________________
बृहत् संग्रहिणी सूत्र
बृहत् संग्रहिणी सूत्र - जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण (बि. ६२०) द्वारा
रचित प्राकृत भाषाबद्ध श्वेताम्बर ग्रन्थ । अपर नाम संघायणी । (जै./२/१२)।
बृहत् सर्वज्ञ सिद्धि - अनन्तकीर्ति (ई.) द्वारा रचित संस्कृत भाषाबद्ध न्याय विषयक ग्रन्थ । (ती./३/१६७) ।
बृहद्गृह — विजयार्थी दक्षिण अशीका एक नगर विद्याधर । बृहद् बल
"रामाकृष्ण द्वारा संशोधित इक्ष्वाकु व शावली के अनुसार वैवस्वतयम की १०२वीं पीढ़ी में विद्यमान राजा जो महाभारत युद्ध में मारा गया। समय-ई पू. १५५० -- दे. महाभारत ।
बृहस्पति - १ एक ग्रह - दे० ग्रह, २ इसका लोकमे अवस्थान- दे० ज्योतिष / २२. चक्रवर्तीका मन्त्री और मलिका सहवर्ती । -दे० बलि ।
-दे०
बेलंधर
समुद्रस्य कौस्तुभ व कौस्तुभाभास पर्वतके स्वामीदेव - दे० लोक / ७ । लवण समुद्र के अपर बेलन्धर नामवाले नागकुमार जाति भवनवासी देवोंकी ४२००० नगरियाँ हैं । बेलड़ी- व्रतविधान सं/पृ. २६ केवल पानी और मिर्च मिलाकर खाना सो बेलडी कहलाता है ।
बेलन - -Cylinder. (ज. प. / प्र १०७ ) ।
बेलनाकार - Cylinderical / २९ ) - ६० गणित/11/७/६ बेलावत प्रथमदिन दोपहरको एकाशन विवक्षित दो दिनों में उपवास तथा अगले दिन दोपहरको एकाशन करे। ( ह. पु / ३४ /
)
( व्रतविधान स / पृ. १२३ ) ।
-
बोद्दनराय अमोघवर्ष । बोधपाहुड़ - - आ. कुन्दकुन्द ( ई १२७-१७६) कृत आयतन चैत्यगृह आदि ११ विषयों सम्बन्धी सति परिचायक ६२ प्राकृत गाथाओमे निबद्ध ग्रन्थ है । इसपर आ० श्रुतसागर (ई १४८१-१४६६ ) कृत संस्कृत टीका और पं. जयचन्द छाबड़ा ( ई १८६७) कृत देशभाषा वचनिका उपलब्ध है । (ती./२/११४) ।
बोधायन सूत्र टीकार०
राष्ट्रकूटका राजा था। अपरनाम अमोघवर्ष था - दे०
बोधि प. प्र/टी./१/१/१६/८ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्राण सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती और इनका पाना ही बोधि है (इ सं /टी./३३/९४२/१)।
बोधि
बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा - दे० अनुप्रेक्षा । बोधि दे०
बौद्धदर्शन -- १. सामान्य परिचय
१. इस मतका अपरनाम सुगत है । सुतिको तीर्थंकर, वुद्ध अथवा धर्मधातु कहते है । ये लोग साल सुगत मानते है- विपर्या शिखी, विश्वभू, क्रकुच्छन्द, काचन, काश्यप और शाक्यसिह । ये लोग बुद्धः भगाको मानते है र बुझतीन रेखाओ चिह्नित होते है। बौद्धसाधु चमर, चमडेका आसन व कमण्डलु रखते है । मुण्डन कराते हैं। सारे शरीरको एक गेरुवे वस्त्र से ढके रहते है ।
* उत्पत्ति व आचार-विचार
१. का उपदेशक समानता के कारण जैन
को कोई-कोई
एक मानता है, पर वास्तव में में ऐसा नहीं है। जैन शास्त्रोंमें इसकी उत्पत्ति सम्बन्धी दृष्टियाँ प्राप्त है ।
भा० ३-२४
१८५
Jain Education International
२. उत्पत्ति सम्बन्धी दृष्टि नं १
द.सा./मू./६० श्री पारख नाथतीर्थे सरयूतीरे पलाशनगरस्थ पिहितास्रवस्य शिष्यो महाश्रुतो बुद्धिकीतिमुनि |६| तिमिपूर्णाशन. अभिगतप्रवज्यात परिभ्रष्टः । रक्ताम्बरं धृत्वा प्रवर्तितं तेन एकान्तम् ॥७॥
बौद्धदर्शन
1 =
गी. जी./जी.प./१६ मुखदर्शनादय. एकान्त मिध्यादृश्य. श्रीपार्श्वनाथ भगवानके तीर्थमे सरयू नदी के तटवर्ती पलाश नामक नगर में पिहिता
सानुका शिष्य बुद्धिकीर्ति मुनि हुआ, जो महाश्रुत व बडा भारी शास्त्रज्ञ था । ६। मछलियोका आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई दीक्षासे भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर ( लाल वस्त्र ) धारण करके उसने एकान्त मतकी प्रवृत्ति की 101 बुद्धदर्शन आदिक ही एकान्त मिध्यादृष्टि है।
सा/२६ प्रेमी जी बुकीति सम्भवत बुद्धदेव (महात्मा बुद्ध का ही नामान्तर था । दीक्षासे भ्रष्ट होकर एकान्त मत चलानेसे यह अनुमान होता है कि यह अवश्य ही पहले जैन साधु था । बुद्धिकीर्तिको पिहितास्रव नामक माधुका शिष्य बतलाया है। स्वयं ही आत्मारामजी ने लिखा है कि पिहितास्रव पार्श्वनाथको शिष्य परम्परामें था । श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे पता चलता है कि भगवान् महावीर के समय में पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा मौजूद भी २. उत्पत्ति सम्बन्धी दृष्टि नं. २
धर्म परीक्षा / २ / ६ रुष्ट श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायन । शिष्य' श्री पार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् । ६ । शुद्धोदनसुत बुद्ध परमात्माममलनी। भगवा पार्श्वनाथकी शिष्य परम्परामें मौहितायन नामका तपस्वी था। उसने महावीर भगवान् से रुष्ट होकर बुद्धदर्शनको चलाया और शुद्धोदनके पुत्र बुद्धको परमात्मा कहा ।
द सा./ प्र / २७ प्रेमी जी नं. १ व नं. २ दृष्टियो में कुछ विरोध मालूम होता है. पर एक तरहसे उनकी संगति बैठ जाती है । महावग्ग आदि मौद्ध ग्रन्थोसे मालूम होता है कि मौडिसायन और सारीपुत्त दोनो बुद्धदेव के शिष्य थे । वे जब बुद्धदेवके शिष्य होने जा रहे थे, तो उनके साथी सजय परिवाजकने उन्हे रोका था। इससे मालूम होता है कि 'धर्म' परीक्षाकी मान्यता के अनुसार मे अवश्य पहले जैन रहे होंगे।
परन्तु इस प्रकार वे बुद्धके शिष्य थे न कि मतप्रवर्तक । सम्भवत बौद्धधर्म के प्रधान प्रचारको में से होनेके कारण इन्हें प्रवर्तक कह दिया गया हो। बस न. १ व नं. २ की संगति ऐसे बैठ जाती है कि भगवान् पार्श्वनाथ के तीर्थ मे पिहितास्रव मुनि हुए । उनके शिष्य बुद्धदेव हुए, जिन्होंने बौद्धधर्म चलाया और उनके शिष्य मौलायन हुए जिन्होने इस धर्म का बहुत अधिक प्रचार किया । ४. बौद्ध लोगोंका आचार-विचार
दसा // ८-६ मासस्य नास्ति जीवो यथा फले दधिदुग्धशर्करा च । तस्मात्त वाञ्छन् तं भक्षत् न पापिष्ठ |८| मद्य न वर्जनीयं द्रवद्रव्यं यथा नलं तथा एतत् । इति लोके घोषयित्वा प्रवर्तित सर्वसाध - फल, दूध, दही, शक्कर आदिके समान मासमें भी जीव नही है । अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण करनेमें पाप नही है |८| जिस प्रकार जल एक तरल पदार्थ है उसी प्रकार मद्य भी तरल पदार्थ है, वह त्याज्य नहीं है । इस प्रकारकी घोषणा करके उस (क) ने संसार सम्पूर्ण पापकर्मको परिपाटी चलामी ||
द सा / प्र / २७ प्रेमी जी, उपरोक्त बात ठीक मालूम नही होती, क्योंकि धर्म प्राणिधा ती निषेध करता है यह 'मांसमें जीव नहीं है यह कैसे कह सकता है दूसरे वौद्ध साधुओंके विनयपिटक आदि ग्रन्थोंमे दशशील ग्रहण करनेका आदेश है, जो एक प्रकारसे बौद्धधर्मके मूलगुण है, उनमें से पाँचवा शील इन शब्दों में ग्रहण करना पडता है। 'मै मद्य या किसी भी मादक द्रव्यका सेवन नही करू गा',
ऐसी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org