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भावकर्म
३. भाव अभाव शक्तियाँ
१. आत्माको भावाभाव आदि शक्तियोंके लक्षण
पं.का./मू.वत. प्र. / २१ एवं भावमभाव भावाभावं अभावभावं च । गुणपजये हि सहिदो संसारमा कुदि जीनो २१ जीवद्रव्यस्य • तस्यैव देवादरूपेण प्रादुर्भवतो भावकर्तृवमुक्त तस्यैव चमनुष्यादिपर्यायरूपेण व्ययतोऽभावकतु' लगायत तस्यैव च सती देवादिपर्यावस्योच्छेदनारममाणस्य भावाभावक स्वमुदितः तस्यैव चासत पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभाव
ममिति गुण पर्याय सहित जीव धमय करता हुआ भाव, अभाव, भावाभाव और अभावभावको करता है । २१ । देवादि पर्याय रूपसे उत्पन्न होता है इसलिए उसीको ( जीव द्रव्यको ही ) भावका ( उत्पादका) कर्तृत्व कहा गया है। मनुष्यादि पर्याय रूपसे नाशको प्राप्त होता है, इसलिए उसीको अभावका (व्ययका ) कहा गया है। सद ( विद्यमान ) देवादि पर्यायका नाश करता है, इसलिए उसीको भावाभावका ( सदके विनाशका) कर्तृ व कहा गया है, और फिरसे असद (अभिमान) मनुष्यादि पर्यायका उत्पाद करता है इसलिए उसीको अभावभावका (असत्के उत्पादका) कर्तृत्व कहा गया है ।
स सा/आ./परि/शक्ति नं. २२-४० भूतावस्थश्वरूपा भागात ॥३३० शून्यावस्थत्वरूपा अभावशक्ति. 1३४ - भवत्पर्यायव्ययरूपा भावाभावशक्ति |३३| अभवत्पर्यायोदयरूपा अभावभाव 1241 भवत्पर्यायभवनरूपा भावभावशक्ति । ३७॥ अभवत्पर्यायाभवनरूपा अभावभाव ३८ कारकानुगत किया निष्कान्तभवनमामी भावशति ३६ विद्यमान अवस्थारूप भवति (अनुक अवस्था जिसमें विद्यमान हो उस रूप भावशक्ति ) |३३| शून्य (अविद्यमान अवस्थायुक्तता रूप अभावशक्ति । ( अमुक अवस्था जिसमें अविद्यमान हो उस रूप अभावशक्ति) | ३४ | प्रवर्त्तमान पर्यायके व्ययरूप भावाभावशक्ति | ३५१ अप्रवर्तमान पर्यायके उदय रूप अभावभावशति ३६ अपमान पर्यायके भवन रूप भावभावशक्ति |३७| अप्रवर्तमान पर्यायके अभवनरूप अभावभावशक्ति |३८| (कर्ता कर्म आदि ) कारको के अनुसार जो क्रिया उससे रहित भवनमात्रमयी ( होने मात्रमयी) भावशति ॥३१॥
२. भाववती शक्तिका क्षण
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प्र, सा./त.प्र १२६ तत्र परिणाममात्रलक्षणो भावः । भावका लक्षण परिणाम मात्र है ।
११४ भाग शक्तिविशेषस्तत्परिणामोऽय या निरशांयो । - शक्तिविशेष अर्थात् प्रदेशत्व से अतिरिक्त शेष गुणों को अथवा तरतम अंशरूपसे होनेवाले उन गुणोके परिणामको भाव कहते हैं (पं.प./ २६)।
भावकर्म दे० कर्म भाव त्रिभंगी
श्रुत मुनि (वि श १४ उत्तरार्ध) कृत, जीव के औपशमिकादि भावों का प्रतिपादक, ११६ प्राकृत गाथाओं का संकलन (जे./१/४४२)
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भावनय - दे० नय / I / ५/३ | भावना-भावना ही पुण्य-पाप, राग-वैराग्य, ससार व मोक्ष आदिका कारण है, अतः जीवको सदा कुत्सित भावनाओका त्याग करके उत्तम भावनाएँ भानी चाहिएँ । सम्यक् प्रकारसे भायी सोलह प्रसिद्ध भावनाएँ व्यक्तिको सर्वोत्कृष्ट तीर्थंकर परमे भी स्थापित करनेको समर्थ है।
१. भावना सामान्य निर्देश
१. भावना सामान्य व मति, श्रुत ज्ञान सम्बन्धी
भावना
भावना
रा वा / ०/३/२/३/२६
बोर्यान्तरागक्षयोपशमचारित्रमोहोपशमक्षयोपशमादोपादनामाभाग कारमना भाव्यन्ते या इति भावना नीर्मान्तराम क्षयोपशम चारिमोहोमदाम क्षयोपशम और अगोपांग नामकर्मोदयकी अपेक्षा रखनेवाले आत्मा द्वारा जो भायी जाती है - जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, वे भावना है।
काखा/४६/८६/९ ज्ञातेऽर्थे पुन. पुनश्चिन्तनं भावना जाने हुए अर्थ को पुन: पुनः चिन्तन करना भावना है । ★ मतिज्ञान ३० वह वह नाम
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२. पाँच उत्तम भावना निर्देश
भ आ./मू./१०० २०३ तवभावना य सुदसत्तभावणेगत भाषणे चैव । fatafaभावणाविय असं किलिद्वावि पंचविहा । १८७१ तवभावणार पंचेदियाणि दताणि तस्स वसति । इदियजोगायरिओ समाधिकरणाणि सो कुण १८८ सुदभावणाए णाणं दसणत संजम च परिणम तो ओगपणा सहमविदो माह | १६४ देि भेसिदो विहु कयावराधो व भीमरूवेहि । तो सत्तभावणाए बह भर णिग्भओ सयलं । ९६६ ॥ एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा । सज्जह वेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्म |२००१ कसिणा परीसहब अम्भु वह विसोरसम्यान दुपहरी अन्पता । २०२॥ विदिषणिकछो जोइसोमबाई पिदिभावणार सूरो संपुष्णमगोरहो होई | २०३३ प भावना, श्रुतभावना, सत्त्व भावना, एकत्व भावना, और धृतिनल भावना ऐसी पाँच भावनाएँ अस क्लिष्ट है । १८७ ( अन. ध./७/ १००) तपश्चर से इन्द्रियो का मद नए होता है,
हो जाती है, सो तब इन्द्रियोको शिक्षा देनेवाला आचार्य साधुरत्नत्रय में जिनसे स्थिरता होती है ऐसी तप भावना करते है ।१८ श्रुतकी भावना करना अर्थात तद्विषयक ज्ञानमे बारम्बार प्रवृत्ति करना श्रुत भावना है। इस श्रुतज्ञानकी भावनासे सम्यग्ज्ञान, दर्शन, तप संयम इन शोको प्राप्ति होती है । १६४। वह मुनि मोस्ट किया गया, भयंकर व्याघ्रादिरूप धारण कर पीडित किया गया तो भी सत्व भावनाको हृदय में रखकर दुखोको सहनकर और निर्भय होकर संयमका सम्पूर्ण भार धारण करता है । ११६ | एकत्व भावनाका आश्रय लेकर विरक्त हृदयसे मुनिराज कामभोगमे, चतुर्विध संघ, और शरीर मे आसक्त न होकर उत्कृष्ट चारित्र रूप धारण करता है |२००१ चार प्रकार के उपसर्गों के साथ भूख प्यास, शीरा, उष्ण बने रह बाईस प्रकारके दुखोको उत्पन्न करनेवाली बावोसपरीषह रूपी सेना, दुर्धर सकटरूपी वेगरी युक्त होकर जब मुनियोपर आक्रमण करती है। तब अल्प शक्तिके धारक मुनियोको भय होता है | २०२॥ धैर्यरूपी परिधान जिसने बाँधा है ऐसा पराक्रमी मुनि प्रतिभावनाय धारण कर सफल मनोरथ होता है ॥२०३॥
पं. का/ता / १०३/२५४/१३ अनशनादिद्वादशविधनि सतपश्चरण तपोभावना, तस्याः फलं विषयकषायजयो भवति प्रथमानियोगचरपानियोगकरण नियोगम्यानियोगभेदेन चतुर्विध आगमाभ्यासः
भावना...मुसोत्तर गुणानुष्ठानविषये निर्गनवृत्ति समभावना तस्या फलं घोरोपसर्ग परीषहप्रस्तावेऽपि निर्गहनेन मोक्ष साधयति पाण्डवादिवत । एगो मे सस्सदो अप्पा णाणद सणलवखणी । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे सजोगलबखणा (भा.पा /मू./५६),
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