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पर्याप्ति
पर्याय
इन्द्रियोको और क्षयोपशमकी अपेक्षा बाह्य पदार्थों को ग्रहण करनेकी शक्तिके उत्पन्न करनेमें निमित्त भूत पुद्गलोके प्रचयको एक मान लेने में विरोध आता है। उसी प्रकार मनोबलका मन पर्याप्तिमे अन्तभवि नही होता है, क्योकि मनोवर्गणाके स्कन्धोसे उत्पन्न हुए पुद्गल प्रचयको और उससे उत्पन्न हुए आत्मबल (मनोबल) को एक माननेमे विरोध आता है। तथा वचन बल भी भाषा पर्याप्तिमे अन्तर्भूत नहीं होता है, क्योकि आहार वर्गणाके स्कन्धोसे उत्पन्न हुए पुढंगलप्रचयका और उससे उत्पन्न हुई भाषा वर्गणाके स्कन्धोका श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा ग्रहण करने योग्य पर्यायसे परिणमन करने रूप शक्तिका परस्पर समानताका अभाव है। तथा कायबलका भी शरीर पर्याप्तिमे अन्तर्भाव नही होता है, क्योकि, वीर्यान्तरायके उदयाभाव
और उपशमसे उत्पन्न हुए क्षयोपशमकी और खलरस भागकी निमित्तभूत शक्तिके कारण पुद्गल प्रचयकी एकता नही पायी जाती है। इसी प्रकार उच्छ्वास, निश्वास प्राण कार्य है और आत्मोपादानकारणक है तथा उच्च वास नि श्वास पर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादान निमित्तक है। अत: इन दोनोमें भेद समझ लेना चाहिए । ( गो. जी./जी. प्र./१२६/३४१/११) ।
रूप कारण होनेसे प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका अताभाव है। प्रश्न-अत्यन्ताभाव क्या है। उत्तर-करणपरिणामोका अभाव ही प्रकृतमें अत्यन्ताभाव कहा गया है। पर्याप्तिकाल-दे० काल। पर्याय--पर्यायका वास्तविक अर्थ वस्तुका अंश है। व अन्वयी
या सहभूह तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावीके भेदसे वे अश दो प्रकारके होते है । अन्वयीको गुण और व्यतिरेकीको पर्याय कहते है। वे गुणके विशेष परिणमनरूप होती है। अंशकी अपेक्षा यद्यपि दोनो ही अंश पर्याय है, पर रूढिसे केवल व्यतिरेकी अंशको ही पर्याय कहना प्रसिद्ध है। वह पर्याय भी दो प्रकारकी होती है-अर्थ व व्यंजन । अर्थ पर्याय तो छहो द्रव्योमें समान रूपसे होनेवाले क्षणस्थायी सूक्ष्म परिणमनको कहते है। व्यंजन पर्याय जीव व पुद्गलकी संयोगी अवस्थाओंको कहते है । अथवा भावात्मक पर्यायोको अर्थपर्याय और प्रदेशात्मक आकारोको व्यंजनपर्याय कहते है। दोनों ही स्वभाव व विभावके भेदसे दो प्रकारकी होती है। शुद्ध द्रव्य व गुणोंकी पर्याय स्वाभाविक और अशुद्ध द्रव्य व गुणोकी विभाविक होती है। इन धव व क्षणिक दोनों अंशोंसे ही उत्पाद व्यय प्रौव्यरूप वस्तुकी अर्थ क्रिया सिद्ध होती है ।
३. पर्याप्तापर्याप्तका स्वामित्व व तत्संबन्धी शंकाएँ १.किस जोवको कितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं
ष. खं. १/१,१/सू -७१-७५ सणि मिच्छाइटिठ-प्पटुडि जाव असंजद
सम्माइटूिठ त्ति ७१ पच पज्जत्तीओ पच अपज्जत्तीओ १७२। बोईदिय-पहाड जाब अण्णिपचिदिया त्ति।७३। चत्तारि पज्जत्तीओ चत्तारि अपज्जतीओ।७४। एइदियाण १७५१ सभी पर्याप्तियाँ (छह पर्याप्तियों) मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती है ।७१। पाँच पर्याप्तियाँ और पॉच अपर्याप्तियाँ होती है ।७२। वे पॉच पर्याप्तियाँ द्वीन्द्रिय जीवोसे लेकर असज्ञी पचे. न्द्रियपर्यन्त होती है ।७३। चार पर्याप्तियाँ और चार अपर्याप्तियाँ होती है ।७४। उक्त चारो पर्याप्तियॉ एकेन्द्रिय जीवोके होती है। 1७४ (मू.आ./१०४६-१०४७)। ध २/१,१/४१६/८ एदाआ छ पज्जत्तीओ सण्णि पज्जत्ताणं । एदेसि
चेव अपज्जत्तकाले एदाओ चेव असमत्ताओ छ अपज्जत्तीओ भवति । मणपज्जत्तोए विणा एदाओ चेत्र पच पज्जत्तीओ असण्णिपंचिदिय-पज्जत्तप्पहुडि जाव बीई दिय-पज्जत्ताण भवति । तेसि चेव अपज्ज ताण एदाओ चेव अणिपण्णाओ पच अपज्जत्तीओ बुच्च ति। एदाओ चेव-भासा-मणपजत्तीहि विणा चत्तारि पज्जतीओ एइ दिय-पज्जत्ताण भवति । एदेसि चेव अपज्जत्तकाले एदाओ चेव असपुण्णाओ चत्तारि अपजत्तीओ भवति। एदासि छहमभावो अदीद-पज्जत्तीणाम्। -छहो पर्याप्तियाँ सज्ञी-पयप्तिके होती है। इन्ही सज्ञा जोवो के अपर्याप्तकालमे पूर्णताको प्राप्त नहीं हुई ये ही छह अपर्याप्तियाँ होती है। मन पर्याप्सिके बिना उक्त पाँचो ही पर्याप्तियाँ असो पचेन्द्रिय पर्याप्तोसे लेकर द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीवो तक होती है। अपर्याप्तक अवस्थाको प्राप्त उन्ही जीवोके अपूर्णताको प्राप्त वे ही पाँच अपर्याप्तियाँ होती है। भाषा पर्याप्ति और मन.पर्याप्तिके बिना ये चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीवों के होती हैं। इन्हीं एकेन्द्रिय जीवो के अपर्याप्त कालमे अपूर्णताको प्राप्त ये ही चार अपर्याप्तियों होती है। तथा इन छह पर्याप्तियोके अभावको अतीत पर्याप्ति कहते है। २. अपर्याप्तोंको सम्यक्त्व उत्पन्न क्यों नहीं होता
भेद व लक्षण पर्याय सामान्यका लक्षण अंश व विकार । पर्यायके भेद (द्रव्य-गुण; अर्थ-व्यंजन; स्वभाव विभाव; कारण-कार्य)। कर्मका अर्थ पर्याय
दे० कर्म/१/१॥ | द्रव्य पर्याय सामान्यका लक्षण ।
समान व असमान द्रव्य पर्याय सामान्यका लक्षण । गुणपर्याय सामान्यका लक्षण । गुणपर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती है। व व पर पर्यायके लक्षण। कारण व कार्य शुद्ध पर्यायके लक्षण। ऊर्ध्व क्रम व ऊर्ध्व प्रचय।
-दे० क्रम । पर्याय सामान्य निर्देश गुणसे पृथक् पर्याय निर्देशका कारण । पर्याय द्रव्यके व्यतिरेकी अंश हैं। पर्यायमें परस्पर व्यतिरेक प्रदर्शन-दे० सप्तभंगी//३ । पर्याय द्रव्यके क्रम भावी अंश है। पर्याय स्वतन्त्र है। पर्याय व क्रियामें अन्तर। पर्याय निर्देशका प्रयोजन। पर्याय पर्यायीमें कथंचित् भेदाभेद -दे० द्रव्य/४ । पर्यायोंको द्रव्यगुण तथा उन्हें पर्यायोंसे लक्षित करना
-दे० उपचार/३। परिणमनका अस्तित्व द्रव्यमें, या द्रव्यांशमें या पर्यायोंमें
-दे० उत्पाद/३। पर्यायका कथंचित् सत्पना या नित्यानित्यपना
-दे० उत्पाद/३ ।
ध. ६/१,१,६,११/४२६/४ एथवितं चेव कारणं । को अच्चंताभावकरणपरिणामाभावो ।यहाँ अर्थाद अपर्याप्तको में भी पूर्वोक्त प्रतिषेध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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