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भिला
यहाँ 'काले' इस पदके द्वारा भोजनके कालका उपदेश दिया गया है। चर्चा समाधान / प्रश्न ५३/पृ. ५४ यदि आवश्यकता पडे तो मध्याह्न काल में भी चर्या करते है ।
दे. अनुमति / ६ - अनुमति त्याग प्रतिमाधारो दोपहर को आहार लेता है । दे. रात्रि भोजन / १-प्रधानत दिन का प्रथम पहर भोजन के योग्य है। दे, प्रोषधपवास /१/७ दोपहर के समय भोजन करना साधु का एक भक्त नामक मूल गुण है।
किंचि
8.
मौन सहित व याचना रहित चर्या करते हैं सू. आ./-१०-८१८ पनि भिपिडा पनि 'जायते। मोणदेण मुनियो परति भित्र अभासता । देहीति दीपक भासं च्छति एरिसं वतुं अनि गीदि अलाभेन गय मोणं भंजदे धीरा । ८१८| मुनिराज भोजनके लिए स्तुति नहीं करते और न कुछ माँगते है । वे मौन व्रतकर सहित नहीं कुछ कहते हुए भिक्षाके निमित्त विचरते है। तुम हमको प्रास दो ऐसा करुणा रूप मलिन वचन कहनेकी इच्छा नहीं करते। और भिक्षा न मिलनेगर सीट आते है, परन्तु वे धीर मुनि मौनको नहीं छोड 15851
कुरल. का./१०७/१,६ अभिक्षुको वरीवर्ति भिक्षो' कोटिगुणोदय' । - याचनास्तु वदान्येना निजादचिणे च मे |१| एकोऽपि याचनाशब्दो जिहाया निर्वृति परा । वरमस्तु स शब्दोऽपि पानीयार्थं हि गो' कृते | ६| = भीख न मांगने वाले से करोड गुणा वरिष्ट होने पर भी भिखारी है, भले ही वह किन्हीं उत्साही दातारों से ही क्यों न मांगे |१| गाय के लिये पानी मागने के लिये भी अपमानजनक याचना तो करनी पड़ती ही है । ६।
रा. मा./३/६/१६/१०/१० भिक्षादिगिमा प्राकाहारबैषणप्रणिधाना = दीन वृत्तिसे रहित होकर प्राक आहार हूँढना भिक्षा शुद्धि है । (चा. सा० / ७८/१) १
दे० भिक्षा / २ / २ याचना करना, अथवा अस्पष्ट शब्द बोलना आदि निषिद्ध है । केवल बिजलीकी चमक के समान शरीर दिखा देना पर्याप्त है।
आ. अनु / ९५९ प्राप्तागमार्थ सब सन्ति गुणा कलत्रमप्रावृत्तिरसि माति नृवयाच्या १५१ गुण ही तेरी स्त्रियों है। ऐसा तथा किसी से याचना करने रूप वृत्ति भी तुझमें पार्यो नही जाती । अब तू वृथा ही याचनाको प्राप्त हो है, सो तेरे लिए इस प्रकार दीन बनना योग्य नहीं ।
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५. कदाचित् याचनाकी आज्ञा
भ. आ // १२०१ / १२०६ उग्गहणायणमवचिए वहा भावना तदर | १२०१ = आगमसे अविरुद्ध ज्ञान व संयमोपकरणकी याचना करनी तृतीय अर्थात अचौर्य महाबतकी भावना है। कुरल / १०६/२८ अपमान बिना भिक्षा प्राप्यते या सुदैवत । प्राप्तिकाले तु संप्राप्ता सा भिक्षा हर्षदायिनी ॥२॥ याचा यदि नैव पुन धर्मका । काष्ठपुत्तलनृत्य स्यात् तदा संसारजालकम् || बिना तिरस्कार के पा सको तो मागना आनन्ददायी है । २ । धर्म प्रवर्तक याचको के अभाव में संसार कठपुतली के नाच से अधिक न हो सकेगा 15
३० अपनार / २ / २ (लेजमा गत क्षपककी भैयात्यके अर्थ काचित निर्यापक साधु आहार माँगकर लाता है । ) दे० आलोचना/५/कति दोष आचार्यकी वैयावृत्यके लिए साधु आहार माँगकर लाता है | )
६. अपने स्थानपर भोजन लानेका निषेध
यू.आ./१२. अभिच
ताण पडसिन
ज्जेति | १२ | =... ...अन्य स्थानसे आया सूत्रके विरुद्ध और सूत्र से निषिद्ध ऐसे आहारको वे मुनिया देते है।१२।
१. भिक्षा निर्देश व विधि रावा./७/१/१६/५३५/७ ने संयमसाधनम् आनीय भोक्तव्यमिति । = ला कर भोजन करना यह संयमका साधन भी नहीं है । भ.आ./वि./१९८५/११७१/१२ कचिद्भाजने दिवैव स्थापितं आत्मवासे भुञ्जानस्यापरिग्रहवतलोप स्यात् । = पात्र में रखा आहार वसतिका में ले जाकर खाने से अपरिग्रह व्रत की रक्षा कैसे होगी ।
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७. गोचरी आदि पाँच मिक्षा वृत्तियोंका निर्देश
१.सा./ / ११६ वर सिमणमवण गोयारसम्भपुरणभगर पाउन उप्पयारे विश्व भिक्खु ११६ -मुनियोंकी चर्चा पाँच प्रकारको मतायी गयी है- उदग्निशमन, अक्षग्रक्षण, गोचरी, श्वभ्रपूरण और भ्रामरी ।११६ (चा, सा./८/३ ) | मू. आ /८१५ अक्खोमक्खणमेत्तं भजंति । गाडीके धुरा चुपरनेके समान आहार लेते हैं ।
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रा. मा./१/६/१६/१०/२० वा साभालाभयोः सरसविरसयोश्च समसंतोष भाग्यते यथा सतीसालंकारमरयुवतिभिरुपनीय मानपास गौसौन्दर्य निरीक्षण र गमेनाति यथा गोलूपं नानादेशस्थ यथालाभमभ्यवहरति न योजनासं पदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषजमुनतिरूपवेषविलासा लोकनिरुत्सुकः शुष्कद्रमाहारयोजना विशेष पानपेक्षमाण यथागतमश्नाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, तथा गवेषणेति च यथा वाकट रत्नभारपरिपूर्ण देन केनचिद स्नेहेन अक्षतेपं कृत्वा अभिलतिदेशान्तरं वणिगुपनयति तथा मुनिरपि गुणरत्नभरितां तनुंशकटीमनस्यभिक्षारमेन अभिसमाधिपतनं प्रापयतीत्यक्षक्षणमिति च नाम निरू यथा भाण्डागारे समुत्थितमनमशुचिना शुचिना वा वारिणा शमयति गृही तथा यतिरपि उदराग्नि प्रशमयतीति उदराग्निप्रशमनमिति च निरुच्यते । दातृजनबाधया बिना कुशलो मुनिर्धमरवदाहरतीति भ्रमराहार इत्यपि परिभाष्यते येन केनचित्प्रकारेण स्वभ्रपूरणवदुदरगर्त मनगारः पूरयति स्वादुनेतरेण वेति स्वभ्रपूरणमिति च निरुच्यते । =यह लाभ और अलाभ तथा सरस वीर बिरसमें समान सन्तोष होनेसे भिक्षा कही जाती है। १ गोचरी - जैसे गाय गहनोंसे सजी हुई सुन्दर युवतिके द्वारा लायी गयी घासको खाते समय घासको ही देखती है लानेवालीके अंगसौन्दर्य आदिको नही; अथवा अनेक जगह यथालाभ उपलब्ध होनेबाले पारेके पुरेको ही खाती है उसकी सजावट आदिको नहीं देखती, उसी तरह भिक्षु भी परोसने वालेके मृदु ललित रूप वेष और उस स्थानकी सजावट आदिको देखनेकी उत्सुकता नही रखता और न आहार सूखा है या गीता या कैसे चाँदी आदि के बरतनों में रखा है या केसी उसकी योजना की गयी है' आदिकी ओर ही उसकी दृष्टि रहती है। वह तो जैसा भी आहार प्राप्त होता है जैसा खाता है। अत भिक्षाको गौ की तरह चार-गोचर या गवेषणा कहते है । [२] अक्षम्रक्षण जैसे कि राम बाविसे सदी हुई गाडीमें किसी भी तेलका लेपन करके (ओगन देकर) उसे अपने इष्ट स्थानपर ने जाता है उसी तरह मुनि भी गुण रत्नसे भरी हुई शरीररूपी गाडीको निर्दोष भिक्षा देकर उसे समाधि नगरतक पहुँचा देता है, अत इसे अक्षम्रक्षण कहते हैं । ३. उदाग्निप्रशमन - जैसे भण्डार में आग लग जानेपर शुचि या अशुचि कैसे भी पानी से उसे बुझा दिया जाता है, उसी तरह यति भी उदराग्निका प्रशमन करता है, अत इसे उदराग्निप्रशमन कहते हैं । ४. भ्रमराहार -- दाताओंको किसी भी प्रकारको बाधा पहुँचाये बिना मुनि कुशलतासे भ्रमर की तरह आहार ले लेते है । अत: इसे भ्रमराहार या भ्रामरीवृत्ति कहते है। २. गर्त पूरण- जिस किसी भी प्रकारसे गड्डा भरनेकी तरह मुनि स्वादु या अस्वादु अन्नके द्वारा पेटरूप गड्ढे को भर देता है। अत इसे स्वधपुरण भी कहते है।
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