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लोक
वापीकी चारो दिशाओ में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र नामके चार वन हैं । ( ति प / ५ / ६३० ), ( रा वा / ३/३५ /-/ ११ / २०) (६.५/५/१०९,६०२), (त्रि सा / १०९) इस प्रकार द्वीपकी एक दिशामे १६ और चारों दिशाओमे ६४ वन है । इन सब पर अवतस आदि ६४ देव रहते है । ( रा वा / ३/३५/-/१६६/ ३ ), ( पु / ५ /६८१) । ५ प्रत्येक वापीमे सफेद रंगका एक-एक दधिमुख पर्वत है (ति ५/२/१५), ( रा बा./३/३५/- ११६८१ २५) (६.१०/५/६६६), (त्रि सा / १६७ )। ६. प्रत्येक वापीके बाह्य दोनों कोनोंपर के दो रतिकर पर्वत हैं। ति प / २/६७), (त्रि.सा./१६७) लोक विनिश्चयको अपेक्षा प्रत्येक द्रहके चारो कोनोपर चार रतिकर है। ( ति प / ५ / ६६ ), ( रा वा / ३/२५/- १९३८/३९), (६.५०/५/६०३) जिनमन्दिर केवल बाहरवाले दो रतिकरोंपर ही होते है, अभ्यन्तर रतिकरोंपर देव क्रीडा करते है (रा. मा./३/२५/-/११०/३३७, इस प्रकार एक दिशामे एक अजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर १२ पर्वत है। इनके ऊपर १३ जिनमन्दिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओ में भी पर्वत द्रह, वन व जिन मन्दिर जानना । [ कुल मिलकर ५२ पर्वत, ५२ मन्दिर, १६ वापियों और ६४ वन है ( ति प /५/००७५), (रा.वा./१२/१५/- (११६/१), (हपु./५/६७६ नि. सा / १७३) । ८ अष्टाह्निक पर्व मे सौधर्म आदि इन्द्र व देवगण वडी भक्ति इन मन्दिरोंकी पूजा करते हैं। (सि.
५/०३. १०२). (४.५/२/६८०), (त्रि सा. १०५-१०६)। वहाँ पूर्व दिशामे कल्पवासी, दक्षिणमे भयनवासी पश्चिममे व्यन्तर और उत्तरमे देव पूजा करते है । ( ति प / ५ / १००-१०९ ) ।
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६. कुण्डलवर द्वीप
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१ ग्यारह द्वीप कुण्टलवर नामका है, जिसके बहुमध्य भागमे मानुषोत्तरवत् एक कुम्हार है। ( ति प /२/११०), (ह. ६०६२ तहाँ पुर्यादि प्रत्येक दिशामे पार-चार कूट है। उनके अभ्यन्तर भागमें अर्थाद मनुष्यलोककी तरफ एक-एक सिद्धवरकूट है। इस प्रकार इस पर्वतपर कुल २० कूट है (ति प/५/१२०-१२१) ( रा था. /३/३५/-/१६६/९२+१६) (प्र.सा./६४४) जिनटोके अतिरिक्त प्रत्येकपर अपने-अपने फुटोके नामया देव रहते है। (ति /२/९२६) मतान्तरको अपेक्षा आठो दिशाओ में एक-एक जिनकूट है। (सिप /५/१२८)। ३. लोक की अपेक्षा इस पर्वतको पूर्वादिदिशाओ से प्रत्येक में चार-चार कूट है। पूर्व व पश्चिम दिशावाले कूटोकी अग्रभूमि द्वीपके अधिपति देवो दो कूट है इन दोनो अभ्यन्तर भागो में चारों दिशाओमे
एक-एक जिनकूट है । (ति
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४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
प/ ५ / १३० - १३१), (रा मा २/३६/-१९६६/०), (रु. ५/३/६-६६६८ ) । मतान्तरकी अपेक्षा उनके उत्तर व दक्षिण भागोमे एकएक जिनकूट है ( ति प /५/१४०) (दे० सामनेवाला चित्र)।
० रुचकबर द्वीप
१ तेरहवाँ द्वीप रुचकवर नामका है। उसमे बीचोबीच रुचकवर नामका कुण्डलाकार पर्वत है। ( ति प / ५ / १४१); ( रा वा /३/३५/-/१६६/२२ ); ( ह. पु. / ५ / ६६६ ) २ इस पर्व नपर कुल ४४ कूट है (ति १/२/९४४) पूर्वादि प्रत्येक दिशामे आठ-आठ कूट है जिनपर दिक्कुमारियाँ देवियों रहती है, जो भगवान्के जन्म कल्याणक के अवसर पर माताकी सेवामें उपस्थित रहती है । पूर्वादि दिशाओंवाली आठ-आठ देवियाँ क्रमसे झारी, दर्पण, छत्र चँवर धारण करती है (ति प./५/१४५. १४०-१५६ ( सा./६४०+१) इनके अभ्यन्तर भाग चारो दिशाओमे चार महाकूट है तथा इनकी भी अभ्यन्तर दिशाओमे चार अन्य कूट है । जिनपर दिशाएँ स्वच्छ करने वाली तथा rearer जातकर्म करनेवाली देवियाँ रहती है। इसके अभ्यन्तर भागमे चार सिद्धकुट है ( दे० चित्र स ४०. पू. ४६८ ) । किन्ही आचार्योंके अनुसार विदिशाओंने भी चार सिद्धकूट है । ( ति प /५/१६२-१६६ ), (त्रि सा / १४७, १५८- ६५१ ) । ३. लोक विनिश्चयके दिशाओंमे अनुसार पूर्वादि चार एक-एक करके चार कूट है जिनपर दिग्गजेन्द्र रहते है । इन चारोके अभ्यन्तर भाग में चार दिशाओ में आठ-आठ कूट है जिनपर उपरोक्त माताकी सेवा करनेवाली ३२ दिक्कुमारियाँ रहती है । उनके भौचकी विदिशाओंमें दो-दो करके आठ कूट है, जिनपर भगवाका जातकर्म करनेवाली आठ महतरियाँ रहती है। इनके अभ्यन्तर भागने पुन पूर्वादि विज्ञाओंमें चार फूट है जिनपर दिशाएँ निर्मल करनेवाली देवियों रहती है। इनके बम्यन्तर भाग में चार सिद्धकुट है ( ति प /५/१६०-१०८), 1 (रा.वा./३/३५/१६६ / २४ ), ( ह पु/५/७०४-९२१) । ( दे० चित्र सं. ४९, पृ ४६६ ) ।
८. स्वयम्भूरमण समुद्र
अन्तिम द्वीप स्वयम्भूरमण है। इसके मध्य में कुण्डलाकार स्वयंप्रभ पर्वत है। (ति. १/२/२३०) (६.१/५/०१० ) । इस पर्वत के अभ्यन्तर भाग तक तिर्यंच नहीं होते, पर उसके परभागसे लेकर अन्तिम स्वयम्भूरमण सागर के अन्तिम किनारे तक सब प्रकार तिच पाये जाते है। (२० सियंच/४६) । (दे० चित्र सं. १२० पृ. ४४३ ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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