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भिक्षा
उसके ऊपर मुनिका स्नेह भी होना सम्भव है क्योकि उसने मुनिपर बहुत उपकार किया है । अत उनके यहाँ मुनि आहार ग्रहण नहीं करते । भ आ / वि / १२०६ / १२०४/८ मत्ताना गृहं न प्रविशेत् । सुरापण्याडूनालोकगर्हितकुलं वा । ... ..उत्क्रमाढचकुलानि न प्रविशेत् । मत्त पुरुषोंके घरमें प्रवेश न करे । मदिरा अर्थात मदिरा पीनेवालोका स्थान, वेश्याका घर, तथा लोक निन्द्य कुलोका त्याग करना चाहिए। आचार विरुद्ध चलनेवाले श्रमन्त लोगोके घरका त्याग करना चाहिए।
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आचारसार/ ०/१०१-१०० कोटवाल, वेश्या, बन्दीजन, नीच कर्म करने वालेके घर में प्रवेशका निषेध है ।
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३. योग्यायोग्य कुल व पर
सा. घ. / २ / ३३/१०६ पर फुटनोट- यस्तेऽस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्यद्विगर्हितं । दुर्जन (अर्थात् अस्पर्श चाण्डाल आदिके साथ स्पर्श होनेपर मुनिको स्नान करना चाहिए । अन च./२/५१ तद्वच्चाण्डालादिस्पर्श स्पर्श हो जानेपर अन्तराय हो जाता है।
चाण्डालादिका
साध / ३ / १० / १८६ पर फुटनोट- मद्यादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् । तदामूत्रादिस पकं न कुर्वीत कदाचन । = मद्य पीनेवालो के घरोमें अन्न पान नहीं करना चाहिए। तथा मल मूत्रादिका सम्पर्क भी उस समय नहीं करना चाहिए।
बो.पा/टो / ४८/११२/१५ किं तदयोग्य गृह यत्र भिक्षा न गृह्यते इत्याहगायकस्य तलारस्य, नीचकर्मोपजीविन. मालिकस्य विलिङ्गस्य वेश्यायास्तै लिकस्य च |१| अस्थायमर्थ गायकस्य गन्धर्वस्य गृहे न भुज्यते । तलारस्य कोटपालस्य, नोचकर्मोपजीविन चर्मजलशकटा देवका भावस्यापि गृहे न भुज्यते । मासिकस्य पुष्योपजीविन विलिङ्गस्य भरतस्य, वेश्याया गणिकाया, तैलिक्स्य घाचिकस्य । दीनस्य सूतिकायाश्च छिपकस्य विशेषत । मद्यविक्रयिणो मद्यपायिसंसर्गिणश्च न २ दीनस्य श्रावकोऽपि सन् यो दीनं भाषते । सूर्तिकाया या बालकाना जनन कारयति । अन्यत्सुगमं । शालिको मारिचैव कुम्भकारस्तिापितातिविशेया पचेते पञ्चकारव | ३| रजकस्तक्षकश्चैव अय सुवर्णकारक । दृषत्कारादयश्चेति कारवो बहव. स्मृता ॥४॥ क्रियते भोजन गेहे यतिना मोक्तुमिच्छना । एवमादिकमप्यन्यच्चिन्तनीय स्वचेतसा । ५ । वर स्वहस्तेन कृत पाको नान्यत्र दुर्दशा । मन्दिरे भाजन यस्मात्सर्वसावधसगम | ६| = वे अयोग्य घर कौनसे है जहाँसे साधुको भिक्षा ग्रहण नही करनी चाहिए। सो बताते है अर्थात मानेकी आजीवि का करनेवाले गन्धर्व लोगोके घरमे भोजन नही करना चाहिए। तलार अर्थात् कोतवाल के घर तथा चमडेका तथा जल भरनेका तथा रथ आदि हाँकने इत्यादिका नीचकर्म करनेवाले श्रावको घरमे भी भोजन नहीं करना चाहिए। माती अर्थाद मोकी आजीविका करने वाले घर तथा कुलिगियो के घर तथा वेश्या अर्थात् गणिकाके घर और तेलीके घर भो भोजन नही करना चाहिए |१| इसके अतिरिक्त निम्न अनेक घरोमे भोजन नही करना चाहिए - श्रावक होते हुए भी जो दोन वचन कहे, सूतिका अर्थात जिसने हाल ही में बच्चा जना हो, छिपी (कपडा र गनेवाले), मद्य बेचने वाले, मद्य पीनेवाले, या उनके संसर्ग में रहने २ जुना माली, कुम्हार, तिलहर अर्थाव तेलो, नावि अर्थात् नाई इन पाँचोको पाँच कारव कहते है | ३| रजक (धात्री), तक्षक (लढाई), लुहार, सुनार, दृषत्कार अर्थात पत्थर घडनेवाले इत्यादि अनेक कारण है |४| ये तथा अन्य भी अपनी बुद्धिसे विचारकर, मोक्षमार्गी यतियोको इनके घर भोजन नहीं करना चाहिए |५| अपने हाथसे पकाकर खा लेना अच्छा है परन्तु ऐसे कुदृष्टि व नीचकर्मोपजीवी लोगोके घरमे भोजन करना योग्य नही है, क्योकि इससे सर्व साधका प्रसंग आता है ।
२.
सेने स्नान करवान
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आचारसार २७० दृष्टे कपालिचाण्डालपुष्यस्यादिके सति पोषितो मन्त्र प्रागुप्लुत्याशु दण्डवत् 1901 कपाली, चण्डाली और रजस्वला स्त्रोसे छूने पर सिरपर कमण्डल से पानीकी धार डाले, पाँवो तक आ जाये । उपवास करे। महा मन्त्र का जाप करे ।
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४. अति दरिडीके घर आहार करनेका निषेध रा.वा./१/८/१६/५१७/१८ भिक्षावृद्धिः दीनानाथ... गेहादिपरिवर्जनोपलक्षिता । -दीन अनाथोके घरका त्याग करना भिक्षा शुद्धि है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भ. आ./वि./१२०६/१२०४/६ दरिद्रकुलानि उत्क्रमाढयकुलानि न प्रविशेत् | अतिशय दरिद्री लोगोंके घर तथा आचार विरुद्ध श्रमन्तोंके घर में भी प्रवेश न करे ।
बो. पा./टी./ ४८ / ११२ पर उद्धृत दीनस्य श्रवकोऽपि सन् यो दीनं भाषते । = श्रावक होते हुए भी जो दीन वचन कहे, उसके घर भोजन नहीं करना चाहिए ।
५. कदाचित् नीच घरमें भी आहार ले लेते हैं
सू. आ./८१३ जग्गादममुष्णा भिवख विचमिकुले घरपंतिहि हिंडे ति य मोणेण मुणी समादिति । ८१३ | नीच उच्च तथा मध्यम कुलो में गृह पंक्ति के अनुसार वे मुनि भ्रमण करते है और फिर मौन पूर्वक अज्ञात अनुज्ञात भिक्षाको ग्रहण करते है । ८१३॥ ६. राजा आदिके घरपर आहारका निषेध भ.आ./वि./४२९/६१२/१८ राजपिण्डाग्रहणं चतुर्थस्थिति
राज शब्देन स्वाप्रभूतिकुले जाता. राजते रायति इति वा राजा राजसदृशो महर्द्धिको भण्यते । तस्य पिण्ड' । स त्रिविधो भवति । आहार बनाहार, उपधिरिति तत्राहारचतुर्विधो भवति अशनादिभेदेन । तृणफलकपीठादि अनाहार, उपधिर्नाम प्रतिलेखनं वस्त्रं पात्र वा । एवंभूतस्य राजपिण्डस्य ग्रहणे को दोष इति चेद अप्रोच्यते द्विविधा दोषा आत्मसमुत्था परसपुरथा मनुजतिकृपेने तिर्यक्कृता द्विविधा प्रामाण्यमनुमेशत्। ते द्विप्रकारा अपि द्विभेदा दुष्टा भद्राश्चेति । हया, गजा, गावो, महिषा, मेन्द्रा, श्वानश्च ग्राम्या दृष्टा । दुष्टेभ्य. संयतोपघात । भद्राः पलायमाना स्वयं दुखिता. पातेन अभिघातेन वा प्रतिनो मारयन्ति या भावनोलंघनादिपरा प्राणिन आरण्यकास्तु व्यद्वीपम वानरा वा राजगृहे बन्धनमुक्ता यदि क्षुद्रास्तत आत्मविपत्तिर्भद्राश्चेत्पलायने पूर्वदोष. । मानुषास्तु तलवरा म्लेच्छ भेदा, प्रेष्या दासाः दास्यः इत्यादिका दश राजगृहं प्रविशन्तं मताः प्रमत्ता प्रमुदिताश्च दासादय उपहसति, आक्रोशयन्ति बारयन्लि वा अवरुद्धाया स्त्रिया मैथुनसज्ञया माध्यमाना पुत्रार्थिन्यो वा बलात्स्वगृहं प्रवेशयन्ति भोगार्थं । विप्रकीर्ण रत्नसुवर्णादिक परे गृहीत्वा अत्र संयता अयाता इति दोषमध्यारोपयन्ति । राजा विश्वस्त भ्रमणेषु इति धमणरूपं गृहीस्वागत्य दृष्टा खलीकुर्वन्ति । ततो रुष्टा अविब्रेकिन दूषयन्ति श्रमणान्मारयन्ति वध्नन्ति वा एते परसमुद्धमा शेषा आत्मसमुद्धवास्तुच्यन्ते राजकुले आहार न शोधयति अष्टमाहूत गृहाति विकृतिसेवनादिगासदोष मन्दभाग्यो वा इष्टवान रत्नादिकं गृहीयानामरूप रामवलोकयानुरस्ता भवेत् ता विभूति अन्त पुराणि यान वा विलोक्य निदानं कुर्यात् । इति दोषसभवो यत्र तत्र राजपिण्डग्रहणप्रतिषेधो । = - राजाके यहाँ आहार नही लेना चाहिए यह चौथा स्थिति कल्प है । १ राजासे तात्पर्य - इक्ष्वाकुव श हरिवश इत्यादि कुलमे जो उत्पन्न हुआ है, जो प्रजा का पालन करना, तथा उनकी दुष्टोंसे रक्षा करना, इत्यादि उपायोसे अनुरंजन करता है उसको
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