________________
३१८
रा. वा./५/११/११/४७०/२८ यथा नारकादयो भास्करप्रभाभिवान्मति. मन्त', तथा सिंहगजभेर्यादिशब्दै बृहदभि शकुनिरुतादयोऽभिभूयन्ते। तथा कंसादिषु पतिता ध्वन्यन्तरारम्भे हेतबो भवन्ति । गिरिगहरादिषु च प्रतिहता प्रतिश्रुभावमास्कन्दन्ति । अत्राहअमूर्तेरप्यभिभवा दृश्यन्ते-यथा विज्ञानस्य सुरादिभि, मूर्तिमदभिस्ततो नायं निश्चयहेतुरिति उच्यते-नाय व्यभिचार', विज्ञानस्य क्षायोपशमिकस्य पौगलिकत्त्वाभ्युपगमात् । -जिस प्रकार सूर्य के प्रकाशसे अभिभूत होनेवाले तारा आदि मूर्तिक है, उसी तरह सिंहकी दहाड, हाथीकी चिघाड और भेरी आदिके घोषसे पक्षी आदिके मन्द शब्दोका भी अभिभव होनेसे वे मूर्त है। कासेके वर्तन आदिमें पड़े हुए शब्द शब्दान्तरको उत्पन्न करते है। पर्वतोकी गुफाओं आदिसे टकराकर प्रतिध्वनि होती है। प्रश्न-मूर्तिमादसे अभिभव होनेका हेतु ठीक नहीं है, क्योंकि, मूतिमाच मुरा आदिसे अमूर्त विज्ञानका अभिभव देखा जाता है। उत्तर-यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि, संसारी जीवोंका क्षायोपशमिक ज्ञानको कथंचित मूर्तिक स्वीकार किया गया है। (दे० आगे शीर्षक नं.५), (स, सि./२/९/२८८/५)।
८.जीवके क्षायोपशमिकादि मावों में पौदगलिकत्व व मूर्तस्व रा, वा /९/२०/७/८०/२४ भावत स्वविषयपुद्गलस्कन्धाना रूपादिविकल्पेषु जीवपरिणामेषु चौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिवेषु वर्तते। कुत' 1 पोद्गलिकत्वादेषाम् । रा. वा./१/२७/४/८८/१६ जीवपर्यायेषु औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकेषूत्पद्यतेऽवधिज्ञानम् रूपिद्रव्यसंबन्धात, न क्षायिकपारिणामिकेषु • तत्संबन्धाभावात् । -रूपी पदार्थ विषयक अवधिज्ञान भावकी अपेक्षा स्वविषयभूत पुद्गलस्कन्धों के रूपादि विकल्पों में तथा जीवके औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक भावों में बर्तता है, क्योंकि, रूपीद्रव्यका ( कौका) सम्बन्ध होनेके कारण ये भाव पौद्गलिक है। परन्तु क्षायिक व पारिणामिक भावो में नहीं बर्तता है, क्योंकि, उन दोनों में उस रूपीद्रव्यके सम्बन्धका अभाव है।
७. द्रव्य व भावमनमें पौद्गलिकत्व व मूर्तत्व स. सि./२/३/२६६/२ मनोऽपि विविधं दंव्यमनो भावमनश्चेति । .."द्रव्यमनश्चरूपादियोगात्पुद्गलद्रव्य विकार.। रूपादिवन्मन' । ज्ञानोपयोगकरणत्वाच्चक्षुरिन्द्रियवत् । ननु अमूर्तेऽपि शब्दे ज्ञानोपयोगकरणस्वदर्शनाइ व्यभिचारी हेतुरिति चैत । न, तस्य पौद्गलिकत्वान्मूर्तिमत्त्वोपपत्तेः। ननु यथा परमाणूना रूपादिमत्कार्यदर्शनाद्रूपादिमत्त्वं न तथा वायुमनसो रूपादिमत्कार्य दृश्यते इति तेषामपि तदुपपत्ते । सर्वेषां परमाणूना सर्वरूपादिमत्कार्यत्वप्राप्तियोग्याभ्युपगमाव ।-मन भी दो प्रकारका है-द्रव्यमन व भावमन । उनमें से द्रव्यमनमें रूपादिक पाये जाते हैं अतः वह पुदगल द्रव्यकी पर्याय है। दूसरे मन रूपादिवाला है, ज्ञानोपयोगका करण होनेसे, चक्षुरिन्द्रियवत ।-प्रश्न-यह हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि, अमूर्त होते हुए भी शब्दमें ज्ञानोपयोगकी करणता देखी जाती है। उत्तरनहीं, क्योंकि, शब्दको पौद्गलिक स्वीकार किया गया है। (दे० पिछला शीर्षक) अतः वह मूर्त हैं। प्रश्न-जिस प्रकार परमाणुओंके रूपावि गुणवाले कार्य देखे जाते हैं, अत वे रूपादिवाले सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार वायु और मनके रूपादि गुणवाले कार्य नहीं देखे जाते। उत्तर-नहीं क्योंकि, वायु और मनके भी रूपादि गुणवाले कार्योंके होनेकी योग्यता मानी गयी है। [ परमाणुओं में जाति भेद न होनेसे वायु व मनके कोई स्वतन्त्र परमाणु नहीं है, जिनका कि पृथक से कोई स्वतन्त्र कार्य देखा जा सके-दे० परमाणु/२/२] (रा.
वा./२/३/३/४४२/६) । स. सि./२/१६/२८७/१ भावमनस्तावत- पुदगलावलम्बनत्वात् पौदगलिकम् । द्रव्यमनश्च . गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यास्मनोऽनुग्राहका' पुदगला मनस्त्वेन परिणता इति पौगलिकम् । -भावमन पुद्गलों के अवलम्बनसे होता है, इसलिए पौद्गलिक है। - तथा जो पुद्गल गुण दोष विचार और स्मरणादि उपयोगके सन्मुख हुए आत्माके उपकारक है वे ही मनरूपसे परिणत होते है, अत द्रव्यमन पौद्गलिक है। [अणु प्रमाण कोई पृथक् मन नामक पदार्थ नहीं है-दे० मन/१२] (रा.वा/५/१६/२०/४७१/२); (चा. सा./८८/३); (गो, जी./जी. प्र./६०६/१०६२/६) । दे. मन पर्यय/१४ (संसारी जीव और उसका क्षायोपशमिक ज्ञान क्योंकि कथंचित मूर्त है (दे० अगला शीर्षक), अत: उससे अपृथक् भूत मति, स्मृति, चिन्ता आदिरूप भावमन भी मूर्त है।
१. जीवके रागादिक मा?में पौद्गलिकत्व व भूतत्व स. सा././४६.५१,१५ वबहारस्स दरीसणमुबएसो वण्णिदो जिणबरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा. ४६) जीवस्स जरिथ रागो णवि दोसो णैव विज्जदे मोहो। ११ जेण दु एदे सक्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ।५-'ये सब अध्यबसानादि भाव जीव है' इस प्रकार जिनेन्द्रदेवने जो उपदेश दिया है सो व्यवहारनय दर्शाया है।४६ निश्चयसे तो जीवके न राग है, न द्वेष और न मोह ।।१। क्योंकि ये सब पुद्गल द्रव्यके परिणाम है ॥५५॥ ( स. सा.///
४४,५६,६८)। स, सि./७/१७/३५९/१० रागादयः पुन' कर्मोदयतन्त्रा इति मात्मस्व
भावत्वाया।-रागादिक कर्मोके उदयसे होते है, अत: वे आरमाके स्वभाव न होनेसे हेय हैं । (रा बा./७/१७/५/५४५/१८)। स.सा./आ./गा, नं. अनाकुलवलक्षणसौख्याख्यात्मस्वभावविलक्षणत्वारिकल दुवं; तदन्त'पातिन एव किलाकुल त्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः । ततो न ते चिदन्वयविभमेऽम्यात्मस्वभावा' किंतु पुदगलस्वभावाः ।४य' प्रीतिरूपो राग अप्रीतिरूपो वेष....अप्रतिपत्तिरूपो मोह' स सर्वोऽपि पुदगलद्रव्यपरिणाममयस्वे सत्यभूतेभिन्नत्वात ।।१। -अनाकुलता लक्षण मुख नामक यात्म स्वभाव है। उससे विलक्षण दुःख है। उस दुःख में ही आकुलता लक्षणवाले अध्यवसान आदि भाव समाविष्ट हो जाते हैं। इसलिए, यद्यपि वे चैतन्यके साथ सम्बन्ध होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं, तथापि के आत्मस्वभाव नहीं है, किन्तु पुदगल स्वभाव है।४१ जो यह प्रीतिरूप राग या अप्रीतिरूप द्वेष है या यथार्थ तत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि, वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे अपनी अनुभूतिसे भिन्न हैं ।१ (स.सा./आ./७४,७५०१०२,
११५,१३८)। द.सं./टी./१६/५३/३ अशुद्धनिश्चयेन योऽसौ रागादिरूपो भावमन्धः कथ्यते सोऽपि शुद्धनिश्चयनयेन पुदगलबन्ध एव । - अशुद्ध निश्चयनयसे जो वह रागादिरूप भाव मन्ध (जीवका) कहा जाता है, यह
भी शुद्ध निश्चयनयसे पुद्गलका ही है। पं. का/ता. वृ.१३४/१६७/१८ एवं नैयायिकमताश्रितशिष्यसंबोधनार्थ
नयविभागेन पुण्यपापद्वयस्य मूर्तत्वसमर्थनरूपेण कसूत्रण तृतीयस्थल गतं । इस प्रकार नैयायिक मताश्रित शिष्यके सम्बोधनार्थ नयविभागसे पुण्य व पाप इन दोनोंके मूर्त पनेका समर्थन करने रूप सूत्र कहा गया।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org