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मूत्र
३१६ सब हिंसाके उपदेशक हैं। इसलिए धर्म रहित निरर्थक है। ऐसा रसाद्यग्रहणमिति चेन्नः तदविनाभावात्तदन्तर्भाव.। -१. इन न समझकर जो ग्रहण करता है सो वैदिकमूढ है।
धर्मादि द्रव्यों में रूप नहीं पाया जाता, इसलिए अरूपी है। यहाँ मूत्र-१, औदारिक शरीरमें मूत्रका प्रमाण-दे० औदयिक/१।
केवल रूपका निषेध किया है, किन्तु रसादिक उसके सहचारी हैं
अत उनका भी निषेध हो जाता है। इससे अरूपीका अर्थ अमूर्त २. मूत्र क्षेपण विधि-दे० समिति।१। प्रतिष्ठापन समिति ।
है। (रा. वा /५/४/८/४४४/१) । २ मूति किसे कहते है। रूपादिकमूर्छा -
के आकारसे परिणमन होनेको मूर्ति कहते है। जिनके रूप अर्थात स. सि./७/१७/१० मूत्युच्यते । का मूर्छा । बाह्याना गोमहिषमणि- आकार पाया जाता है वे रूपी कहलाते है। इसका अर्थ मूतिमान मुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानामाभ्यन्तराणा च रागादीनामुपधीना
है। (रूप, रस, गन्ध व स्पर्श के द्वारा तथा गोल, तिकोन, चौकोर संरक्षणार्जनसस्कारादिलक्षणाव्यावृत्तिर्मू । ननु च लोके बातादि
आदि संस्थानोंके द्वारा होनेवाला परिणाम मूर्ति कहलाता हैप्रकोपविशेषस्य मूर्छ ति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहणं कस्मान्न भवति। सत्य
रा वा), (रा, वा /५/५/२/४४४/२१)। ३ अथवा रूप यह गुण मेवमेतत् । मूछिरय मोहसामान्ये वर्तते। 'सामान्यचोदनाश्च विशेषे
विशेषका वाची शब्द है। वह जिनके पाया जाता है वे रूपी है । वतिष्ठन्ते' इत्युक्ते विशेष व्यवस्थित परिगृह्यते, परिग्रहप्रकरणात । रूपके साथ अविनाभावी होनेके कारण यहाँ रसादिका भी उसीमें -प्रश्न-मू का स्वरूप क्या है। उत्तर-गाय, भैस, मणि और अन्तर्भाव हो जाता है। (रा. वा/५/५/३-४/४४४/२४), (रा.वा./ मोती आदि चेतन-अचेतन, बाह्य उपधिका तथा रागादिरूप आभ्य
१/२७/१,३/०८/४,१३)। न्तर उपधिका सरक्षण अर्जन और संस्कार आदि रूप ही व्यापार गो, जी./म./६१३-६१४/१०६४ णिद्धिदरोलीमझे विसरिसजादिस्स मूच्र्छा है। प्रश्न-लोकमें वातादि प्रकोप विशेषका नाम मूच्र्छा है, समगुण एक्क । रूवित्ति होदि सण्णा सेसाणं ता अरूवित्ति ।६१३। दो ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए यहाँ इस मूछ का ग्रहण क्यो नही किया गुणणिद्धाणुस्स य दोगुणलुक्रवाणुगं हवे रूबी। इगिति गुणादि अरूवी जाता। उत्तर-यह कहना सत्य है, तथापि 'मूर्छ' धातुका रुक्खस्स वि तंब इदि जाणे।६१४। -४. स्निग्ध और रूक्षकी श्रेणीमें सामान्य अर्थ मोह है और सामान्य शब्द तद्गत विशेषोमें ही रहते जो विसदृश जातिका एक समगुण है, उसकी रूपी संज्ञा है और हैं, ऐसा मान लेनेपर यहाँ मूर्धाका विशेष अर्थ ही लिया गया है, समगुणको छोडकर अवशिष्ट सबकी अरूपी सज्ञा है।६१३। ५. स्निग्धक्योंकि यहाँ परिग्रहका प्रकरण है। ( रा वा /७/१७/१-२/५४४/३४); के दो गुणोसे युक्त परमाणुकी अपेक्षा रूक्षका दो गुणयुक्त परमाणु (चा.सा./१६/५) । (विशेष दे. अभिलाषा तथा राग ।
रूपी है। शेष एक तीन चार आदि गुणों के धारक परमाणु अरूपी मूतं--केवल आकारवालको नहीं बल्कि इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थको मूर्त या रूपी कहते है। सो छहों द्रव्यों में पुद्गल ही मूर्त है। यद्यपि सूक्ष्म होनेके कारण परमाणु व सूक्ष्म स्कन्धरूप वर्गणाएँ इन्द्रिय
३. आत्माकी अमूतत्व शक्तिका लक्षण ग्राह्य नहीं हैं, परन्तु उनका कार्य जो स्थूल स्कन्ध, वह इन्द्रिय
स सा/आ./परि शक्ति नं०२० कर्मबन्धव्यपगमव्यञ्जितसहजस्पर्शादिग्राह्य है। इस कारण उनका भी मूकपना सिद्ध होता है। और
शून्यात्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्ति । --कर्मबन्धके अभाबसे व्यक्त इसी प्रकार उनका कार्य होनेसे ससारी जीवो के रागादि भाव व
किये गये, सहज स्पर्शादिशुन्य ऐसे आत्मप्रदेशस्वरूप अमूर्तत्व प्रदेश भी कथंचित मूर्तीक है।
शक्ति है। १. मूत व अमूतका लक्षण प. का./मू./BE जे खलु इंदिय गज्झा विसया जीवेहि हो ति ते मुत्ता।
४. सूक्ष्म व स्थूल समी पुद्गलोंमें मूर्तत्व सेस हव दि अमुत्तं .EET - जो पदार्थ जीवोकेन्द्रियग्राह्य विषय प का./मू./७८ आदेसमेत्तमुत्तो धादुचउक्कस्स कारणं जो दु। सो णेओ है वे मूर्त है और शेष पदार्थ समूह अमूर्त है । (प्र सा/त. प्र /१३१); परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो ।७८-जो नय विशेषकी अपेक्षा (पं.ध./उ./७), (और भी दे० नीचे रूपीकालक्षण न०१,३)।
कथंचित मूर्त व कथंचित् अमूर्त है, चार धातुरूप स्कन्धका कारण न, च वृ./६४ रूवाइपिंडो मुत्तं विबरीये ताण विवरीयं 1६२ = रूप है, और परिणमनस्वभावी है, उसे परमाणु जानना चाहिए। वह
आदि गुणोका पिण्ड मूर्त है और उससे विपरीत अमूर्त । (द्र सं| स्वय अशब्द होता है ७८। (ति. प./१/१०१), (दे० परमाणु/२/१में मू १५), (नि, सा./ता. बृ./8)।
न च वृ/१०१)। आ.प./६ मूर्तस्य भावो मूर्तत्वं रूपादिमत्त्वम् । अमूर्तस्य भावोऽमृर्तत्वं स सि /१/२७/१३४/६ 'रूपिषु' इत्येन पुद्गला' परिगृह्यन्ते। - रूपिषु' रूपादिरहितत्वम् इति गुणानां व्युत्पत्तिः। =मूर्त द्रव्यका भाव इस पदके द्वारा पुद्गलोका ग्रहण होता है । (रा वा /१/२७/४/८८/१८); मुर्तत्व है अर्थात रूपादिमात् होना ही मृतत्व है। इसी प्रकार (गो.जी./जी प्र/५६४/१०३३/८ पर उद्धृत श्लोक)। अमूर्त द्रव्योंका भाव अमूर्तत्व है अर्थात रूपादि रहित होना ही पं.का/त, प्र ते कदाचित्स्थूलस्कन्धत्वमापन्ना कदाचिरसूक्ष्मत्वमाअमुर्तत्व है।
पन्ना कदाचित्परमाणुत्वमापन्ना इन्द्रियग्रहणयोग्यतासदभावात दे० नीचे रूपीका लक्षण नं०२ ( गोल आदि आकारवान् मूर्त है)। गृह्यमाणा अगृह्यमाणा वा मुर्ता इत्युच्यन्ते । वे पदार्थ कदाचित पं का./ता वृ /२७/५६/१८ स्पर्शरसगन्धवर्णवती मूतिरुच्यते तत्सद्भावात, स्थूलस्वन्धपनेको प्राप्त होते हुए, क्दाचित् सूक्ष्म स्कन्ध पनेको
मूर्त पुद्गल । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण सहित मूर्ति होती है, उसके प्राप्त होते हुए, और कदाचित् परमाणुपनेको प्राप्त होते हुए, सद्भावके कारण पुद्गल द्रव्य मूर्त है । (प ध /उ./) ।
इन्द्रियो द्वारा ग्रहण होते हो या न होते हो, परन्तु मूर्त है;
क्योकि, उन सभीमें इन्द्रियो द्वारा ग्रहण होनेकी योग्यताका २. रूपी व अरूपीके लक्षण
सदभाव है । ( विशेष दे० वर्गणा )। स. सि V४/२७१/२ न विद्यते रूपमेषामित्यरूपाणि, रूपप्रतिषेवे तत्सह- प.ध./उ/१० नासभव भवेदेतत् प्रत्यक्षानुभवाद्यथा। सनिकर्षोऽस्ति
चारिणा रसादीनामपि प्रतिषेध । तेन अरूपाण्यमानीत्यर्थ । वर्णाचे रिन्द्रियाणा न चेतरै ।१०। -साक्षात् अनुभव होनेके कारण स. सि./५/५/२७१/७ रूपं मूर्तिरित्यर्थः । का मूर्ति । रूपादिसंस्थान- स्पर्श, रस, गन्ध व वर्णको मूर्तीक कहना असम्भव नहीं है, क्योकि
परिणामो मूर्ति । रूपमेषामस्तीति रूपिण । मूर्तिमन्त इत्यर्थ । जैसे इन्द्रियोका उनके साथ सन्निकर्ष होता है वैसे उनका किन्ही अथवा रूपमिति गुणविशेषवचनशब्द । तदेषामस्तीति रूपिणः । अन्य गुणोके साथ नही होता।
प्राह्य है। इस परन्तु उनका सूक्ष्म स्कन्ध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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