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प्रकृति बंध
७. प्रकृति बन्ध विषयक प्ररूपणाएं
गुण स्थान
व्युच्छित्तिकी प्रकृतियाँ
अबन्ध पुनः बन्ध
कुलबन्ध योग्य
अबन्ध पुन' बन्ध
व्युच्छित्ति | शेष गन्ध योग्य
सत्त्व पुरुष वेद सत्त्व | स्त्री वेद सत्व नपुंसक वेद स्थान | सहित चढा | स्थान | सहित चढ़ा | स्थान | सहित
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पुरुष वेद संज्वलन क्रोध
पुरुष वेद । | संज्वलन क्रोध
१३ पुरुष वेद
| संज्वलन
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क्रोध
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, मान ४ , माया ३ , लोभ, २
४ ३
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मान , माया . लोभ
, मान , माया , लोभ
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ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी ४, अन्तराय यश.कीर्ति, उच्चगोत्र-१६
सू० सा० उपशान्त क्षीण सयोगी
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साता वेदनीय
-
-
३. सातिवाय मिथ्याष्टिमें बन्ध योग्य प्रकृतियाँ
(ध.६/१३४); (ल. स./११-१५/४६-५२)
-
गति मार्गणा
कुल बन्ध योग्य
बन्धके अयोग्य प्रकृतियाँ
बन्ध योग्य प्रकृतियाँ
मनुष्यगति
असाता, स्त्रीवेद, नपंसक वेद, आयु चतुष्क, अरति, शोक, नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय जाति, द्विइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, आहारक शरीर, न्यग्रोधादि ५ संस्थान. औदारिक अंगोपांग, आहारकांगोपांग, छहों संहनन, नरकआनुपूर्वी, तिर्यग्गतिआनुपूर्वी, मनु० आनुपूर्वी,आतप, उद्योत, अप्र० वि०गति, स्थावर सूक्ष्म, अपर्याप्त, सा० शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति, तीर्थकर, नीचगोत्र। -४६
ज्ञानावरणी, १ दर्शनावरणी, साता, मिथ्यात्व, अनन्तान०१६, पुरुष वेद, हास्य. रति, भय, जुगुप्सा, देवगतिद्विक, पंचे० जाति. वै क्रियक शरीर द्विक २, तेजस व कार्माण शरीर, समचतुरस्र सं०, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायो०. बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर. शुभ, सुभग, मुस्वर, आदेय, यश कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र,५ अन्तराय ।
तिर्यग्गति देवगति
४६-मनुष्य चतुष्क तथा वन ऋषभ नाराच संहनन+ देव चतुष्क ।
-४८
७१-देव चतुष्क+ मनुष्य चतुष्क + वज्रऋषभ नाराच संहनन
-७२
नरक गति१-६ पृथिवी ७वीं पृथिवी
१००
४८-तियंच द्विक, नीचगोत्र+मनुष्य द्विक
उच्चगोत्र ४८-उद्योत
-ge
७२-मनुष्यद्विक, उच्चगोत्र + तिथंच द्विक
नीच गोत्र ७२+उद्योत
|58
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
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