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भूमि
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भूमिव्यपदेशो वेदितव्य प्रश्न कर्मभूमि यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? उत्तर - जो शुभ और अशुभ कर्मोंका आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं यद्यपि तीनो लोक कर्मका आश्रय है फिर भी इससे उत्कृष्टताका ज्ञान होता है कि ये प्रकर्ष रूपसे कर्मका आश्रय है । सातवें नरकको प्राप्त करनेवाले अशुभ कर्मका भरतादि क्षेत्रों में ही अर्जन किया जाता है, इसी प्रकार सर्वार्थ सिद्धि आदि स्थान विशेषको प्राप्त करानेवाले पुण्य कर्मका उपार्जन भी महीपर होता है तथा पात्र दान आदिके साथ कृषि आदि छह प्रकार के कर्मका आरम्भ यहींपर होता है इसलिए भरतादिकको कर्मभूमि जानना चाहिए। ( रा. बा./३/१०/१-२ / २०४-२०० ) । भ.आ./म./७०९/१३६ पर उधृत कर्मभूमिसमुत्थाश्च भोगभूमिभवास्तथा। अंतरीपणाश्चैव तथा सम्मूमि इति अतिथि कृषिः शिवाणिज्यं व्यवहारिता इति यत्र नृणामाजीवयोनयः । पाप्य संयमं यत्र तपःकर्मपरा यात हतशत्रवः । एताः कर्मभुवो ज्ञेया पूर्वोक्ता दश पञ्च च । यत्र संभूय पर्यायान्ति से कर्मभूमिताः कर्मभूमिज, आदि चार प्रकार मनुष्य हैं ( दे० मनुष्य / १ ) । जहाँ असि शस्त्र धारण करना, मधि-वही खाता लिखना, कृषि खेती करना, पशु पालना, शिल्पक करना अर्थात् हस्त कौशक्यके काम करना, वाणिज्य-व्यापार करना और व्यवहारिता - न्याय दानका कार्य करना, ऐसे छह कार्योंसे जहाँ उपजीविका करनी पड़ती है, जहाँ सयमका पालन कर मनुष्य तप करनेमें तत्पर होते हैं और जहाँ मनुष्योको पुण्यसे स्वर्ग प्राप्ति होती है और कर्मका नाश करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ऐसे स्थानको कर्मभूमि कहते हैं । यह कर्मभूमि अढाई द्वीपमें पन्द्रह है अर्थात पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह ।
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सुरसगति वा सिद्धि
नरा
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२. भोगभूमि ड.सि./३/१०/२३२/१०
दशविधकल्पवृकपिभोगानुभय
वाइ-भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते इतर क्षेत्रोंमें इस प्रकार कसे प्राप्त हुए भोगोंके उपभोगकी मुख्यता है इसलिए उनकी श्रीभूमि जानना चाहिए ।
म. आ./वि./७८२/६३६ / ९६ ज्योतिषाख्यैस्तरुभिस्तत्र जीविका । पुरग्रामादयो यत्र न निवेशा न चाधिपः । न कुल कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थिति। यत्र नार्यो नराश्चैव मेथुनीभूम नीरुज । रमन्ते पूर्वपुण्यानां प्राप्नुवन्ति पर फलं । यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् दिवं यान्ति मृता अपि ता भोगभूमयश्चोतास्तत्र स्युर्भोगभूमिजा । ज्योति रंग आदि दश प्रकारके (दे० वृक्ष ) जहाँ कल्पवृक्ष रहते हैं । और इससे मनुष्यों की उपजीविका चलती है। ऐसे स्थानको भोगभूमि कहते हैं। भोग भूमिमें नगर कृत, असिमभ्यादि किया, शिल्प, वर्गाश्रमकी पद्धति में नहीं होती है। यहाँ मनुष्य और स्त्री पूर्व पुण्य से पतिपत्नी होकर रममाण होते हैं । वे सदा नीरोग ही रहते है और सुख भोगते हैं । यहाँके लोक स्वभावसे ही मृदुपरिणामी अर्थात् मन्द कषायी होते है, इसलिए मरणोत्तर उनका स्वर्गकी प्राप्ति होती है भोगभूमिमें रहने वाले मनुष्योंको भोगभूमि कहते है। (दे० वृक्ष / १/१ ) ।
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४. कर्मभूमिको स्थापनाका इतिहास
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म.पू./१६/ श्लोक नं. केवल भावार्थ-कल्पसूक नष्ट होनेपर कर्मभूमि प्रगट हुई । १४६ | शुभ मुहूर्तादिमें ( १४६ ) इन्द्रने अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिरको स्थापना की। इसके पश्चात् चारों दिशाओंमें जिनमन्दिरोंकी स्थापना की गयी ( १४६ - १५०) तदनन्तर वेश. महावेश नगर, न और सीमा सहित गाँव तथा पेड़ों आदिटी रचना की थी ( १५१ ) भगवाद ऋषभदेवने प्रजाको असि, मसि, कृषि विद्या राय और शिल्प मे छह कार्योंका उपदेश दिया
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( १७१ - १७८ ) तब सब प्रजाने भगवान्को श्रेष्ठ जानकर राजा बनाया (२२४) तब राज्य पाकर भगवान्ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस प्रकार चतुर्वर्णको स्थापना की (२४५) । उक्त छह कर्मोकी व्यवस्था होनेसे यह कर्मभूमि कहलाने लगी भी (२४६) तदनन्तर भगवादने कुरुवदा, हरिवंश आदि राज्यमं शोकी स्थापना की (२६), (विशेष दे० सम्पूर्ण सर्ग ) ( और भी वे० काल /४/६)
५. मध्य लोकमै कर्मभूमि व मोगभूमिका विभाजन मध्य लोकमें मानुषोत्तर पर्बतसे आगे नागेन्द्र पर्वत तक सर्व झोपोंमें जयस्य भोगभूमि रहती है (सि. प./२/१६६,१०३) । नागेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयम्भूरमण द्वीप व स्वयम्भूरमण समुद्र कर्मभूमि अर्थात् दुखमा का वर्ता है। (५/२/९७४)। मानुषान्तर पर्वतके इस भागमें अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र है (२० ४) नाई द्वीपो पाँच सुमेरु पर्वत है एक सुमेरु प के साथ भरत हैमवत आदि सात-सात क्षेत्र हैं । तिनमेंसे भरत ऐरावत य विदेह मे तीन कर्मभूमि हैं. इस प्रकार पाँच समेत सम्बन्धी १५ कर्मभूमियाँ । यदि पाँचों विवेही २२-३२ क्षेत्रकी गणना भी की जाय तो पाँच भरत, पाँच ऐरावत और १६० मि. इस प्रकार कुल १७० कर्मभूमियाँ होती है। इन सभी में एक-एक बिज या पर्वत होता है, तथा पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड तथा एक-एक आर्य खण्ड स्थित है। भरत व ऐरावत क्षेत्रके आर्य खण्डों में षट् काल परिनहाता है / १०६) सभी मिवेोंकि बार्य खण्डोंमे सदा दुखमा सुखमा काल वर्तता है । सभी म्लेक्ष खण्डों में सदा जघन्य भोगभूमि सुखमा दुखमा काल होती है। सभी विजयापर विद्याधरों की नगरियाँ है उनमें सदैव दुखमा सुखमा काल पता है। हैमवत हैरण्यवतन यो क्षेत्रोंमें सदा जमन्य भोगभूमि रहती है। हरि व रम्यक इन दो क्षेत्रोंमें सदा मध्यम भोगभूमि ( सुखमा काल ) रहती है। विदेह के महूमध्य भागमे सुमेरु पर्वतके दोनो तरफ स्थित उत्तरकुरु व देवकुरुमे (दे० लोक / ७) सदैव उत्तम भोगभूमि (सुखमासुखमा काल ) रहती है । लवण व कालोद समुद्र में कुमानुषोंके ६६ अन्तद्वीप है। इसी प्रकार १६० विदेहो मेंसे प्रत्येकके ५६-५६ अन्तप है । दे० लोक इन सर्व अन्त कुमानुष रहते है। ( ३० म्लेच्छ इन सभी पोमें सदा जघन्य भोग मि वराती है (ज. /१२/५४-५५)। इन सभी कर्म व भोग भूमियोको रचनाका विशेष परिचय (दे० काल /४/१८ ) ।
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६. कर्म व भोगभूमियोंमें सुख-दुःख सम्बम्धी नियम वि.प./४/२६५४ बीस देशासं यप्यमाणभोगक्खिदीन मुहमेवर्क कम्म खिदी पराणं वेदि सखि दुख च । २६६४४ मनुष्योंकी एक सो छम्पीस भांगमय मे ३० भोगभूमियों और एवं भोग भूमियों के सुख और कर्म भूमियोमे सुख एवं दुख दोनों ही होते है । ति ५/५/२६२ स
भगवा कपयसे हो हमे कम्मावणितिरियाण सोक्खं दुक्ख च संकप्पो | २ह - सब भोगभूमिज तिचोके मासे केवल एक सुख हो होता है, और कर्मभूमि तिर्यंचोके सुख व दुःख दोनो की कल्पना होती है ।
७. कर्म व मोगभूमियोंमें सम्यक्त्व व गुणस्थानोंके अस्तित्व सम्बन्धी
ति.प./४/२३१-२६३७ पंचविदे समिदिसद असलए अरे । छग्गुणठाणे तत्तो चोहरू पेरत दीसति । २६३६ | सव्वैसु भोगभुवे दो गुणठाणाणि सम्यकासम्म दीसंति चविय सम्बमिलिमि मिच्छत । २९३७ - पाँच विदेहोके भीतर एक सौ साठ आर्य खण्डों
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