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भाषा
या वाचा परोऽभिमुखीक्रियते सा आमंत्रणी हे देवदन्त इत्यादि अगृहीतसकेतानभिमुखी करोति तेन न मृषा गृहीतागृहीत संकेतयोः प्रतीतिनिमित्तमनिमित्तं चेति ह्यात्मकता । स्वाध्यायं कुरुत, विरमता यमात् इत्यादिका अनुशासनवाणी आनवणी । चोदिताया ' क्रियाया' करणमकरणं वापेक्ष्या ने कान्तेन सत्या न मृषैव वा । जायणी ज्ञानोपकरणं पव्यादिकं मा भवद्भिर्दातव्यं इत्यादिका पाचन । दातुरपेक्षया पूर्ववदुभयरूपा निरोधवेदनास्ति भवता न वेति प्रश्नवाक् सपुच्छणी यद्यस्ति सत्या न चेदिततरा । वेदना भावाभावमपेक्ष्य प्रवृत्तेरुभयरूपता । पण्णवणी नाम धर्म्मकथा । सा बहून्निर्दिश्य प्रवृत्ता के श्चिन्मनसि करणमितरं रकरण चापेक्ष्य करणत्वाद्विरूपा । पञ्चवाणी नाम केन चिगुरुमननुज्ञाप्य इव क्षीरादिक काल मया पायात इयुक्त कार्यान्तरमुद्दिश्य तत्युदितं गुरुणा प्रत्याख्यानावधिकालो न पूर्ण इति नैकान्तत सत्यता गुरुवचनात्प्रवृत्तो न दोषायेति न मृषैकान्त । इच्छानुलोमा य ज्वरितेन पृष्टं घृतशर्करामिल] शरीरं शोभनमिति यदि परो न्याय शोभनमिति । माधुर्यादिस्य गुणसद्भावं नरवृद्धिनिमित्तचापेक्ष्य न शोभन मिति वचो न मृषेकान्ततो नापि सत्यमेवेति द्वयात्मकता | ११६५। संसयमयणी किमर्य स्थागुरुत पुरुष इत्यादिकाद्वयोरेकस्य सजामितरस्याभावं चापेक्ष्य द्विरूपता । अणक्खरगदा अगुलिस्फोटादिध्वनिः कृताकृत के पुरुषापेक्षया प्रद्यौतिनिमित्ततामनिमित च प्रतिपद्यते इत्युभयरूपा-१. जिस भाषा से दूसरोको अभिमुख किया जाता है, उसको आमन्त्रणी सम्बोधिनी भाषा कहते है। जैसे'हे देवदत्त यहाँ आओ' देवदत्त शब्दका संकेत जिसने ग्रहण किया है उसकी अपेक्षासे यह वचन सत्य है जिसने सकेत ग्रहण नहीं किया उसकी अपेक्षा से असत्य भी है । २. आज्ञापनी भाषा- जैसे स्वाध्याय करो, असे विरक्त हो जाओ, ऐसी आज्ञा दी हुई क्रिया करने से सत्यता और न करनेसे असत्यता इस भाषामें है, इसलिए इसको एकान्त रीति से सत्य भो नही कहते और असत्य भी नहीं कह सकते हैं । ३. ज्ञानके उपकरण शास्त्र और संयमके उपकरण पिच्छादिक मेरे को दो ऐसा कहना यह वाचनो भाषा है। दाताने उपर्युक्त पदार्थ दिये तो यह भाषा सत्य है और न देनेकी अपेक्षासे असत्य है । अतः यह सर्वथा सत्य भी नहीं है और सर्वथा असत्य भी नहीं है। ४. प्रश्न पूछना उसको प्रश्नभाषा कहते है । जैसे--तुमको निरोधमेंकारागृहमें वेदना दुख है या नहीं वगेरह यदि वेदना होती हो तो सत्य समझना न हो तो असत्य समझना । वेदनाका सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा इसको सत्यासत्य कहते है । ५. धर्मोपदेश करना इसको प्रज्ञापनी भाषा कहते है । यह भाषा अनेक लोगोको उद्देश्य कर कही जाती है । कोई मनःपूर्वक सुनते है और कोई सुनते नहीं, इसकी अपेक्षा इसको असत्यभूषा कहते है ६. किसीने गुरुका अपनी तरफ लक्ष न खींच करके मैने इतने काल तक क्षीरादि पदार्थोंका त्याग किया है ऐसा कहा। कार्यांतरको उद्देश्य करके वह करो ऐसा गुरुने कहा प्रवाख्यानकी मर्यादाका काल पूर्ण नही हुआ तब तक वह एकान्त सत्य नहीं है। गुरुके वचनानुसार प्रवृत्त हुआ है इस वास्ते असत्य भी नहीं है । यह प्रत्याख्यानी भाषा है । ७. इच्छानुलोमा - ज्वरित मनुष्यने पूछा घी और शक्कर मिला हुआ दूध अच्छा नहीं है यदि दूसरा कहेगा कि वह अच्छा है, तो मधुरतादिक गुणोका उसमें सद्भाव देखकर यह शोभन है ऐसा कहना योग्य है। परन्तु ज्वर वृद्धिको वह निमित्त होता है इस अपेक्षासे वह शोभन नही है, अत सर्वथा असत्य और सत्य नही है इसलिए इस वचन में उभयात्मकता है | ११६५। ८ सशय वचन - यह असत्यमृषाका आठवाँ प्रकार है । जेसे - यह ठूठ है अथवा मनुष्य है इत्यादि । इसमे दोनोमें से एक की सत्यता है और इतरका अभाव है। इस वास्ते उभयपना इसमें है । ६. अनक्षर वचन - चुटकी बजाना, अगुलिसे इशारा करना, जिसको चुटकी बजानेका सकेत मालूम है उसकी अपेक्षासे उसको वह
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भिक्षा
प्रतीतिका निमित्त है, और जिसको संकेत मालूम नही है उसको अप्रतीतिका निमित्त होती है । इस तरह उभयात्मकता इसमें है ११६६। (मू आ./३१५-३१६ ); (गो. जी /मू./२२५-२२६/४८५) ।
६. पश्यन्ती आदि भाषा निर्देश
रा.पा./१/२०/२६० सम्दासमादी वाणी चार प्रकारको मानते है पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी, सूक्ष्मा । १. पश्यन्ती - जामे विभाग नाहीं । सर्वं तरफ सकोचा है कम जाने ऐसी पश्यन्ती कहिएलब्धि के अनुसार द्रव्य वचनको कारण जो उपयोग। ( जैन के अनुसार इसे ही उपयोगात्मक भाव वचन कहते है । ) २. मध्यमाबक्ताकी बुद्धि तो जाको उपादान कारण है, बहुरि सासोच्छ्वासको संधि अनुक्रम प्रवर्ती ताकू मध्यमा कहिए शब्द वर्गणा रूप द्रव्य वचन । ( जैन के अनुसार इसे शब्द वर्गणा कहते है | ) २. वैखरी कण्ठादिके स्थाननिको भेदकर पवन तिसरा ऐसा जो छाका सोस है कारण जा ऐसी अक्षर रूप प्रीता सरी कहिए (अर्थाव) द्रियग्राह्म पर्याय स्वरूप द्रव्य वचन (जनके अनुसार इसे इसी नाम से स्वीकारा गया है।) ४ सूक्ष्मा - अन्तर प्रकाश रूप स्वरूप ज्योति रूप नित्य ऐसी सूक्ष्मा कहिए।... क्षयोपशमसे प्रगटी आमाकी अक्षरको ग्रहण करनेकी तथा कहनेकी शक्ति रूप लब्धि । ( जैनके अनुसार इसे लब्धि रूप भाव वचन स्वीकारा गया है। )
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२. अभ्याख्यान व कलह आदि रूप भाषा २. काल पैशुन्य आदि
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भाषा पर्याप्त ०/९
भाषा वर्गणा दे० / ९ भाषा समितिदे०समिति/
- दे० ० शब्द | - दे० वचन |
- दे० वह वह नाम |
- दे० वचन । - दे० नाम / ३ । -दे० पद्धति ।
- दे० अनुयोग ।
- दे० शब्द ।
भासुर एक दे०
भास्कर 'जीवन्धरचरित्र के रचयिता एक कन्नडकवि । समयई. ९४२४। (ती./४/३११)
भास्करनंदि - तचार्य की सुखबोधिनी वृत्ति (संस्कृत) तथा ध्यानस्तव के रचयिता । जिनचन्द्र के शिष्य । समय-विश १४ का अन्त (ई श. १४) । (ती./३/३०६) । (जै./२/२६६) । भास्कर वेदांत - द्वैताद्वैत- दे० वेदात ३ /
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भिक्षा -- साम्यरसमे भीगे होनेके कारण साधुजन लाभ-अलाभ समता रखते हुए दिनमे एक बार तथा दातारपर किसी प्रकारका भी भार न पडे ऐसे गोचरी आदि वृत्तिसे भिक्षा ग्रहण करते है, वह भी मौन सहित रसस्वाद से निरपेक्ष यथा न केवल उदर पूर्ति के लिए करते है। इतना होनेपर भी उनमे याचना रूप दीन व हीन भाव जागृत नहीं होता। भक्ति पूर्वक किसीके प्रतिग्रह करनेपर अथवा न करनेपर श्रावक के घर में प्रवेश करते है, परन्तु विवाह व
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