________________
मीभावलि
२. संघकी सीके अनुसार यह लक्ष्मणसेनके शिष्य तथा सोमकोर्तिके गुरु थे। समय- १२०६ ई० १४४६) ३० इति हास/७/६
(
भीमावलि वर्तमान कालीन प्रथम रुद्रदे० शताका-पुरुष /०। भीष्म- "अपरनाम गांगेय दे० गांगेय ।
भुजंग-महोरग नामा व्यन्तर जातिका एक भेददे० महो । भुजंगदेव- “लवण समुद्रके ऊपर आकाशमे स्थित भुजगनामक देवकी २८००० नगरियाँ हैं । दे० व्यन्तर /४ ।
भुजंगशाली - दे० भुजंग | भुजगार बंध० प्रकृतिबंध
/ १ ।
भुज्यमान आयु दे० आयु /१
भुवनकोति नन्दिसंघ बलात्कार गलकी ईरशाला के अनुसार कीर्तिके शिष्य तथा ज्ञानभूषण के गुरु समय वि. १४६११५२५ (ई. १४४२-१४६८ ) | दे० इतिहास / ७ / ४ ।
भुवनकीर्ति गीत - afa बूचिराज (वि. १५८६) कृत, ५ १द्य प्रमाणभट्टारक भुवनकीर्तिका गुणानुवाद (/४/२३२) ।
भूगोल दे० लोक
भूत - १. प्राणी सामान्य
स.सि./६/१२/३३०/११ तासु तासु गतिषु कर्मोदयवशाद भवन्तीति भूतानि प्राणिन इत्यर्थ जो कमदयके कारण विविध गतियो में होते हैं, वे भूत कहलाते है । भूत यह प्राणीका पर्यायवाची शब्द है । (रा.वा./६/१२/१/१२२/१२) (गो. क ज ८०१ / १००/१) । घ./१३/५,५,५०/२८६/२ अभूव इति भूतम् । श्रुत अतीतकाल में था इसलिए इसकी भूत सज्ञा है । २. व्यन्तर देव विशेष
1
ति.प./६/४६ दामे सरुवा पसिना उत्तमा होति परिमहादापदित्ति 1841- स्वरूप प्रतिरूप सोम प्रतिभूत महाभूत प्रतिच्छन्न और ब्राकाशत इस प्रकार ये सात मेद तो है (जि. सा. / २६६)
* सभ्य सम्बन्धित विषय
१. भूतों के वर्णं परिवार आदि
२. मूल देवोकेन्द्र वैमन व अवस्थानादि
३. भूत पारीरमें प्रवेश कर जाते है।
४. मृत शरीरका खडा होना भागना आदि
Jain Education International
-दे० व्यन्तर । -दे० व्यन्तर ।
- दे० व्यन्तर 1 - दे० सल्लेखता /६/१
भूत नैगम नय - दे० नय / III / २ | भूतवर मध्यलोक अन्तरी पंचम सागर व ३०/२ भूतबली-सूत्र मूल संघ की पट्टावली के अनुसार ( दे० इतिहास / ४/४ ) आपके दीक्षा गुरु अर्हति और शिक्षा गुरु घरसेन थे ।
पुष्पदन्त इन्त गुरु 'आचार्यके भाई थे। उनके साथ ही गुरु अर्हडलिने इन्हे महिमा नगरके सबसे गिरनार पर्वतपर धरसेनाचार्यको सेवामे भेजा था। जहाँ जाकर आपने उनमे षट्खण्डागमका ज्ञान प्राप्त किया और उनके पश्चात उसे तिपि मद्ध करके उनकी भावनाको पूरा किया। आप अल्पवयमे ही दीक्षित हुए थे, इसलिए पुष्पदन्त आचार्यके पीछे तक भी बहुत वर्ष जीवित रहे और इसी कारण षट्खण्डका
२३४
भूमि
अधिकाश भाग आपने ही पूरा किया। समय ही नि. २३-२०१ ६. ६६-१६६) विशेष वे० कोष परिशिष्ट / २ / ६ भूतारण्यक वन अपर विदेहस्थवन - दे० लोक /३/६, १४ । भूतोत्तम-जाति व्यस्त एक भेद०
।
भूधरदास- आगरा निवासी खण्डेलवाल थे। कृति - पार्श्वनाथ पुराण: जैन शतक, पद संग्रह। समय - वि. १७८१ (ई. १७२४ ) । (ती /४/१७२)
भूपालम. पु. / ६५/ श्लोक न भरत क्षेत्र में भूपाल नामका राजा (५१) युद्धमे मान भग होनेके कारण चक्रवर्ती पदका निदान कर दीक्षा धारण कर ली (५२-५४ ) संन्यास मरणकर महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ (५५) यह भी चमका पूर्वका तीसरा भय है। ० शुभौम ।
।
भूपाल चतुविशतिका
रचित संस्कृत ग्रन्थ
आशाधर (ई. १९७३-१२४३) द्वारा
भूमि - अन्त: last term in numerical series – विदेश दे० गणित / II/२/३।
भूमि-लोकमें जीनो निवासस्थानको भूमि कहते है। नरककी सात भूमियों प्रसिद्ध है। उनके अतिरिक्त अहम भूमि भी मानी गयी है। नरको के नीचे निगोदोकी निवास भूत कलकल नामकी पृथिवी अश्म पृथिवी है और ऊपर लोकके अन्तमें मुक्त जीवोकी आवारात भार नामकी अहम पृथिमी है। मध्यलोकमें मनुष्य व तिचोकी निवासभूत दो प्रकारकी रचनाएँ है- भोगभूमि व कर्मभूमि जहाँ के निवासी स्वयं खेती आदि षट्कर्म करके अपनी आवश्यकताएं पूरी करते है उसे कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि भोग भूमि पुण्यका फल समझी जाती है, परन्तु मोक्षके द्वारा रूप कर्मभूमि हो भोगभूमि नहीं है।
१. भूमिका लक्षण
घ. ४ / १,३, १/८/२ आगासं गगणं देवपथ गोज्झगाचारिदं अवगाहणलक्खणं आधेयं वियागमाधारो भूमित्ति एमडी आकाश, गगन, देवपथ गुह्यकाचरित ( यक्षोके विचरणका स्थान ) अवगाहनलक्षण, आधेय. व्यापक, आधार और भूमि ये सब नो आगमद्रव्यक्षेत्र के एकार्थक नाम है ।
२. अष्टभूमि निर्देश
।
ति प / २ / २४ सयभूमीओ एवदिसमाएण घणोबहिविलग्गा अनुमभूमी दसदिभागेतुं वणोहि विवदि साठी पृथिवियाँ ऊर्ध्व दिशाको छोड़ शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हुई है । परन्तु आठवी पृथिवी दशोदिशाओ में ही घनोदधि वातवलयको छूती है।
ध. १४/५, ६,६४/४६५/२
घम्मादिसत्तणिरयपुढवीओईसप्पभारपुढवीए
सह अह पृढत्रीओ महास्त्र वस्स ड्रामाणि होति । ईप्राग्भार (दे० मोक्ष) पृथिवोके साथ धर्मा आदि सात नरक पृथिवियों मिलकर आठ पृथिवियाँ महास्कन्धके स्थान है ।
३. कर्मभूमि व मोगभूमिके लक्षण - कर्मभूमिसि./३/२०/२३२/५ अथ कथं कर्मभूमिल शुभाशुभलक्षणस्य कर्मणोऽधिष्ठानात् । ननु सर्व लोकप्रिय कर्मणोऽधिष्ठानमेव तत एवं प्रकर्षगतिर्विज्ञास्ते प्रक कर्मणोऽधिष्ठानमिति। तत्राशुभ कर्मणस्तावत्सप्तम नरकमापणस्य भरतादिष्वेवार्जनम्, शुभस्य च सर्वार्थमिद्यादिस्थानविशेषास्य कर्मण समाज राम कृष्णादिलक्षणस्य पविस्य कर्मण पात्रदानादिसहितस्य समारम्भारकर्म
"
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
MAJJAN
www.jainelibrary.org