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भिक्षा
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२. दातारके घर में प्रवेश करने सम्बन्धी नियम....
८ बर्तनोंकी शुद्धि आदिका विचार भ, आ./वि /१२०६/१२०४/१६ दातुरागमनमार्ग अबस्थानदेश, कडु
च्छकभाजनादिक च शोधयेत् . खण्डेन भिन्तेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं वा । दाताका आनेका रास्ता, उसका खडे रहनेका स्थान, पलो और जिसमे अन्न रखा है ऐसे पात्र-इनकी शुद्धताकी तरफ विशेष लक्ष्य देना चाहिए। टूटो हुई अथवा खण्डयुक्त हुई ऐसे पलीके द्वारा दिया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए। २. दातारके घरमें प्रवेश करने सम्बन्धी नियम व विवेक
१. अभिमत प्रदेशमें गमन करे अनभिमतमें नहीं भ आ/मू./१२०६/१२०६ बज्जणमणण्णुणादगिहप्पवेसस्स गोयरादीसु । ११२०६। - गृहके स्वामीने यदि घरमें प्रवेश करनेकी मनाही
की होगी तो उसके घरमें प्रवेश करना यतिको निषिद्ध है। भ. आ./वि./१५०/३४४/२१ अन्ये भिक्षाचरा यत्र स्थित्वा लभन्ते भिक्षा, यत्र वा स्थिताना गृहिण प्रयच्छन्ति तावन्मात्रमेव भूभाग यति प्रविशन्न गृहाभ्यन्तरम्। तदद्वारकाधु क्लङ्घने कुप्यन्ति च गृहिण । -इतर भिक्षा माँगने बाले साधु जहाँ खडे होकर भिक्षा प्राप्त करते है, अथवा जिस स्थानमें ठहरे हुए साधुको गृहस्थ दान देते है, उतने ही भूप्रदेशतक साधु प्रवेश करे. गृहके अभ्यन्तर भागमे प्रवेश न करे क्योकि द्वारादिकोका उल्लघन कर जानेसे गृहस्थ कुपित होगे। (भ. आ./वि /१२०६/१२०४/१२), (भ. आ/पं. सदासुख/ २५०/१३१/१)। भ. आ./वि /१२०६/१२०४/पंक्ति न. द्वारमर्गतं कवाट वा नोद्धाटयेत् ।१०। परोपरोधव जिते, अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत् । ।१५। यदि द्वार बन्द होगा, अर्गलासे बन्द होगा तो उसको उधाडना नही चाहिए ।१०। परोपरोध रहित अर्थात् दूसरोका जहाँ प्रतिबन्ध नही है ऐसे घरमें जाने-आनेका मार्ग छोडकर गृहस्थोके प्रार्थना करनेपर खडे होना चाहिए ।११। (और भी देखो अगला शीर्षक)।
२. वचन व काय चेष्टारहित केवल शरीर मात्र दिखाये भ आ /वि/१२०६/१२०४/१३ यात्रामव्यक्तस्वनं वा स्वागमनिवेदनाथ न कुर्यात् । विद्य दिव स्वा तन च दर्शयेद, कोऽमलभिक्षा दास्यतीति अभिसधि न कुर्यात। -याचना करना अथवा अपना आगमन सूचित करनेके लिए अस्पष्ट बोलना या रखकारना आदि निषिद्ध है। बिजलीके समान अपना शरीर दिखा देना पर्याप्त है। मेरे को कौन
श्रावक निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा संकल्प भी न करे। आचारसार//१०८ क्रमेणायोग्यागारालि पर्यटना प्राङ्गणाभितं । विशेन्मौनी विकारागसज्ञाया चोज्झितो यति । क्रम पूर्वक योग्य घरोके आगेसे घूमते हुए मौन पूर्वक घरके प्रागण तक प्रवेश करते है। तथा शरीरके अंगोपागसे किसी प्रकारका इशारा आदि नही
करते है। चर्चा समाधान/प्रश्न ५३/पृ. ५४ - प्रश्न-व्रती तो द्वारापेक्षण करे पर
अवती तो न करे। उत्तर-गृहस्थके ऑगनमें चौथाई तथा तीसरे भाग जाइ चेष्टा विकार रहित देह मात्र दिखावे। फिर गृहस्थ प्रतिग्रह करे। भ. आ/प सदासुखदास/२५०/१३१/८ बहुरि गृहनिमें तहाँ ताई प्रवेश करे जहाँ ताई गृहस्थनिका कोऊ भेषी अन्य गृहस्थीनिकै आनेकी अटक नही होय। बहुरि अगणमे जाय खड़े नही रहे। आशीर्वादादिक मुखतें नही कहै। हाथकी समस्या नहीं करे। उदरकी कृशता नहीं दिखावै । मुखकी विवर्णता नहीं करे। हुकारादिक। सैन सज्ञा
समस्या नही करै, पड़िगाहे तो खडे रहे, नहीं पडिगाहे तो निकसि अन्य गृहनिमें प्रवेश करै। ३. छिद्र में-से झाँककर देखनेका निषेध भ आ./वि./१२०६/१२०४/१६ छिद्रद्वारं कवाट, प्राकारं वा न पश्येत्
चौर इव । -चोरके समान, छिद्र. दरवाजा, क्विाड तट वगैरहका अवलोकन न करे।
४. गृहस्थके द्वार पर खड़े होने की विधि भ. आ./वि /१२०६/१२०४/१५ अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेव । समे विच्छिद्रे, भूभागे चतुरङ्गुलपादान्तरो निश्चल कुड्यस्तम्भादिकमनवलम्ब्य तिष्ठेत् । -घरमें जाने-आनेका मार्ग छोडकर गृहस्थोके प्रार्थना करनेपर खडे होना चाहिए। समान छिद्र रहित ऐसी जमीन पर अपने दोनो पाँवोमें चार अगुल अन्तर रहेगा इस तरह निश्चल खडे रहना चाहिए। भीत, खम्ब वगैरहका आश्रय न लेकर स्थित खडे रहना चाहिए।
५. चारों ओर देखकर सावधानीसे वहाँ प्रवेश करे भ. आ. वि./१५०/३४५/३ द्वारमप्यायामविष्कम्भहीन प्रविशत गात्रपीडासकुचिताङ्गस्य विवृताधोभागस्य वा प्रवेश दृष्ट्वा कुप्यन्ति वा। आत्मविराधना मिथ्यात्वाराधना च । द्वारपार्श्वस्थजन्तुपीडा स्वगात्रमई ने शिक्यावलम्बितभाजनानि वा अनिरूपितप्रवेशी वा अभिहन्ति । तस्मादूर्व तिर्यक् चावलोक्य प्रवेष्टव्य । -दीर्घता व चौडाईसे रहित द्वारमे प्रवेश करनेसे शरीरको व्यथा होगी, अगोंको सकुचित करके जाना पडेगा। नीचेके अवयवोको पसार कर यदि साधु प्रवेश करेगा तो गृहस्थ कुपित होगे अथवा हास्य करेगे। इससे साधुको आत्म विराधना अथवा मिथ्यात्वाराधना होगी। संकुचित द्वारसे गमन करते समय उसके समीप रहनेवाले जीवोको पीडा होगी. अपने अवयवोका मर्दन होगा। यदि ऊपर साधु न देखे तो सीकेमें रखे हुए पात्रोको धक्का लगेगा अत साधु ऊपर और चारो तरफ देखकर प्रवेश करें।
६. सचित्त व गन्दे प्रदेशका निषेध भ आ./वि./१५०/पृ. नं./4.नं, गृहिभिस्तिष्ठ प्रविशेत्यभिहितोऽपि नान्धकारं प्रविशेत्रसस्थावरपीडापरिहतये। (३४४/२२) तदानीमेव लिप्ता, जल सेकादा, प्रकीर्णहरितकुसुमफलपलाशादिभिनिरन्तरी, सचित्तमृत्तिकावती, छिद्रबहुला, विचरत्रसजीवाना (३४५/4 ) मुत्रासक पुरोषादिभिरुपहता भूमि न प्रविणेत ( ३४५/८)-गृहस्थोंके तिष्ठो, प्रवेश करो ऐसा कहनेपर भी अन्धकारमें साधुको प्रवेश करना युक्त नहीं । अन्यथा त्रस व स्थावर जीवोंका विनाश होमा। (३४४/ २२) तत्काल लेपो गयी, पानीके छिडकावसे गीली की गयी, हरातृण, पुष्प, फल, पत्रादिक जिसके ऊपर फैले हुए है ऐसो. सचित्त मिट्टीसे युक्त, बहुत छिद्रोसे युक्त, जहाँ उस जीव फिर रहे है । "जो मूत्र, रक्त, विष्टादिसे अपवित्र बनो है, ऐसी भूमिमें साधु प्रवेश न करे। अन्यथा उसके संयमकी विराधना होगी व मिथ्यात्व आराधनाका दोष लगेगा। भ. आ /वि /१२०६/१२०४/३,७.११ अकर्द मेनानुदकेन अनसहरितबहुलेन वमना ३) तुषगोमयभस्मबुसपलाल निश्चयं, दलोपलफलादिक च परिहरेत ७१ पुष्पै. फलै/जैविकीर्णा भूमि वर्जयेत् । तदानीमेव लिप्तां । -जिसमें कीचड नही है, पानी फैला हुआ नही है, जो प्रस व हरितकाय जन्तुओसे रहित है, ऐसे मार्ग से प्रयाण करना चाहिए । • धानके छिलके, गोबर, भस्मका ढेर, भूसा, वृक्षके पत्ते, पत्थर फलकादिको का परिहार करके गमन करना चाहिए। जो जमीन पुष्प, फल और बोजोसे व्याप्त हुई है अथवा हालमे ही लीपी गयी है उस परसे जाना निषिद्ध है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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