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योगवर्गणा
मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति द्वारा रोकना कि ऐसा मत करो विवादन है। इस प्रकार ये दोनो एक नहीं है किन्तु अलगअलग है ।
योगवर्गणा - दे० योग /६ ।
योगशास्त्र राम्राचार्य हेमचन्द्र सुर (ई १०००-१९०३) कृत आध्यात्मिक ग्रन्थ ।
योगसंक्रांति - दे० शुक्लध्यान /४ | योग संमह क्रिया दे०का योगसार- १. आ योगेन्दुदेव ( ई श ६ ) द्वारा रचित १०८ दोहा
/ २ ।
प्रमाण अपभ्रंश आध्यात्मिक ग्रन्थ (ती / २ / २५१) । २. अमितगति ( ई १२३-६६३) कृत संस्कृत छन्दबद्ध तत्वप्ररूपक ग्रन्थ अधिकार ५४० श्लोक प्रमाण । ३. योग चन्द्र (ई. श. १२) कृत दोहासार । (दे योग चन्द्र ) । ४ श्रुतकीर्ति (वि श. १६ मध्य) कृत अपभ्रंश रचना। (ती / ३ / ४३२) ।
योगस्पर्धक - ० स्पर्धक
योगाचार मत ० योगी
न च वृ / ३८ णिज्जियसासों णिपफंदलोयणो मुक्कसयलवावारो । जो एहावत्यगओ सो जोई णरिथ संदेहो ३८ - जिसने श्वासको जीत लिया है, जिसके नेत्र टिमकार रहित है, जो काय के समस्त व्यापारसे रहित है, ऐसी अवस्थाको जो प्राप्त हो गया है, वह निस्संदेह योगी है।
ज्ञा सा / ४ कदर्पदर्पदलनो दम्भविहीनो विमुक्तव्यापार । उग्रतपो दीप्तगात्र योगी विज्ञेय परमार्थ |४| कन्दर्प और दर्पका जिसने दलन किया है, दम्भसे जो रहित है, जो कायके व्यापारसे रहित है, जिसका शरीर उग्रतपसे दस हो रहा है, उसको परमार्थ योगी जानना चाहिए / ४ |
२. योगी के भेद व उनके लक्षण
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पं.का./ता.वृ/१७३/२५४ / ३ द्विधा ध्यातारो भवन्ति शुद्धात्मभावनाप्रारम्भका पुरुषा सूक्ष्मस विकल्पावस्थायां प्रारब्धयोगिनो भण्यन्ते निर्विकल्पात्मवस्थाया पुनर्निष्पन्नयोगिन इति । - दो प्रकारके ध्याता होते हैं। शुद्धात्म भावनाके प्रारम्भक और सूक्ष्म सविकल्प अवस्थामे जो स्थित है, ऐसे पुरुषोको प्रारब्धयोगो कहते है । और निर्विकल्प अवस्था में स्थित पुरुषको निष्पन्नयोगी कहते है । ★ जीवको योगी कहने की विवक्षा ३०/१/३० योगदुदेव
आप अत्यन्त विरक्त चित्त दिगम्बराचार्य थे। आप अवश्य हो पहले वेदिक मतानुसारी रहे होगे क्योकि आपकी कथनशैली मे बेदिक मान्यता के शब्द बहुलतासे पाये जाते है। आपका शिष्य प्रभाकर भट्ट था। इनके सम्बोधनार्थ ही आपने परमात्मप्रकाश नामका ग्रन्थ रचा था। आपको जान्दु, योगीन्दु, योगेन्दु, जोगिचन्द इन नामोसे भी पुकारा जाता था। आपने अपभ्रंश ब संस्कृतमें अनेको ग्रन्थ लिखे है । कृति -१ स्वानुभवदर्पण, २. परमात्मप्रकाश (अप), ३. योगसार (अप०), ४ दोहा पाहुड; ५. सुभाषिततन्त्र, ६ अध्यात्म रत्नसदोह; ७ तत्त्वार्थ टीका ( अप० ); अमृताशीति ( अप० ); १ निजात्माष्टक ( प्रा० ); १०० नौकार श्रावकाचार ( अप० ) | नोट - ( प्रथम दोके अतिरिक्त अन्यके सम्बन्ध मे निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि इन्ही योगेन्दु देवकी थी या अन्य किन्ही योगेन्द्र की समय-ई श ६. (ती./२/२४५, २४६) ।
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योग्यता
१. पर्यायों को प्राप्त करनेकी शक्ति दे० निक्षेप / ५ / १ । २. क्षयोपशमसे प्रगटी शक्ति
प्रमाण परीक्षा/पृ. ६७ योग्यताविशेष पुन प्रत्यक्षस्येव स्वविषयज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेष एव । = योग्यतारूप जो विशेष वह प्रत्यक्षकी भाँति अपने अपने विषयभूत ज्ञानावरणीय तथा वीर्यान्तरायका क्षयोपशम विशेष ही है ।
श्लो. वा, ३/२/१३ / १०६/२६३ क्षयोपशमसज्ञेय योग्यतात्र समानता | = क्षयोपशम नाम यह योग्यता यहाँ ।
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प. मु / २ / १० स्त्रावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति । जानने रूप अपनी शक्तिको ढकनेवाले कर्मकी क्षयोपअपनी योग्यता ही ज्ञान-पटप पदार्थोंकी जुदी मुदी रीति से व्यवस्था कर देता है । (स्या म / १६/२०६/१० ) । प्रमेकम ३/१-१०प्रतिनियतार्थस्याको हिसारणक्षयोपरामोऽर्थं ग्रहणातिरूप तदुक्तम्- राणयोग्य सेब ज्ञानस्य प्रतिभिर्थव्यवस्थादिप्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था करनेवाली उस उस आवरणकर्म के क्षयोपशम रूप अर्थ ग्रहणकी शक्ति योग्यता कहलाती है। कहा भी है किक्षयोपशम लक्षणवाली योग्यता ही वह शक्ति है जो कि ज्ञानके प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था करनेमें प्रधान कारण है ।
शक्तिव
न्या दी /२/५/२७/६ का नाम योग्यता । उच्यते, स्वावरणक्षयोपशम' | प्रश्न- योग्यता किसे कहते है। उत्तर- अपने आवरण ( ज्ञानको डॅकनेवाले कर्म के क्षयोपशमको योग्यता कहते है ।
२. स्वाभाविक शक्ति
१/२/९/१२६ / ०२०-४११/२३ योग्यता हि कारणस्य कार्योत्पादनशक्ति, कार्यस्य च कारणजन्यत्वशक्तिस्तस्या' प्रतिनियमः, शालिजारो ऽपि शालिनीस्यैव शाम्यजनने हसियमजस्य तस्य याजनने न शालिनीजस्येति कथ्यते । तत्र कुतस्तच्छक्तेस्तादृश' प्रतिनियम । स्वभावत इति चेन्न, अप्रत्यक्षत्वात् । कार्यकारण भावके प्रकरणमे योग्यताका अर्थ कारणकी कार्यको पैदा करनेकी शक्ति और कार्यकी कारणसे जन्यपनेकी शक्ति ही है । उस योग्यताका प्रत्येक विवक्षित कार्य कारणोंमें नियम करना यही कहा जाता है कि धानके बीज और धानके अकुरो में भिन्न-भिन्न समय वृत्तिपनेकी समानताके होनेपर भी साठी चावल के बीजकी ही धानके अंकुरोको पैदा करनेमे शक्ति है । किन्तु जौके बीजकी धानके अंकुर पैदा करनेमे शक्ति नहीं है । तथा उस जौके बीजकी जौके अकुर पैदा करनेमे शक्ति है। हाँ, धानका बीज जौका अंकुर नहीं उत्पन्न कर सकता है। यही योग्यता कही जाती है। प्रश्न- ऊपर के प्रकरण में कही गयी उस योग्यता रूप शक्तिका वैसा प्रत्येक में नियम आप कैसे कर सकेगे। उत्तर- यह शक्तियोंका प्रतिनियम उन उन पदार्थोंके स्वभावसे हो जाता है। क्योंकि असोको शतियोका नहीं होता है।
* द्रव्यके परिणमनमें उसकी योग्यता ही कारण है -दे० कारण/11/1/1 योजन - क्षेत्रका प्रमाण विशेष - दे० गणित / 1 /१/३० योजना योग-३० योग
योनि - जीवो के उत्पन्न होनेके स्थानको यौनि कहते है । उसको प्रकार से विचार किया जाता है- शीत, उष्ण, संवृत, विवृत आदिकी अपेक्षा और माताकी योनिके आकारकी अपेक्षा ।
तो
योनि
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