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मूर्ति
मृषावचन
मला-भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ ।
१०.संसारी जीव में मूतत्व स सि /१/२७/१३४/8 'रूपिषु' इत्यनेन पुद्गला' पुद्गलद्रव्यसबन्धाश्च जीवा. परिगृह्यन्ते । - सूत्र में कहे गये 'रूपिषु' इस पदसे पुद्गलोका
और पुद्गलोंसे बद्ध जीवोंका ग्रहण होता है। गो. जी/जी.प्र/५६४/१०३३/८ पर उदधृत--संसारिण्यपि पुद्गल ।
संसारी जीवमें 'पुद्गल' शब्द प्रवर्तता है। दे.बंध/२/५/१ (संसारी जीव कथाचित् मूर्त है इसी कारण मूर्त कर्मोसे बंधता है)।
मलनचार-यत्याचार विषयक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है ।डा.ए.एन.
उपाध्याय के अनुसार यह एक संग्रह ग्रन्थ है और डा. नेमिचन्द्र के अनुसार स्वतन्त्र ग्रन्थ । इसमें कुल १२ अधिकार और १२५२ गाथायें है। रचयिता-आ. बट्टकेर । समय-कुन्दकुन्द के समकालीन बी. नि. ६५४-७०६ (ई. १२७-१७६) । (तो./२/११७-१२०) । इस पर दो वृत्ति उपलब्ध है-१. आ. वसुनन्दि (ई. १०६८-१९१८) कृत (ती./३/२२३) । २. आ. सकलकीति (ई.१४२४) कृत मूलाचार प्रदीप । (ती./३/३३३)।
मूलाराधना-भगवती आराधना ग्रन्थका ही अपरनाम मूला
राधना है। (ती०/२/१२७) ।
१७. अन्य सम्बन्धित विषय १. द्रव्योंमें मूर्त अमूर्तका विभाग।
-दे० द्रव्य/३। २. मूर्त द्रव्यके गुण मूर्त और अमूर्त द्रव्यके गुण ___ अमूर्त होते हैं।
-दे० गुण/३/१२१ ३. मूर्त द्रव्योंके साथ अमूर्त द्रव्योंका स्पर्श कैसे ।-दे० स्पर्श/२ । ४. परमाणुओंमें रूपी व अरूपी विभाग। -दे० मूर्त/२,४,५ । ५. अमूर्त जीवके साथ मूर्त कर्म कैसे बँधे । -दे० बन्ध/२। ६. भाव कर्मोके पौद्गलिकत्वका समन्यय। -दे० विभाव/५ । ७. जीवका अमूर्तत्व।
-दे० द्रव्य/३।
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मलाराधना दपंण-भगवती आराधनाकी पं. आशाधर (ई.
११७३-१२४३) कृत सस्कृत टीका। मूसल-क्षेत्रका एक प्रमाण । अपरनाम युग, धनुष, नाली, दंड।
-दे० गणित/I/१/३ । मृग-ध. १३/५,५,१४०/३६१/११ रोमन्थवर्जितास्तिर्यञ्चो मृगा नाम ।
=जो तिथंच रोथते नहीं है वे मृग कहलाते हैं। मृगचारित-स्वच्छन्दाचारी साधु-दे० स्वच्छंद। मृगशीर्षा-एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । मृगांक-रावणका मन्त्री-(प. पु.-६६/१-२)। मृतसंजीवनी–एक मन्त्रविद्या-दे० विद्या। मृत्तिकानयन यंत्र-दे० यंत्र । मृत्यु-दे० मरण। मृत्युंजय यंत्र-दे० यंत्र । मृदंगमध्य व्रत
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००००००० इस व्रतकी विधि दो प्रकार है-बृहत व .. लघु । १ बृहत विधि-यंत्रमें दिखाये ०००००००००
०००००००० अनुसार एक वृद्धि क्रम से १ सेह
००००००० पर्यत और तत्पश्चात एक हानि ०००००० क्रमसे हसे १ परत, इस प्रकार कुल ८१ उपवास करे । मध्यके स्थानों में एक-एक पारणा करे । नमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रतविधान सग्रह/पृ०६०)। २. लघु विधि-यन्त्रमें दिखाये अनुसार एक वृद्धि क्रमसे २ से १ पर्यंत और तत्पश्चात् एक हानि क्रमसे ५ से २ पर्यत, इस प्रकार कुल २३ उपवास
००० करे। मध्यके स्थानों में एक-एक पारणा करे। (ह पु/३४/६४-६५)। मृदंगाकार-Conical ( ज प./प्र. १०८)।-दे० गणित/II/9/७ मषानंदी रौद्रध्यान-दे० रौद्र ध्यान)। मृषामन-दै० मन। मृषावचन-दे० बचन।
त-१, भगवान्की मूर्ति-दे० प्रतिमा । २ मूर्तिपूजा-दे० पूजा/३ । ३. रूपीके अर्थ में मूर्ति-दे० मूर्त/१। मूर्तिक-दे० मूर्त । मूल-१. एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । २. Root (ज. प./प्र. १०८)। ३. वर्गमूल व घनमूल-दे० गणित/II/१/७.८ । ४ कन्दमूल -दे०
मनस्पति/१। मलक-भरत क्षेत्र दक्षिण आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । मलकमं-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४.२.वसतिका
का एक दोष-दे० वसतिका । मूलक्रिया- Fundamental Operation. (ध ५/प्र २८). मूलगुण-१.ध आ./वि./११६-२७७/३–उत्तरगुणानी कारणत्वान्मूलगुणव्यपदेशो व्रतेषु वर्तते। - अनशनादि तप उत्तर गुण हैं ( दे० उत्तर गुण ) । उनके कारण होनेसे व्रतों में मूलगुणका व्यपदेश होता है। २. श्रावकके अष्ट मूलगुण-दे० श्रावक ४)। ३. साधुके २८ मूल गुण-दे० साधु/२॥ मूलप्रायश्चित्त-दे० प्रायश्चित्त/१ । मूलराज-अण हिल पुरके राजा। समय -वि. १६८-१०४३ ( ई०
६४१-६६६)। (हिन्दी जैन साहित्य इतिहास/२८ । कामता प्रसाद ) मलराशि-गणितकी संकलन व व्यकलन व प्रक्रिया में जिस राशिमें अन्यराशिको जोडा जाय या जिस राशिमेंसे अन्य राशिको
घटाया जाय उसे मूलराशि कहते है। दे० गणित/II/१/३,४ । मूलसंघ-दिगम्बर साधुओं का एक सघ ।-दे० इतिहास/५/२,३ । मूलस्थान-१. भ. आ./मू./२६८/५०३ पिंड उवहिं सेज्ज अविसोहिय जो हु भुजमाणो हु । मूलढाणं पत्तो मूलोत्ति य समणपेल्लो सो १२८८१ - आहार, पिछी, कमंडलु और वसतिका आदिको शोधन किये बिना ही जो साधु उनका प्रयोग करता है, वह मूलस्थान नामक दोषको प्राप्त होता है । २. पंजाबका प्रसिद्ध वर्तमानका मुलतान नगर (म.पु./प्र. ४६/पं. पन्नालाल)।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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