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प्रत्यक्ष
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यादी/२/३१३-१४/२४-२६ तत्र कतिपयषिर्य विक १३॥ सम्य १. कुछ पदार्थोंको विषय करनेवाला ज्ञानविल पारमार्थिक है ।१३ २ समस्त द्रव्य और उनको समस्य जानेवाले ज्ञानको कल प्रध्यक्ष कहते है। १४) (स भ.
त. / ४७ / १३ ) ।
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०६६६ अयमान समस्या प्रत्यक्ष क्षायिकमिदमातीत सुमतदक्षायिका देश महाधिमनय अवज्ञानम् देशं नोइन्द्रियमनाद प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् । ६६६ १. जा ज्ञान सम्पूर्ण कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होनेवाला साक्षात प्रत्यक्षरूप अतीन्द्रिय तथा क्षायिक सुखरूप है वह यह अविनश्वर सकल प्रत्यक्ष है | ६६८ २. अवधि व मन पर्यय रूप जो ज्ञान है वह देशप्रत्यक्ष है क्योंकि वह केवल अनिन्द्रिय रूप मनसे उत्पन्न होनेके कारण देश तथा अन्य बाह्य पदार्थोंसे निरपेक्ष होनेके कारण प्रत्यक्ष कहलाता है | ६६६ |
६. प्रत्यक्षाभासका लक्षण
प.मु./६/६ वैशद्य े प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्दर्शनाद्वह्नि विज्ञानवत् | ६| प्रत्यक्ष ज्ञानको अविशद स्वीकार करना प्रत्यक्षाभास कहा जाता है। जिस प्रकार बौद्ध द्वारा प्रत्यक्ष रूपसे अभिमत-आकस्मिक धूमदर्शनसे उत्पन्न अग्निका ज्ञान अमिशद होनेसे प्रत्यक्षाभास है।
२. प्रत्यक्ष ज्ञान निर्देश तथा शंका समाधान
१. प्रत्यक्ष ज्ञान में संकल्पादि नहीं होते.
श्लो. वा. ३/२/१२/२०/१८८/२३ संकेतस्मरणोपाया दृष्टसंकल्पनात्मिका । नैषा व्यवसिति स्पष्टा ततो युक्ताश्रजन्मनि | २०| जो कल्पना सकेत ग्रहण और उसके स्मरण आदि उपायोसे उत्पन्न होती है, अथवा दृष्ट पदार्थ में अन्य सम्बन्धियोका या इष्ट-अनिष्टपनेका सकल्प करना रूप है, वह कल्पना श्रुत ज्ञानमे सम्भवती है । प्रत्यक्षमें ऐसी कल्पना नहीं है। हॉ, स्वार्थ निर्णयरूप स्पष्ट कल्पना तो प्रत्यक्षमे है । जिस कारण इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षमें यह कल्पना करना समुचित है।
२. केवलज्ञानको सकल प्रत्यक्ष और अवधिज्ञानको विकल प्रत्यक्ष क्यों कहते हो
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क पा १/१२/११६/ १ कोहिमणपाणिनियल पक्त्राणि अश्येगदेसम्म विसदसरूवेण तेसि पउत्तिदंसणादो। केवल सयलपञ्चवख पञ्चकवीकयतिकाल विसयासेसदव्वपज्जयभावादो। =अवधि व मन. - पर्ययज्ञान विकस प्रत्यक्ष है, क्योंकि पदार्थोंके एकदेशमे अर्था मूर्तीक पदार्थोकी कुछ व्यजन पर्यायोमे स्पष्ट रूपसे उनकी प्रवृत्ति देखी जाती है । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योकि केवलज्ञान त्रिकाल के विषयभूत समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायो की प्रत्यक्ष जानता है । दे०/१५ (परापेक्ष, अक्रम से समस्त द्रव्योको जानता है वह केवलज्ञान है । कुछ ही पदार्थोंको जाननेके कारण अवधि व मन पर्यय ज्ञान विल प्रत्यक्ष है। )
३. सकल व विकल दोनों ही प्रत्यक्ष पारमार्थिक हैं
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या दी /२/१३१६/६७ / १ नम्वस्तु केवलस्य पारमार्थिकअवधिमन ययोस्तु न युक्त विकसत्यादिति चेत् नः साकम्पने कश्योर विषयोपाधिकत्वात् । तथा हि-सर्वद्रव्यपर्यायविषयमिति केवल सकलम् । अवधिमन पर्ययौ तु कतिपयविषयत्वाद्विक्लौ । नैतावता तयो पारमार्थिकत्वच्युति । केवलवत्तयोरपि वैशद्य स्वविषये
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२. प्रत्यक्ष ज्ञान निर्देश तथा शंका समाधान
साकल्येन समस्तीति तावपि पारमार्थिकावेव । प्रश्न- केवलज्ञानको पारमार्थिक कहना ठीक है, परन्तु अवधि व मन पर्ययको पारमार्थिक कहना ठीक नही है । कारण, वे दोनो विकल प्रत्यक्ष है। उत्तर--- नही, सकलपना और विकलपना यहाँ विषयकी अपेक्षासे है, स्वरूपत नही। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-चूँकि केवलज्ञान समस्त इन्त्रो और पर्यायोको विषय करनेवाला है. इसलिए वह सकत प्रत्यक्ष कहा जाता है । परन्तु अवधि और मन. पर्यय कुछ पदार्थोको विषय करते है, इसलिए वे विकल कहे जाते है । लेकिन इतने से उनमें पारमार्थिकी हानि नहीं होती। क्योंकि पारमार्थिकताका कारण सकलार्थविषयता नहीं है-पूर्ण निर्मलता है और वह पूर्ण निर्मलता केवलज्ञानकी तरह अवधि और मन. पर्यय में भी अपने विषय विद्यमान है। इसलिए वे दोनो भी पारमार्थिक है। ४. इन्द्रियोंक बिना भी ज्ञान कैसे सम्भव है
रा. वा./१/१२/४-५/५३/१६ करणात्यये अर्थस्य ग्रहणं न प्राप्नोति, न ह्यकरणस्य कस्यचित् ज्ञानं दृष्टमिति; तन्न, कि कारणम् । दृष्टत्वात् । थम् ईवाय यथा रथस्य कर्ता अमीशः उपकरणापेक्षो रथं करोति स तदा न शतया पुनरीक्ष. तपषायपरिप्र विशेष. सबाह्योपकरणगुणानपेक्षः स्वशक्त्यैव रथं निर्वर्तयन् प्रतीतः, तथा कर्ममलीमस आत्मा क्षायोपशमिकेन्द्रियानिन्द्रियप्रकाशाद्य पकरणापैक्षोऽसति स एव पुन क्षयोपशमविशेषे च सति करणानपेक्षः स्वकावा वैशि को विरोध. 181 ज्ञानदर्शनस्वभावत्वाच्च भास्करादिवत् ॥५। प्रश्न- इन्द्रिय और मन रूप बाह्य और अभ्यन्तर करणोके बिना ज्ञानका उत्पन्न होना ही असम्भव है। बिना करणके तो कार्य होता ही नही है। उत्तर- १. असमर्थ के लिए बसूला करीत आदि बाह्य साधनोकी आवश्यकता होती है । जैसे- रथ बनानेवाला साधारण रथकार उपकरणोसे रथ बनाता है किन्तु समर्थ तपस्वी अपने ऋद्धि बलले बाह्य वसूला आदि उपकरणोके बिना संकल्प मात्रसे रथको बना सकता है । उसी तरह कर्ममलीमस आत्मा साधारणतया इन्द्रिय और मनके बिना नहीं जान सकता पर वही आत्मा जब ज्ञानावरणका विशेष क्षयोपशम रूप शक्तिवाला हो जाता है, या ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय कर देता है, तब उसे बाह्य उपकरण के बिना भी ज्ञान हो जाता है ।४। २. आत्मा तो सूर्य आदिकी तरह स्वयंप्रकाशी है, इसे प्रकाशन में परकी अपेक्षा नही होती। आत्मा विशिष्ट क्षयोपशम होनेपर या आवरण क्षय होनेपर स्वशक्तिसे ही पदार्थोंको जानता है । ५॥
प. २/१.१.२२/९६८/४ नामच्या दिज्ञामारकमपेक्षते केवलमिति चेन्न क्षायिकक्षायोपशमिकयो साधम्र्म्याभावाय प्रश्न जिस प्रकार मति आदि ज्ञान, स्वय ज्ञान होनेसे अपनी उत्पत्तिमे कारककी अपेक्षा रखते है, उसी प्रकार केवलज्ञान भी ज्ञान है, अतएव उसे भी अपनी उत्पत्तिमे कारककी अपेक्षा रखना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञानमें साधर्म्य नहीं पाया जाता ।
घ. ७/२,१,१७/६६/४ णाणसहकारिकारणइ दियाणामभावे कथं णाणस्स अत्थित्तमिदि चे ण, णाणसहाव मोग्गल दव्वाणुपण्णउप्पाद-व्यअदव्यस्स विवासाभावा । ण व एक्कं कज्जं एक्कादो चैव कारणदो सव्वत्थ उत्पज्जदि ३दियाणि खीणावरणे भिंष्णजादीए पुष्पत्तिम्हि सहकारिकारणं होति ति नियमो अइम्पसंगादी, अण्णहा मोक्खाभावप्प संगा । तम्हा अणिदिएस करणव्यवहणादिदं णाणमत्थितम् वा च तपिकारण अपट्टस णिहाणेण तदुप्पत्तीदो ! - प्रश्न- ज्ञानके सहकारी कारणभूत इन्द्रियो के अभाव मे ज्ञानका अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है। उत्तर- नहीं, क्योकि ज्ञान स्वभाव और पुद्गल द्रव्य से अनुत्पन्न, तथा उत्पाद, व्यय एव धौव्यसे उपलक्षित जीव द्रव्यका विनाश न
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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