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लोक
२. लोकसामान्य निर्देश
ऊपरी भागमें समाप्त हो जाता है ।१६। उसके ऊपर एक राजूकी ऊँचाईमै नबzबेयक, नब अनुदिश, और अनुत्तर विमान है। इस प्रकार ऊध्र्वलोकमें ७ राजूका विभाग कहा गया ।१६२। अपने-अपने
अन्तिम इन्द्रक-विमान सम्बन्धी ध्वजदण्डके अग्रभाग तब उन-उन स्वाँका अन्त समझना चाहिए । और कल्पातीत भूमिका जो अन्त है वही लोकका भी अन्त है ।१६३३ ५. [ लोक शिखरके नीचे ४२५ धनुष और २१ योजन मात्र जाकर अन्तिम सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक स्थित है (दे० स्वर्ग/११) सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रकके ध्वजदण्डसे १२ योजन मात्र ऊपर जाकर अष्टम पृथिवी है। वह ८ योजन मोटी व एक राजू प्रमाण विस्तृत है। उसके मध्य ईषत् प्रारभार क्षेत्र है। वह ४५००,००० योजन विस्तार युक्त है। मध्यमें ८ योजन और सिरोपर केवल अंगुल प्रमाण मोटा है । इस अष्टम पृथिवीके ऊपर ७०५० धनुष जाकर सिद्धिलोक है (दे० मोक्ष/१/७)] ४. वातवलयोंका परिचय
१. वातवलय सामान्य परिचय ति प./२/२६८ गोमुत्तमुग्गवण्णा बणोदधी तह घणाणिलओ बाऊ । तणुबादो बहुवण्णो रुक्खस्स तय व वलयातियं ।२६८१ -गोमूत्रके समान वर्णवाला घनोदधि, मूगके समान वर्णवाला घनवात तथा अनेक वर्णबाला तनुवात । इस प्रकार ये तीनो वातवलय वृक्षकी त्वचाके समान (लोकको घेरे हुए) है।२६८। (रा वा./३/२/८/१६०/१६); (त्रि, सा/१२३), (दे०चित्र सं०६ ४३६)। २. तीन वातवलयोंका अवस्थान क्रम ति. प/९/२६६ पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो ततो। तप्परदो तणुवादो अतम्मि मह णि आधार २६६ इनमें से प्रथम धनोदधि वातबलय लोकका आधारभूत है, इसके पश्चात धनवातवलय, उसके पश्चात तनुवातवलय और फिर अतमें निजाधार आकाश है। ।२६।। . ( स. सि /३/१/२०४/३), (रा वा./३/१/८/१६०/१४);
(तत्त्वार्थ वृत्ति/३/१/श्लो.१-२/११२)। तत्त्वार्थ वृत्ति/३/१/१११/१६ सर्वा सप्तापि भ्रमयो धनवातप्रतिष्ठा बर्तन्ते । स च धनवात अम्बुवातप्रतिष्ठोऽस्ति । स चाम्बुवातस्तनुवातस्तनृप्रतिष्ठो वर्तते। स च तनुवात श्राकाशप्रतिष्ठो भवति । आकाठास्यालम्बनं किमपि नास्ति । दृष्टि न.२ --ये सभी सातों भूमियों धनवातके आश्रय स्थित है। बह धनबात भी अम्बु ( घनोदधि ) बातके आश्रय स्थित है और वह अम्बुवात तनुवातके आश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाशके आश्रय स्थित है, तथा आकाशका कोई भी आलम्बन नही है।
३. पृथिवियोंके साथ बातवलयोंका स्पर्श ति, १/२/२४ सत्तच्चिय भूभीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा।
अट्ठमभूमीदसदिस भागेसु घणोवहि छिबदि १२४॥ ति,प८/२०६-२०७ सोहम्मदुगविमाणा घणस्सरुवस्स उवरि सलिलस्स। चेठ ते पवणोपरि माहिदसणक्कुमाराणि २०६१ बम्हाई चत्तारो कप्पा चेट्ठति सलिलवादूढ। आणदपाणदपहूदी सेसा सुद्धम्मि गयणयले ।२०७० सातो (नरक) पृथिवियाँ ऊध्व दिशाको छोडकर शेष नौ दिशाओमें घनोदधि वातवलयसे लगी हुई है. परन्तु आठवीं पृथिवी दशो दिशाओमे ही बातबलयको छूती है ।२४। सौधर्म युगलके विमान घनस्वरूप जलके ऊपर तथा माहेन्द्र व सनत्कुमार कल्पके विमान पबनके ऊपर स्थित है ।२०६॥ ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनोके ऊपर, तथा आनत प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाशतल में स्थित है ।२०७१
४. वातवलयों का विस्तार ति.प/१/२७०-२८१ जोयणवीससहस्सा बहलं तम्मारुदाण पत्तेक्कं ।
अट्ठाखिदीण हेठेलोअतले उवरि जाव इगिरज्जू ।२७०। सगपण चउ
जोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविपणधीए । पंचचउतियपमाण तिरीयखेत्तस्स पणिधोए ।२७१। सगपचचउसमाणा पणिधोए होति बम्हकप्पस्स । पणचउतिय जोयणया उवरिमलोयरस यंतम्मि ।२७२। कोसदुगमेक्ककोसं किचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊण पमाण दडा चउस्सया पचवीस जुदा ।२७३। तीस इगिदालदल कोसा तियभाजिदा य उणवणया। सत्तमखि दिपणिधीए बम्हजुदे बाउबहुलत्त । ।२८०। दो छब्बारस भागभहिओ कोसो कमेण वाउघर्ण। लोयउवरिम्मि एव लोय विभायम्मि रण्णत्त ।२८१ -दृष्टि न० १आठ पृथिवियोके नीचे लोक के तलभागसे एक राजूकी ऊँचाई तक इन वायुमण्डलोमेंसे प्रत्येककी मोटाई २०००० योजन प्रमाण है ।२७०। सातवे नरकमें पृथिवियोके पार्श्व भागमें क्रमसे इन तीनो बातबलयोंकी मोटाई ७५ और ४ तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मर्यलोक ) के पार्श्वभागमें १,४ और ३ योजन प्रमाण है।२७१। इसके आगे तीनो वायुओको मोटाई ब्रह्म स्वर्गके पाच भागमे क्रमसे ७.५ और ४ योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्व लोकके अन्तम (पार्श्व भागमे ) १. ४ और ३योजन प्रमाण है ।२७२। लोकके शिखर पर (पार्श्व भागमे ) उक्त तीनो वातवलयोका बाल्य क्रमश २ कोस, १ कोस और कुछ कम १ कोस है। यहाँ कुछ कमका प्रमाण २४२५ धनुष समझना चाहिए ।२७३। [शिखर पर प्रत्येक को मोटाई २०,००० योजन है -दे० मोक्ष/१/७] (त्रि सा./१२४-१२६) । दृष्टि न०२-सातबी पृथिवी और ब्रह्म युगलके पार्श्वभागमें तीनो बायुओकी मोटाई क्रमसे ३०, ४१/२ और ४६/३ कोस है ।२८० लोक शिरवरपर तीनो वातवलयोकी मोटाई क्रमसे ११,१३ और ११ कोस प्रमाण है। ऐसा लोक विभागमें कहा गया है ।२८१४--विशेष दे चित्र स. ६ पृ. ४३६.
५. लोकके आठ रुचक प्रदेश रा वा/१/२०/१२/७६/१३ मेरुप्रतिष्ठावज्रव डूर्यपटलान्तररुचकसंस्थिता
अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम् । - मेरु पर्वतके नीचे बन व वैडूर्य पटलोके बीच में चौकोर सस्थान रूपसे अवस्थित आकाशके आठ प्रदेश लोकका मध्य है। ६. लोक विभाग निर्देश ति. प /१/१३६ सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो से विबिदमाणेण । तिवि
यप्पो णादब्बो हेटिममज्झिक्लबद्ध भेएण १३६। -श्रेणी वृन्द्रके मानसे अर्थात जगश्रेणीके घन प्रमाणसे निष्पन्न हुआ यह सम्पूर्ण लोक, अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकके भेदसे तीन प्रकारका है ।१३६। (बा. अ./३६), (ध. १३/५०५०५०/२८८/४ )। ७. ब्रस व स्थावर लोक निर्देश
[पूर्वोक्त वेत्रासन व मृद गाकार लोकके बहु मध्य भागमें, लोक शिखरसे लेकर उसके अन्त पर्यन्त १३ राजू लम्बी व मध्यलोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाडी है। त्रस जीव इस नाडीसे बाहर नही रहते इसलिए यह वसनाली नामसे प्रसिद्ध है। (दे० वस/२/३,४)। परन्तु स्थावर जीव इस लोकमें सर्वत्र पाये जाते है। (दे० स्थावर/8) तहाँ भी सूक्ष्म जीव तो लोकमे सर्वत्र ठसाठस भरे है, पर बादर जीव केवल त्रसनाली मे होते है (दे० सूक्ष्म/३/७ ) उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियोमें ही पाये जाते है अथवा अधोलोक ब भवनवासियोके विमानोमें पॉचो कायोके जीव पाये जाते है, पर स्वर्ग लोकमे नहीं-दे० काय/२/५ । विशेष दे.चित्र स ६ पृ. ४३६ ।। 4. अधोलोक सामान्य परिचय
(सर्वलोक तीन भागोमे विभक्त है-अधो, मध्य व ऊर्व-दे० लोक/२/२,३मेरु तल के नीचेका क्षेत्र अधोलोक है, जो बेत्रासनके आकार वाला है। राजू ऊँचा व राजू मोटा है। नीचे ७ राजू व ऊपर १ राजू प्रमाण चौडा है। इसमे ऊपरसे लेकर नीचे तक क्रम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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