________________
प्ररूपणा
१४७
प्रवचन
प्ररूपणाध. १/१,१,८/१५९/६ प्ररूपणा निरूपणा प्रज्ञापनेति यावत् । -प्ररूपणा,
निरूपणा और प्रज्ञापना ये एकार्थवाची नाम है। ध. २/१,१/४११/८ परूवणा णाम कि उत्त होदि । ओधादेसेहि गुणेसु जीवसमासेमु पज्जत्तापज्जत्तबिसेसणेहि विसेसिऊण जा जीवपरिक्खा सा परूवणा णाम। -प्रश्न-प्ररूपणा किसे कहते है। उत्तर--सामान्य और विशेषको अपेक्षा गुणस्थानोमे (२० प्ररूपणाओ में) पर्याय और अपर्याप्त विशेषणोसे विशेषित करके जो जीवौकी परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते है।
२. बीस प्ररूपणाओंके नाम निर्देश प,स /प्रा /२/२ गुणजोवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य ।
उव ओगो विय कमसो वीस तु प्ररूवणा भणिया ।। -गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, सज्ञा, चौदह मार्गणाएँ और उपयोग, इस प्रकार क्रमसे ये बीस प्ररूपणा कही गयी है ।२। (गो, जी /मू./ २/३१), (पं.सं./सं./१/११) विशेष दे० अनुयोग/२।
* प्ररूपणाओंका मार्गणा स्थानों में अन्तर्भाव प्रलंब-१. एक ग्रह-दे० ग्रह।
२. भ. आ./वि./११२३/११३०/१६ प्रलम्ब द्विविध मूलप्रलम्ब, अग्रप्रलम्ब च । कंदमूल फलारव्यं, भूम्यनुप्रवेशि कन्दमूलप्रलम्ब, अडकुरप्रवालफलपत्राणि अग्रप्रलम्बानि ।प्रलम्बके मूल प्रलम्ब और अग्र प्रलम्ब ऐसे दो भेद है। कन्द मूल और अंकुर जो भूमिमे प्रविष्ट । हुए है उनको मूल प्रलम्ब कहते है। अकुर, कोमल पत्ते, फल, और कठोर पत्ते इनको अग्रप्रलम्ब कहते हैं।
प्रलय-१. जैन मान्य प्रलयका स्वरूप ति.प./४/१५४४-१५५४ उणवण्णदिवसविरहिदइगिवीससहस्सवस्सविच्छेदे । जतुभयकरकालो पलयो त्ति पयट्टदे घोरो ।१५४४) ताहे गरुवगभीरो पसरदि पवणो रउद्दसवट्टो। तरुगिरिसिलपहुदी] कुणोदि चुण्णाइ सत्तदिणे ।१५४५॥ तरुगिरिभगेहि णरा तिरिया य लहंति गुरुवदुक्खाइ । इच्छति वसणठाण विलवति बहुप्पयारेण ११५४६। गंगासिंधुणदीणं वेयड्ढवणंतरम्मि पविसति। पुह पुह सस्नेज्जाई बाहत्तरि सयलजुबलाइ ११५४७। देवा बिज्जाहरया कारुण्णपरा गराण तिरियाण। सखेज्जजीवरासि खिव ति तेसं पएसेसं ॥१५४८ ताहे गभीरगज्जी मेष मुचति तुहिणवारजलं । विससलिलं पत्तक्क पत्तेक्क सत्तदिवसाणि ॥१५४६। धूमो धूली बज्जं जलंतजाला य दुप्पेच्छा। परिसंति जलदणिवहा एक्केक्कं सत्त दिवसाणि ।१५३०। एव कमेण भरहे अज्जाख डम्मि जोयणं एक्कं । चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ वढिगदा भूमी ।१५५१॥ वज्जमहग्गिबलेण अज्जखडस्स बढिया भूमी। पुबिल्लख धरूव मुत्तूण जादि लोयतं ।१५५२१ ताहे अज्जाखड दप्पणतलतुलिदकतिसमषट । गयधूलिपककलुस होइ सम सेसभूमीहि ११५५३। तत्थुवस्थिदणराणं हत्य उदओ य सोलस वस्सा। अहवा पण्णरसाऊ विरियादी तदणुरूवा य (१५५४१ = अवसपिणी कालमे दुखमदुखमा कालके उनचास दिन कम इकोस हजार वर्षोके बीत जानेपर जन्तुओको भयदायक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है ।१५४४। उस समय पर्वत व शिलादिको चूर्ण कर देनेवाली सात दिन सवर्तक वायु चलती है ।१५५५। वृक्ष और पर्वतोके भग होनेसे मनुष्य एवं तियंच बस्त्र और स्थानकी अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकारसे विनाप करते है ।१५४६। इस समय पृथक्-पृथक् मख्यात व सम्पूर्ण बहत्तर युगल गगा-सिन्धु नदियोको वेदो और विजयावनमे प्रवेश करते है।१५४७।इस समय देव और विद्याधर दयाई होकर मनुष्य और तियंचो मेसे संख्यात जीव राशि
को उन प्रदेशोमे ले जाकर रखते है ११५४८। उस समय गम्भीर गर्जनासे सहित मेघ तुहिन और क्षार जल तथा विष जलमेसे प्रत्येक सात दिन तक बरसाते है ११५४६। इसके अतिरिक्त वे मेधोके समूह धूम, धूलि, वज्र एव जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य ज्याला, इनमेसे हर एकको सात दिन तक बरसाते है 1१५५०। इस क्रमसे भरत क्षेत्रके भीतर आर्यखण्डमें चित्रा पृथ्वीके ऊपर स्थित वृद्धिगत एक योजनकी भूमि जलकर नष्ट हो जाती है ।१५५१। वज्र और महाग्निके बल से आर्यखण्डकी बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कन्ध स्वरूपको छोडकर लोकान्त तक पहुंच जाती है ।१९५२। उस समय आर्य खण्ड शेष भूमियोंके समान दर्पण तलके सदृश कान्तिसे स्थित और धूलि एवं कीचडकी क्लुषतासे रहित हो जाता है ।१५५३। वहॉपर उपस्थित मनुष्योंकी ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह अथवा पन्द्रह वर्ष प्रमाण
और वीर्यादिक भी तदनुसार ही होते है ।१५५३३ (म. पु./७३/४४७४५६), (त्रि. सा/०६४-८६७)। * प्रलयके पश्चात् युगका प्रारम्भ-दे. काल/४। * अन्य मत मान्य प्रलयका स्वरूप-दे० वैशेषिक व सांख्य दर्शन। प्रलाप-दे० वचन । प्रवक-भरत क्षेत्र पूर्व आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४। प्रवचन-१.पिशाच जातीय व्यन्तर देवोका भेद-दे० पिशाच ।
२. श्रुतज्ञानका अपरनाम-दे० श्रुतज्ञान I/२। प्रवचनध, १/१,१.१/२०/७ आगमो सिद्ध'तो पवयणमिदि एयट्ठो। -आगम,
सिद्धान्त और प्रवचन, ये शब्द एकार्थवाची है। ध. ५/३,४१/80/१ सिद्ध तो बारहगाणि पवयणं, प्रकृष्ट प्रकृष्टस्य वचन प्रवचन मिति व्युत्पत्ते । • पवयणं सिद्ध तो बारहं गाइ, तरथ भवा देस-महत्वहणो असजदसम्माइट्ठिणो च पवयणा। -सिद्धान्त या बारह अगोका नाम प्रवचन है, क्योकि, 'प्रकृष्ट वचन प्रवचन, या प्रकृष्ट (सवज्ञ) के वचन प्रवचन है' ऐसी व्युत्पत्ति है। सिद्धान्त या बारह अंगोका नाम प्रवचन है, तो इसमें हानेवाले देशवती, महाव्रती
और असंयत सम्यग्दृष्टि प्रवचन कहे जाते है । (चा. सा/५६४)। ध.१३/५,५५१०/२८३/६ प्रकर्षण कुतीनालीढतया उच्यन्ते जीवादय, पदार्था. अनेनेति प्रवचनं वर्णपक्यात्मक द्वादशाङ्गम् । अथवा, प्रमाणाद्य विरोधेन उच्यतेऽर्थोऽनेन करणभूतेनेति प्रवचनं द्वादशाङ्गं भावश्रुतम् । = प्रकर्ष से अर्थात् कुतीोके द्वारा नही स्पर्श किये जाने स्वरूपसे जीवादि पदार्थोका निरूपण करता है, इसलिए वर्णपक्त्यात्मक द्वादशागको प्रवचन कहते है । (भ,आ. वि./३२/१२१/२२) अथबा कारण त इस ज्ञानके द्वारा प्रमाण आदिके अविरोध रूपसे जीवादि अर्थ कहे जाते है, इसलिए द्वादशाग भावभूतको प्रवचन कहते है। भ, आ./वि/४६/१५४/२२ रत्नत्रय प्रवचनशब्देनोच्यते। तथा चोक्तम्जाणद सणचरित्तमेगं पधयणमिति । प्रवचनका अर्थ यहाँ रत्नत्रय है 'रत्नत्रयको प्रवचन कहते है', आगमके ऐसे वाक्यसे भी यह सिद्ध होता है। (भ. आ/वि./११८५/११७१/१४)। गो, जी./जी.प्र/१८/४२/१७ प्रकृष्टं वचन यस्यासौ प्रवचन' आप्तः, प्रकृष्टरय बचनं प्रवचन-परमागमः, प्रकृष्टमुच्यते-प्रमाणेन अभिधीयते इति प्रवचनपदार्थ , इति निरुक्त्या प्रवचनशब्देन तत्त्रयस्याभिधानात् । प्रकृष्ट है वचन जिसके ऐसे आप्त प्रवचन कहलाते है, अथवा प्रकृष्ट अर्थात उस आप्तके वचन रूप परमागमको प्रवचन कहते है, अथवा प्रकष्ट अर्थात् प्रमाणके द्वारा जिसका निरूपण किया जाता है ऐसे पदार्थ प्रवचन है। इस प्रकार निरुक्तिके द्वारा प्रवचनके आप्त, आगम और पदार्थ ये तीन अर्थ होते है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org