बंधं ति । (८१/४)। तीए आवासयापरिहीणदाए एक्काए वि। (८५/)। तीए (खणलवपडिबुझणदाए) एक्काए वि। (८५/१२)। तीए (लद्धिस वेगसंपण्णदाए) तित्थयरणामकम्मस्स एकाए विबेधो । (८६/४)। ताए एवं विहार एकाए ( वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए) बि1 (८८/१०)। उस अकेली दर्शनविशुद्धि भावनासे अथवा अकेली विनयसम्पन्नतासे, अथवा अकेली आवश्यक अपरिहीनतासे, अथवा अकेली क्षणलव प्रतिबद्धतासे, अथवा अकेली लब्धिसंवेगसम्पन्नतासे, अथवा अकेली वैयावृत्य योगयुक्ततासे तीर्थ कर नामकर्मका बन्ध होता है। ३. एक-एकमें शेष १५ मावनाओंका समावेश चा, सा/१०/२ एकैकस्यां भावनायामविनाभाविन्य इतरपञ्चदश भावना. । प्रत्येक भावना शेष पन्द्रही भावनाओकी अविनाभावी है क्योंकि शेष पन्द्रहोके बिना कोई भी एक नहीं हो सकती।(विशेष दे० यह वह नाम)। * दर्शन विशुद्धि भावनाकी प्रधानता-दे० दर्शन विशुद्धि/३। भावना पचीसोवत-प्रथम दश दशमीके १०, पाँच पंचमीके १,
आठ अष्टमीके ८, दो पडिमाके २, इस प्रकार पाँच माह पर्यन्त २५ उपवास करे, तथा नमस्कार मन्त्र का त्रिकाल जाप करे। (बतविधान स/पृ.४६)। भावना पद्धात-भट्टारक पद्मनन्दि (ई. १३२८-१३६८) कृत ३४
सस्कृत पद्य प्रमाण जिनस्तवन। (ती०/३/३२४) । भावना विधि व्रत-प्रत्येक व्रतकी भावनाओके हिसाबसे पाँच
व्रतोको २५ भावनाओको भाते हुए एक उपवास एक पारणा क्रमसे २५ उपवास पूरे क्रे । ( ह. पु/३४/११३ ) ।
२. षोडश कारण भावना निर्देश
१. षोडश कारण भावनाओं का नाम निर्देश ष खं. ८/३/मू. ४१/७६ दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्बदेसु णिरदिचारदाए आवासएस अपरिहीणदाए खण-लवपडिबुझणदाए लद्धिसवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधातवे, साहूणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेजाबच्चजोगजुत्तदार अरहतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्रवण णाणोबजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्म बंधति ।४१॥ - दर्शन विशुद्धता, विनय सम्पन्नता, शीलवतोमे निरतिचारता, छह आवश्यकोमे अपरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओको प्रामुक परित्यागता, साधुओको समाधिसधारणा, साधुओकी वेयावत्ययोगयुक्तता, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-२९
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