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पर्याप्ति परोक्ष
नि, सा /ता वृ./१२ मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थत परोक्षम् । २. स्मृति आदि की अपेक्षा
व्यवहारत प्रत्यक्षं च भवति। - भति और श्रुज्ञान दोनो ही त स /१/१३ मति' स्मृति सज्ञा चिन्ताभिनित्रोध इत्पनन्तरम् ।
परमार्थ से परोक्ष है और व्यवहारसे प्रत्यक्ष होते है। मति, स्मृति, मना चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची
प्र सा /ता वृ/१२/७३/१५ इन्द्रियज्ञान यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्ष नाम है।
भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव । - इन्द्रियन्या समू/२/२/2/8 प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा प्रमाणानि ।।
ज्ञान यद्यपि व्यवहारसे प्रत्यक्ष कहा जाता है, तथापि निश्चयनयसे न्या व/मु /२/२/९/१०६ न चतुष्ट बमैतियापित्तिसभवाभाव
केवलज्ञानकी अपेक्षा परोश ही है । ( न्या. दी/२/११२/३४/२)। प्रामाण्यात् ।। न्यायदर्शनमे प्रमाण चार होते है-प्रत्यक्ष, अनुमान,
प.ध./1/७०० आभिनिबोधिकबोधो विषयविषयिसंनिकर्षजस्तउपमान और शब्द ।३। प्रमाण चार ही नही होते है किन्तु ऐतिह्य,
स्मात । भवति पर नियमादपि च मतिपुरस्सर श्रुत ज्ञानम् 1०००। अथपित्ति सम्भव और अभाव ये चार और मिलकर आठ प्रमाण है।
- मतिज्ञान विषय विपयीके सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है, और श्रुतप मु/३/२ प्रत्यक्षादिनिमित्त स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्मनुमानागभेदं
ज्ञान भीनियमसे मतिज्ञान पूर्वक होता है, इसलिए वे दोनो ज्ञान २। वह परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष आदिकी सहायतासे होता है और
परो, कहलाते है ।७७०१ (प.ध/पू /७०१,७०७ ) । उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम पाँच भेद
* इन्द्रिय ज्ञानकी परोक्षता सम्बन्धी शंका समाधान है ।२। (स्या म./२८/३२१/२१); (न्या. दी./३/8३/५३/१)। स्या म./२८/३२२/५ प्रमाणान्तराणा पुनरपित्त्युपमानस भवप्राति
-दे० श्रुतज्ञान/1/1 भैतिह्यादीनामात्रैव अन्तर्भावः । = अर्थापत्ति, उपमान, सम्भव, * मतिज्ञानका परमार्थमें कोई मूल्य नही प्रातिभ, ऐतिह्य आदिका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणो मे हो
-दे० मतिज्ञान/२। जाता है।
* सम्यग्दर्शनकी कथंचित् परोक्षता ३. परोक्षामासका लक्षण
-दे० सम्यग्दर्शन/I/३ । प. म./६/७ वैशद्योऽपि परोक्ष तदाभास मीमासकस्य करणस्य ज्ञानवत ।
५. परोक्षज्ञानको प्रमाणपना कैसे घटित होता है परोक्षज्ञानको विशद मानना परोक्षाभास है, जिस प्रकार परोक्ष
रा वा/१/१२/७/१२/२६ अत्राऽन्ये उपालभन्ते- परोक्ष प्रमाणं न रूपसे अभिमत मीमांसकोंका इन्द्रियज्ञान विशद होनेसे परोक्षाभास
भवति, प्रमीयतेऽनेनेति हि प्रमाणम्, न च परोक्षेण किंचित्प्रमीयतेकहा जाता है।
परोक्षरवादेव इति, सोऽनुपालम्भ । कुत । अतएव । यस्मात 'परायत * मति श्रृत ज्ञान-दे० वह वह नाम ।
परोक्षम्' इत्युच्यते न 'अनवबोध' इति । -प्रश्न-'जिसके द्वारा
निर्णय किया जाये उसे प्रमाण कहते हैं इस लक्षणके अनुसार परोक्ष * स्मृति आदि सम्बन्धी विषय-दे० मति ज्ञान/३ । होनेके कारण उससे (इन्द्रिय ज्ञानसे) किसी भी बातका निर्णय नहीं * स्मृति आदिमें परस्पर कारणकार्यमाव
किया जा सकता, इसलिए परोक्ष नामका कोई प्रमाण नहीं है । -दे० मतिज्ञान/३।
उत्तर-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ परोक्षका अर्थ अज्ञान
या अनवबोध नही है किन्तु पराधीन ज्ञान है । १. मति श्रत ज्ञानकी परोक्षताका कारण
परोदय--परोदय वन्धी प्रकृतियाँ-दे० उदय/७। प्र सा /मू /५७ परदव्य ते अक्वाणेव सहावो त्ति अपणो भणिदा ।
परोपकार-दे० उपकार । उबलद्ध तेहि कध पच्चख अप्पणो होदि ।५७ -वे इन्द्रियों परदव्य है, उन्हे आत्मस्वभावरूप नहीं कहा है, उनके द्वारा ज्ञात आरमा
पर्यकासन-दे० आसन । का प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है अर्थाद नहीं हो सकता ।५७)
पर्यनुयोज्योपेक्षण निग्रहस्थानरा. वा /२/८/१८/१२२/६ अप्रत्यक्षा घटादयोऽग्राहकनिमित्तग्राह्यत्वाइ
न्या सू /१२/२१/३१७ निग्रहस्थानप्राप्तस्यानिग्रह पर्यनुयोज्यो पेक्षणम् । धूमाद्यनुमिताग्निवत् । अग्राहकमिन्द्रियं तद्विगमेऽपि गृहीतरमरणात्
।२१। निग्रहथानमें प्राप्त हुएका निग्रह न करना 'पर्यनुयोज्योपेक्षण' गवाक्षवत । इन्द्रियों अग्राहक है, क्योकि उनके नष्ट हो जानेपर
नामक निग्र स्थान हाता है। (श्लो वा, ४/न्या./२४४/४१४/२७ मे भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिडकी नष्ट हो जानेपर भी उसके
उद्धृत)। द्वारा देखनेवाला स्थिर रहता है उसी प्रकार इन्द्रियोसे देखनेवाला
पर्यवसन्न-निश्चय । ( स भ त /४/१)। ग्राहक आत्मा स्थिर है, अत अग्राहक निमित्तसे ग्राह्य होनेके कारण टन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही है।
पघात-योनि स्थानमें प्रवेश करते ही जीव वहाँ अपने शरीरके. क पा १/१,१४११६/२४/३ मदि-सुदणाणाणि परोक्खाणि, पाएण तत्ा योगा कुछ पुद्गल वर्गणाओंका ग्रहण या आहार करता है। तत्पश्चाव
अविसदभावदसणादो। मति और श्रुत ये दोनो ज्ञान परोक्ष है, उनके द्वारा क्रमसे शरीर, श्वास, इन्द्रिय, भाषा व मनका निर्माण क्योकि इनमे प्राय अस्पष्टता देखी जाती है।
दरता है । यद्यपि स्थूल दृष्टि से देख्नेपर इस कार्य मे बहुत काल लगता प मु/२/१२ सावरणत्वे करण जन्यत्वे च प्रतिबन्धसंभवात १२= आव- है, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखने पर उपरोक्त छहाँ कार्यकी शक्ति एक अन्तरण सहित और इन्द्रियोकी सहायतासे होनेवाले ज्ञानका प्रतिबन्ध मुहूर्त मे पूरी कर लेता है। इन्हे ही उसकी छह पर्याप्तियाँ कहते है। सभव है। इसलिए वह परोक्ष है)।
एकेन्द्रियादि जीवोको उन-उनमें सम्भव चार, पाँच, छह तक पर्यान्या. वि./वृ /१/३/६६/२४ इद तु पुनरिन्द्रियज्ञान परिस्फुटमपि प्तियाँ सम्भव है। जब तक शरीर पर्याप्ति निष्पन्न नहीं होती, तब नात्ममात्रापेझ तदन्यस्येन्द्रियस्याप्यपेक्षणात् । अत एक.नधिकलत्या तक वह निवृत्ति अपर्याप्त सज्ञाको प्राप्त होता है, और शरीर पर्याप्ति परोक्षमेवेति मतम् । इन्द्रियज्ञान यद्यपि विशद है परन्तु आत्ममात्र- पूर्ण कर चुकनेपर पर्याप्त कहलाने लगता है, भले अभी इन्द्रिय आदि की अपेक्षासे उत्पन्न न होकर अन्य इन्द्रिया दिककी अपेक्षासे उत्पन्न चार पर्याप्तियाँ पूर्ण न हुई हों। कुछ जीव तो शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये होता है. अतः प्रत्यक्षज्ञानके लक्षण में एकाग विकल होनेसे परोक्ष ही बिना ही मर जाते हैं, वे क्षुदभवधारी, एक श्वासमे १८ बार जन्ममाना गया है।
मरण करनेवाले लब्ध्यपर्याप्त जीव कहलाते है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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