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भिक्षा
७. व्यस्त व शोक युक्त गृहका निषेध
भ.आ./वि./२२०६/१२०४ / २२ तथा कुटुम्बिषु व्यग्रविषण्णदीनमुखेषु च "सुनो तिष्ठेत् जहाँ मनुष्य, किसी कार्यने तत्पर दीखते हो, रिशन्न दीख रहे हो उनका सुख दीनता युक्त दीख रहा हो तो यहाँ ठहरना निषिद्ध है ।
८. पशुओं व अन्य साधु युक्त प्रदेशका निषेध
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भ. जा./वि./१५०/३४४/९२ तथा भिक्षानिमित्तं गृह प्रवेष्टुकामः पूर्व लोकमेरिकन मतीबद महिष्य प्रसूता मा गाव दुष्टा वा सारमेया, भिक्षाचरा. श्रमणा सन्ति न सन्तीति । सन्ति चेन्न प्रविशेत् । यदि न बिभ्यति ते यत्नेन प्रवेशं कुर्यात् । ते हि भोता यति बाधन्ते स्वयं वा पलायमाना त्रसस्थावरपीडां कुर्यु.। क्लिश्यन्ति, महति का गदी पतिता मृतिमुपेयु गृहीतभिक्षाणां ना तेष निर्गमने गृहस्थे प्रत्याख्यान वा दृष्ट्वा श्रुत्वा वा प्रवेष्टव्यं । अन्यथा बहर आयाता इति दातुमशक्ता' कस्मैचिदपि न दद्यः । तथा च भोगान्तराय कृत स्यात् । क्रद्धा परे भिक्षाचरा निर्भत्सनादिकं कुर्युरस्माभिराशया प्रविष्ट गृह किमर्थं प्रविशतीति] [...... ( एलर्क वत्स वा नातिक्रम्य प्रविशेत्। मीता पलायनं कुर्मुरात्मानं मा पातयेयु' ) । भिक्षा के लिए श्रावक घरमें प्रवेश करते समय प्रथमत' इस घर में बैल, भैंस, प्रसूत गाय दुष्ट कुत्ता, भिक्षा मांगनेवाले साधु है या नहीं यह अवलोकन करे, यदि में होंगे तो प्रवेश करे अथवा उपर्युक्त प्राणी साधुके प्रवेश करनेसे भयमुक्त न होने तो यहाँ सान धान रहकर प्रवेश करे। यदि वे प्राणी भययुक्त होगे तो उनसे यतिको बाधा होगी । इधर-उधर वे प्राणी दौडेगे तो त्रसजीवोंका, स्थावर जीवोंका विनाश होगा अथवा साधुके प्रवेशसे उनको बलेश होगा । किंवा भागते समय गड्डे गिरकर मृत्यु नश होगे जिन्होने भिक्षा ली है ऐसे अन्य साधु घरसे बाहर निकलते हुए देखकर अथवा गृहस्थोके द्वारा उनका निराकरण किया हुआ देखकर वा सुनकर तदनन्तर प्रवेश करना चाहिए। यदि मुनिवर इसका विचार न कर आमक गृहमें प्रवेश करें तो बहुत लोक आये है ऐसा समझकर दान देनेमें असमर्थ होकर किसीको भी दान न देंगे। अत विचार बिना प्रवेश करना लाभातरायका कारण होता है। दूसरे भिक्षा माँगनेवाले पाखंडी साधु जैन साधु प्रवेश करने पर हमने कुछ मिलनेकी आशासे यहाँ प्रवेश किया है, यह मुनि क्यो यहाँ आया है ऐसा विचार मनमें लाकर निर्भर्त्सना तिरस्कारादिक करेगे ... घरमें बछडा अथवा गाय का बछडा हो तो उसको लांघकर प्रवेश न करे अन्यथा वे डरके मारे पलायन करेगे वा साधुको गिरा देंगे । भ.आ./वि./१२०६/१२०४/१० बालवत्स, एलकं, शुनो वा नोब्लडूषयेत् । .... भिक्षाचरेषु परेषु लाभार्थिषु स्थितेषु तद्गेह न प्रविशेत् । =छोटा बछड़ा, बकरा और कुत्ता इनको लाँघ कर नहीं जाना चाहिए।... जहाँ अन्य भिक्षु आहार नामके लिए खड़े हुए हैं, ऐसे घर में प्रवेश करना निषिद्ध है ।
९. बहुजन संसक्त प्रदेशका निषेध
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रा. बा./६/६/१६/२६७/१६ भिक्षाशुद्धि दोनानाथदानशाला विवाहयजनगेहादिपरिवर्तनोपलक्षिता -दीन अनाथ दानशाला विवाह
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यज्ञ भोजनादिका जिसमें परिहार होता है, ऐसी भिक्षा शुद्धि है। भ, आ /वि/१५०/३४५/७ गृहिणा भोजनार्थं कृतमण्डल परिहारा, देवताघ्युषिता निकटीभूतनानाजनामन्तिकस्यासन वायनामासीनशयित पुरुष भूमि न प्रविशेत् जहाँ गृहस्थोके भोजन के लिए रंगावती रची गयी है, देवताओ की स्थापनासे युक्त, अनेक लोग जहाँ बैठे है, जहाँ आसन और शय्या रखे है, जहाँ लोक बैठे है और सोये हैं . ऐसी भूमि में साधु प्रवेश न करे ।
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३. योग्यायोग्य कुल व घर
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भ.आ./वि./१२२०६/१२०४ / ८ न गीतनृत्यबहुत उपिता वा गृह प्रविशेत्। यज्ञशाला, रामशाला, विवाहगृह वार्यमाणानि रक्ष्यमाणानि, अन्यमुक्तानि च गृहाणि परिहरेत् । जहाँ पताकाओंकी पंक्ति सजायी जा रही है ऐसे घरमे प्रवेश न करे ।..न्यज्ञशाला दानशाला, विवाहगृह, जहाँ प्रवेश करनेकी मनाई है, जो पहरेदारो से युक्त है, जिसको अन्य भिक्षुकोंने छोड़ा है ऐसे गृहों का त्याग करना चाहिए।
१०. उद्यान गृह आदिका निषेध
भ.आ./वि/१२०६/१२०४ / ९४ रहस्यगृह, वनगृहं कदलीलतागुल्मगृह, नागान्धर्मशालाश्व अभिनन्द्यमानोऽपि न प्रविशेद एकांतगृह, उद्यानगृह, कलियोसे बना हुआ गृह, लतागृह, छोटे-छोटे वृक्षोसे आच्छादित गृह, नाटयशाला, गन्धर्वशाला इन स्थानों में प्रतिग्रह करनेपर भी प्रवेश करना निषिद्ध है।
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३. योग्यायोग्य कुल व घर
१. विधर्मी आदिके घरपर आहार न करे
दे० आहार // २/२ अनभिज्ञ साधर्मी और आचार क्रियाओको जाननेवाले भी विधर्मी द्वारा शोधा या पकाया गया, भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए।
दे० भिक्षा / ३ / २ नीच कुल अथवा कुलिगियोके गृहमै आहार नहीं लेना चाहिए ।
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क्रियाकोष / २०८-२०६ जैनधर्म जिनके घर नाही । आन-आन देव जिनके घर माही |२०११ तिनको छूआ अथवा करको । कबहू न खावे तिनके घरको २०६
२. नीच कुलीनके घर आहार करनेका निषेध
मू. आ. / ४१८, ५०० अभोजगिहपवेसणं |४६८ | कारणभूदा अभोयणस्सेह |५००१ - अभोज्य घरमें प्रवेश करना भोजन त्यागका कारण है, अर्थात् २१ वाँ अन्तराय है ।
२९ धरि को मुंह विषय संपुर्णादि पोसए पि पावदि बालसहभागि सो समणो |२१| जो गिधारी व्यभिचारिणो स्त्रीके घर भोजन करते है, और 'यह वही धर्मात्मा है इस प्रकार उसकी सराहना करते है। सो ऐसा लिंगधारी बालस्वभावको प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भाव विनष्ट है, सो श्रमण नहीं है |२१|
रा. या /६/६/१८/१०/१७ भिलाशुद्धि लोकहित कुल परिवर्जन परा
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- भिक्षा शुद्धि लोक गर्हित कुलोका परिवजन या त्याग करानेबाली है।
भ, आ./वि / ४२१/६१३/१४ ऐतेषां पिण्डो नामाहार' उपकरणं वा प्रतिलेखनादिक शय्याधरपिण्डस्तस्य परिहरणं तृतीय स्थितिकल्पः । सति शय्याधरपिण्डग्रहणे प्रच्छन्नमयं योजयेदाहारादिकं । धर्मफललोभाद्यो वा आहारं दातुमहमी दरिद्रो हुन्थो वा न चासौ वसति प्रयच्छेत् । सति मसती आहारादाने वा लोको मां निन्दति स्थिता बसावस्य बतयो न चानेन मन्दभाग्येन तेषां आहारे दत्त इति । यते स्नेहरच स्यादाहार वसति व प्रति तस्मिमहकारितया । तत्पिण्डाहणे तु नोक्तदोषसंस्पर्शः इनके के ० शय्याधर) आहारका और इनकी पिच्छिका आदि उपकरणोका त्याग करना यह तीसरा स्थिति है । यदि इन शय्याधरोके घरमें मुनि आहार लेंगे तो धर्म फल के लोभसे ये शय्याधर मुनियोको आहार देते है ऐसी निन्दा होगी जो आहार देनेमे असमर्थ हैं, जो दरिद्री है, लोभी कृपण है, वह मुनियोंको वसतिका दान न देवे। उसने वसतिका दान किया तो भो इस मन्दभाग्य मुनिको आश्रय दिया परन्तु आहार नहीं दिया ऐसी लोग निन्दा करते है। जो वसतिका और आहार दोनो देता है
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