________________
प्रकारक सूरि
पर्याय, भाग, हार, विधा, प्रकार तथा भेद, छेद और भंग ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक है | ६०|
प्रकारक सूरि - दे० प्रकुर्त्री ।
प्रकाश- घ १/१, १,४/१४५/६ स्वतो व्यतिरिक्त बाह्यार्थावगति' प्रकाशः । = - अपने से भिन्न बाह्य पदार्थोंके ज्ञानको प्रकाश कहते है । प्रकाश शक्तिससा / आ / परि / शक्ति नं १२ स्वयं प्रकाशमान विशदस्वसंवित्तिमयी प्रकाशशक्ति । - अपने आप प्रकाशमान स्पष्ट अपने अनुभवमयी प्रकाश नामा भारहवी शक्ति है। प्रकोणक-
त्रि. सा / ४७५ सेढीणं विच्चाले पुष्कपइण्णय इव द्वियविमाणा । होति पण्णणामा सेढिदयहीणरासिसमा | ४७५। श्रेणी बद्ध विमानोंके अन्तरासमे बिखेरे हुए पुष्पोको भाँति पंक्ति रहित जहाँ यहाँ स्थित हो उन विमानो ( वा बिलो) को प्रकीर्णक कहते है । ।४७५ (त्रि सा./ १६६ ) ।
द्र.सं./ टी / ३५ / ११६/२ दिग्विदिगष्टकान्तरेषु पक्तिरहितत्वेन पुष्पप्रचरत् यानि तिष्ठन्ति तेषा प्रकीर्णकसंज्ञा चारो दिशा और विदिशाओमीचमे पतिक बिना बिखरे हुए पुष्पों के समान... जो बिले है, उनकी 'प्रकर्णक' सज्ञा है।
प्रकीर्णक तारे
ति, प. / ७ / ४६४ दुविहा चररअचराओ पहण्णताराओ = प्रकीर्णक तारे चर और अचर दो प्रकारके होते है ।
★ प्रकीर्णक तारोंका अवस्थान व संख्या दे० ज्योतिष२/२४ प्रकीर्णक देव
स.सि./४/४/२३१६ प्रकोणका पौरजानपदकपा
=जो गाँव
और शहर में रहनेवाली के समान है उन्हें प्रकीर्णक कहते है (रा या / ४/४/८/२१३/८); (म./२२/२६)।
-
ति १ / २ / ६७ पाया परिजनसरिदा प्रकीर्णक देव पीर जन अर्थात् प्रजा हवा होते है (त्रि सा/२२३-२२४) ।
* भवनवासी आदिके इन्होंके परिवारमें प्रकीर्णकों का
प्रमाण ३० भवनवासी आदि देव | वह वह नाम ।
प्रकीर्णक बिल नरक/३/३१ प्रकीर्णक विमान - दे० विमान / १ | स्वर्ग /५/५ प्रकुर्वी - भ. आ /४५५,४५७ जो णिक्खवणपवेसे सेज्जासंथार उवधिसो ठागागासे अगण विकिचाहारे ४५५ अपपरिस्सममगणित्ताखवयस्स सव्वपडिचरणे । वह तो आयरिओ पकुव्वओ णाम सो होई |४५७१ =क्षपक जत्र वस्तिका में प्रवेश करता है; अथवा बाहर आता है उस समय में, वस्तिका, सस्तर और उपकरण इनके शोधन करनेमें खड़े रहना, बेठना, सोना, शरीर मल दूर करना, आहार पानी लाना आदि कार्य में जो आचार्य क्षपक्के ऊपर अनुग्रह करते है । सर्व प्रकार क्षपककी शुश्रूषा करते है, उसमें बहुत परिश्रम पडने पर भी वे खिन्न नही होते है ऐसे आचार्यको प्रकुर्वी आचार्य कहते है।
--
प्रकृति - साख्य व शैव मत मान्य प्रकृति तत्त्व - दे० वह वह दर्शन प्रकृति बंध-राग-द्वेषादिके निमित्तसे जीव के साथ पौगलिक कमीका बन्ध निरन्तर होता है । (दे० कर्म ) जीवके भावोकी विचित्रताके अनुसार वे कर्म भो विभिन्न प्रकारको फलदान शक्तिको लेकर आते है, इसीसे में विभिन्न स्वभाव या प्रकृतिणाले होते हैं। प्रकृतिकी
८६
Jain Education International
प्रकृति बंध
अपेक्षा उन कर्म मूल ८ मेव है, और उत्तर ४ भेद है। उत्तरो उत्तर भेद असंख्यात हो जाते है । सर्व प्रकृतियोंमें कुछ पापरूप होती है. कुछ पुण्य रूप कुछ विभागी, कुछ क्षेत्र व विपाकी,
•
कुछ धवबन्धी, कुछ अध व बन्धी इत्यादि ।
१
भेद व लक्षण
१ प्रकृतिका लक्षण -- १. स्वभाव के अर्थ में, २ एकार्थवाची नाम |
२
प्रकृति बन्धका लक्षण |
३ कर्मप्रकृतिके भेद - १, मूल व उत्तर दो भेद २ मूल
प्रकृतिके आठ भेद; ३. उत्तर प्रकृतिके २४० भेदः ४ असंख्यात भेद ।
४
५
सादि-अनादि वन-अवबन्धी प्रकृतियोंके लक्षण 1 सान्तर - निरन्तर, व उभयबन्धी प्रकृतियोंके लक्षण । ६ परिणाम, भन न परमनिक प्रत्यय रूप प्रकृतियोंके लक्षण ।
७
बन्ध व सत्त्व प्रकृतियोंके लक्षण ।
८
भुजगार व अल्पतर बन्धादि प्रकृतियोंके लक्षण ।
२
प्रकृतियों का विभाग निर्देश
१
पुष्य पाप प्रकृतियोंकी अपेक्षा ।
२
जीव, पुद्गल, क्षेत्र व भवविपाकीकी अपेक्षा ।
३ परिणाम, भव व परभविक प्रत्ययकी अपेक्षा ।
४
अन्ध व अबन्ध योग्य प्रकृतियों की अपेक्षा । उदय व सत्य व संक्रमण योग्य प्रकृतियों
५
६
*
१
२
३
२ प्रकृति बन्ध निर्देश
*
सान्तर, निरन्तर व उभय बन्धीकी अपेक्षा । सादि अनादि बन्धी प्रकृतियोंकी अपेक्षा ।
ध्रुव व अध्रुवबन्धी प्रकृतियोंकी अपेक्षा । समतिपक्ष व अमतिपक्ष प्रकृतियोंकी अपेक्षा । प्रकृतियोंमें घाती अघातीकी अपेक्षा । - दे० अनुभाग । अन्तर्भाव योग्य प्रकृतियाँ ।
— दे० वह वह नाम ।
- दे० उदय / ७ ।
स्वोदय परोदय बन्धी प्रकृतियाँ । उदय व्युच्छिसिके पहले पीछे वा युगपत् बन्ध व्युच्छित्तिवाली प्रकृतिया ।
"
- दे० उदय / ७ ।
द्रव्यकर्मकी सिद्धि आदि ।
- ३० कर्म / ३ ।
आठ प्रकृतियोंके आठ उदाहरण । सिद्धोंक आठ गुणों में किस-किस प्रकृतिका निमित्त है। - दे० मोक्ष / ३ |
पुण्य व पाप प्रकृतियोंका कार्य अघातिया कर्मोंका कार्य ।
प्रकृति बन्धमें योग कारण है। -३० म्प/२/१। किस प्रकृतिमै १० करणोंसे कितने करण संभव है।
-दे० करण / २ |
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org