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प्रवचन प्रभावना
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प्रवाहण जैवलि
२. अष्ट प्रवचन माताका लक्षण मू. आ./२६७ प्रणिधाणजोगजुत्तो पचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु । स
चरित्ताचारो अढविधो होड णायव्वो।२६७) आठ प्रवचन भातासे आठ भेद चारित्रके होते है-परिणामके सयोगसे पॉच समिति तीन गुप्तियो में न्याय रूप प्रवृत्ति वह आठ भेद वाला चारित्राचार है ऐसा जानना ।२६७ भ, आ./वि /११८५/११७१/१४ एव पञ्च समितय तिखो गुप्तयश्च प्रवचनमातृकाः।-तीन गुप्ति और पाँच समितियोको प्रवचन माता कहते है।
प्रवचनाद्धा-ध.१३/10.10/२८४/२ अद्धा काल, प्रकृष्टाना शोभनाना वचनानामहा काल. यरया श्रुतौ सा पवयणद्धा श्रुतज्ञानम् । अद्धा कालको कहते हैं, प्रकृष्ट अर्थात् शाभन वचनोका काल जिस श्रुतिमे होता है, वह प्रवचनाद्धा अर्थात् श्रुतज्ञान है। प्रवचनार्थ-ध. १३/१४,१०/२८२/१२ द्वादशाङ्गवर्ण कलापो वचनम्
अर्यते गम्यतै परिच्छिद्यते इति अर्थो नव पदार्था वचन च अर्थश्च बचनार्थों, प्रकृष्टौ निरवद्यौ बचनार्थी यस्मिन्नागमे स प्रवचनार्थ · ।... अथवा, प्रकृष्टवचनै रर्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति वचनार्थो द्वादशाङ्गभावश्चतम् । सकलसयोगाक्षरै विशिष्टवचनरचनारचित्तबदर्थ विशिष्टोपादानकारण विशिष्टाचार्यसहायैः द्वादशाङ्गमुत्पाद्यत इति यावत् ।-१ द्वादशाग रूप वौँका समुदाय वचन है, जो 'अर्यते गम्यते परिच्छिद्यते' अर्थात् जाना जाता है वह अर्थ है। यहाँ अर्थ पदसे नौ पदार्थ लिये गये है। वचन और अर्थ ये दोनो मिलकर बचनार्थ कहलाते है। जिस आगममैं वचन और अर्थ ये दोनो प्रकृष्ट अर्थात निर्दोष है उस आगमकी प्रवचनार्थ संज्ञा है। २... अथवा, प्रकृष्ट बचनोके द्वारा जो 'अर्यते गम्यते परिच्छिद्यते' अर्थात जाना जाता है वह प्रवचनार्थ अर्थात् द्वादशांग भावश्रुत है। जो विशिष्ट रचनासै आरचित है, बहुत अर्थवाले है, विशिष्ट उपादान कारणोसे सहित है, और जिनको हृदयंगम करनेमें विशिष्ट आचार्योंकी सहायता लगती है, ऐसे सकल सयोगी अक्षरीसे द्वादशांग उत्पन्न किया जाता है । यह कथनका तात्पर्य है। प्रवचना-ध. १३१५,५,५०/२८३/8 प्रकृष्टानि वचनान्यस्मिन्
सन्तीति प्रवचनी भावागम'। अथवा प्रोच्यते इति प्रवचनोऽर्थ., सोऽत्रास्तीति प्रवचनी द्वादशाङ्गग्रन्थ' वर्गोपादानकारण । १. जिसमें प्रकृष्ट बचन होते है वह प्रवचनी है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार भावागमका नाम प्रवचनी है। २ अथवा जो कहा जाता है वह प्रवचन है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार प्रवचन अर्थको कहते है। वह इसमें है इसलिए वर्णोपादानकारणक द्वादशाग ग्रन्थका नाम प्रवचनी
३. इन्हें माता कहनेका कारण भ. आ /मू /१२०५ एदाओ अट्ठरवयणमादाओ णाणदसणचरित्तं । रक्वं ति सदा मुणिओ मादा पुत्त व पयदाओ ११२०॥ -ये अष्ट प्रवचन माता मुनिके ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी सदा ऐसे रक्षा करती है जैसे कि पुत्रका हित करनेमे सावधान माता अपायोसे उसको बचाती है ।१२०५॥ (म.आ/३३६) (भ.आ./वि./११८६/११७१/३) * मोक्षमार्गमें अष्ट प्रवचन माताका ज्ञान ही पर्याप्त है दे० ध्याता/१; श्रुतकेवली /२। प्रवचन प्रभावना-दे० प्रभावना। प्रवचन भक्ति-दे० भक्ति/२। प्रवचन वात्सल्य-दे० वात्सल्य । प्रवचन संनिकष-ध १३/११/१०/२८४/४ उच्यन्ते इति वचनानि जीवाद्यर्था. प्रकर्षेण वचनानि सनिकृष्यन्तेऽस्मिन्निति प्रवचनसंनिकर्षों द्वादशागश्रुतज्ञानम्। क संनिकर्ष। एकस्मिन् वस्तुन्येकस्मिन् धर्म निरुद्ध शेषधर्माणा तत्र सत्यासत्व विचार सत्स्वप्ये करिमन्नुत्कर्षमुपगते शेषाणामुत्कर्षानुत्कर्षविचारश्च सनिकर्ष । अथवा प्रकर्षण वचनानि जोवाद्या. संन्यस्यन्ते प्ररूप्यन्ते अनेकान्तात्मतया अनेनेति प्रवचनस न्यास.। -- जो कहे जाते हैं' इस व्युत्पत्तिके अनुसार बचन शब्द का अर्थ जीवादि पदार्थ है। प्रकर्ष रूपसे जिसमे वचन सन्निकृष्ट होते है, वह प्रवचन सन्निकर्ष रूपसे प्रसिद्ध द्वादशाग श्रुतज्ञान है। प्रश्न-सन्निकर्ष क्या है। उत्तर-१. एक वस्तुमे एक धर्म के विवक्षित होनेपर उसमें शेष धोके सत्त्वासत्त्वका विचार तथा उसमे रहनेवाले उक्त धर्मोमेसे किसी एकधर्मके उत्कर्षको प्राप्त होनेपर शेष धर्मों के उत्कर्षानुत्कर्ष का विचार करना सन्निकर्ष कहलाता है। २. अथवा, प्रकर्ष रूपसे वचन अर्थात जीवादि पदार्थ अनेकान्तात्मक रूपसे जिसके द्वारा संन्यस्त अर्थात प्ररूपित किये जाते है, वह प्रवचन सन्यास अर्थात् उक्त द्वादशांग भूतज्ञान ही है। श्रुतज्ञानका अपरनाम है--दे० श्रुतज्ञान/I/२ । प्रवचनसार-आ० कुन्दकुन्द (ई०१२७-१७६) कृत २७५ प्राकृत गाथा प्रमाण, ज्ञान ज्ञेय व चारित्र विषयक प्राकृत ग्रन्थ (ती./२/१११)। इस पर अनेक टीकाये उपलब्ध है-१. अमृत चन्द्र (ई०१०५-६४५) कृत 'तत्व प्रदीपिका' (स स्कृत)। (जै./२/१७३)। २. प्रभाचन्द्र (ई. ६५०-१०२०) कृत 'प्रवचन सरोज भास्कर' (संस्कृत)। (जै /२/१६५) । ३. मल्लिषेण (ई०११२८) कृत संस्कृत टीका । ४. आ. जयसेन (ई.का ११-१२अथवा १२-१३) कृत 'तारपर्य वृत्ति' (संस्कृत)। (जै./२/२६२)। ५. प. हेमचन्द (ई०१६५२) कृत भाषा टीका।
प्रवचनीय-ध १३१५३,५०/२८१/३ प्रबन्धेन वचनीय व्याख्येयं प्रतिपादनीयमिति प्रवचनीयम् । प्रबन्ध पूर्वक जो बचनीय अर्थात् व्याख्येय या प्रतिपादनीय होता है, वह प्रवचनीय कहलाता है। प्रवरवाद-ध १३/५,५.५०/२८७/८ स्वर्गापवर्गमार्गस्याद्रत्नत्रयं प्रबरः। स उद्यते निरूप्यते अनेनेति प्रवरवाद । स्वर्ग और अपवर्गका मार्ग हानेसे रत्नत्रयका नाम प्रवर है उसका वाद अर्थात कथन इसके द्वारा किया जाता है, इसलिए इस आगमका नाम प्रवरवाद है। प्रवतक साधु-भ.आ./मूलाराधना/६२६/८३१/४ पबत्ती अल्पश्रुत'
सन्सर्वसंधमर्यादाचरितज्ञ प्रवर्तकः । म जो ज्ञानसे अल्प है, पन्तु सर्व सघकी मर्यादा योग्य रहेगी, ऐसे आचरणका जिसको ज्ञान है उसको प्रवर्तक साधु कहते है। प्रवाद-स्या.म./३०/३३४/१४ प्रकर्षण उद्यते प्रतिपाद्यते स्वाभ्युपगतोऽर्थो यैरिति प्रबादा । जिसके द्वारा इष्ट अर्थ को उत्तमतासे प्रतिपादित किया जाय, उसे प्रवाद कहते है। प्रवाल-मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/१० । प्रवाल चारणऋद्धि-दे० ऋद्धि/। प्रवाह क्रम-दे० क्रम/२। प्रवाहण जैवलि-पाचाल देश (कुरुक्षेत्र) का कुरुवंशी राजा था। जनमेजयका पोता था तथा शतानीकका पुत्र था। समय-ई पू.
प्रवचनमारोद्धार -- श्वेताम्बराम्नायमें श्री नेमिचन्द्रसूरि (ई.
श.११) द्वारा विरचित लोक्के स्वरूपका प्ररूपक गाथा बद्ध ग्रन्थ है। इसमे २७६ द्वार तथा १५६६ गाथाएँ है। (जै /२/EE-६३) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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