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प्रत्यक्ष
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१. भेद व लक्षण
समूहमे एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान केवल आत्माके द्वारा ही उत्पन्न होता है, इसलिए प्रत्यक्षके रूपमे माना जाता है।
२. विशद शानके अर्थमें न्या. वि./मू./१/३/१०/१५ प्रत्यक्षलक्षण प्राहु स्पष्ट साकारमजसा। द्रव्यपर्यायसामान्य विशेषात्मवेदनम् ।३। -स्पष्ट और स विकल्प तथा व्यभिचार आदि दोष रहित होकर सामान्य रूप द्रव्य और विशेष रूप पर्याय अर्थोंको तथा अपने स्वरूपको जानना ही प्रत्यक्षका लक्षण है ।३। (श्लो. वा./३/१/१२/४.१७/१७४.१८६)। सि. वि./मू /१/१६/७८/१६ प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं । -विशद ज्ञान ( प्रति
भास ) को प्रत्यक्ष कहते है । (प. मु/२/३) (न्या. दी./२/११/२३/४) स. भ..त./४७/१० प्रत्यक्षस्य वैशद्य' स्वरूपम् । -वैशद्य अर्थात निर्मलता वा स्वच्छता पूर्वक स्पष्ट रीतिसे भासना प्रत्यक्ष ज्ञानका स्वरूप है।
३. परापेक्ष रहितके अर्थमें रा. बा /१/१२/१/१३/४ इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतोतव्यभिचार साकारग्रहणं प्रत्यक्षम् ।। -इन्द्रिय और मनको अपेक्षाके बिना व्यभिचार रहित जो साकार ग्रहण होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते है । (त, सा,/१/ १७/१४)। प.ध./पू./६६६ असहायं प्रत्यक्षं .६६६। -असहाय ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते है। २. प्रत्यक्ष ज्ञान के भेद १. सांव्यवहारिक व पारमाथिक स्या म /२८/३२१/६ प्रत्यक्ष द्विधा-साव्यवहारिक पारमार्थिक च। -
साव्यवहारिक और पारमार्थिक ये प्रत्यक्षके दो भेद है। (न्या. दी, (२/६२९/३१/६)।
२. देवी, पदार्थ व आत्म प्रत्यक्ष न्या. वि./टी./९/३/११/२५ प्रत्यक्ष त्रिविध देवै दीप्यतामुपपादितम् । द्रव्यपर्यायसामान्य विशेषात्मवेदनम् ।३६० - प्रत्यक्ष तीन प्रकारका होता है--१ देवो द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान, द्रव्य व पर्यायोको अथवा सामान्य व विशेष पदार्थोको जानने वाला ज्ञान तथा आत्माको प्रत्यक्ष करनेवाला स्वसंवेदन ज्ञान ।
स्था. म/२८/३२१/८ तद्विविधम् क्षायोपशमिकं क्षायिक च । वह (पारमार्थिक प्रत्यक्ष) क्षायोपशमिक और क्षायिकके भेदसे दो प्रकारका है।
३. सकल और विकल प्रत्यक्षके भेद ससि /१/२०/१२५/२ देशप्रत्यक्षमवधिमन पर्ययज्ञाने । सर्वप्रत्यक्ष केवलम् । प्रदेश प्रत्यक्ष अवधि और मन पर्यय ज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है। सर्व प्रत्यक्ष केवलज्ञान है । ( वह एक ही प्रकारका होता है।) (रा. वा/१/२१/७८/२६ की उत्थानिका) (ध.१/४,१,४५/१४२-१४३/ ७) (न. च. वृ./१७१), (नि, सा/ता, वृ./१२)-(त.प./१३/४७), (स्या, म./२/३२१/8 ), (द्र.सं./टी./५/१५/१ ) (पं.ध./पू./६६६) ।
४. सांव्यवहारिक व पारमार्थिक प्रत्यक्षके लक्षण प. मु./२/५ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशत: सांव्यवहारिकं । जो ज्ञान स्पर्शनादि इन्द्रिय और मनको सहायतासे होता हो उसे साव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते है। स्या. म./२८/३२१/८ पारमार्थिक पुनरुत्पत्तौ आत्ममात्रापेक्षम् । पार
मार्थिक प्रत्यक्षकी उत्पत्तिमें केवल आत्मा मात्रकी सहायता रहती है। द्र. स./टी./५/१५/६ समीचीनो व्यवहारः सव्यवहार' । प्रवृत्तिनिवृत्ति
लक्षण' सव्यवहारो भण्यते । सव्यवहारे भव साव्यवहारिक प्रत्यक्षम् । यथा घटरूपमिदं मया दृष्टमित्यादि । समीचीन अर्थात् जो ठीक व्यवहार है वह संव्यवहार कहलाता है; संव्यवहारका लक्षण प्रवृत्ति निवृत्तिरूप है। संव्यवहारमें जो हो सो साव्यवहारिक प्रत्यक्ष है।
जैसे घटका रूप मैने देखा इत्यादि। न्या.दी./२/६११-१३/३१-३४/७ यज्ज्ञानं देशतो विशदमीषन्निर्मलं तत्साव्यवहारिकप्रत्यक्षमित्यर्थ. ११। लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धस्वारसांव्यवहारिकप्रत्यक्षमुच्यते। । इदं चामुख्यप्रत्यक्षम, उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात ।१२। सर्वतो विशद पारमाथिकप्रत्यक्षम् । यज्ज्ञानं साकल्येन स्पष्ट तत्पारमार्थिकप्रत्यक्ष मुख्यप्रत्यक्षमिति यावत् ।१३। -१ जो ज्ञान एक देश स्पष्ट, कुछ निर्मल है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है।११। यह ज्ञान लोक व्यवहार में प्रत्यक्षप्रसिद्ध है, इसलिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। यह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौणरूपसे प्रत्यक्ष है, क्योकि उपचारसे सिद्ध होता है। वास्तवमे परोक्ष ही है, क्योकि मतिज्ञान है ।१२। २ सम्पूर्ण रूपसे प्रत्यक्ष ज्ञानको पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते है। जो ज्ञान सम्पूर्ण प्रकारसे निर्मल है, वह पारमाथिक प्रत्यक्ष है । उसीको मुख्य प्रत्यक्ष कहते है।
५. देश व सकल प्रत्यक्षके लक्षण ध १/४,१,४५/१४२/७ सक्लप्रत्यक्ष केवलज्ञानम्, विषयीकृतत्रिकालगोचराशेषार्थत्वात् अतीन्द्रियस्वाद अक्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानाव आत्मार्थ सनिधानमात्रप्रवर्तनात् । अवधिमन पर्ययज्ञाने विकलप्रत्यक्षम, तत्र साकल्येन प्रत्यक्षलक्षणाभावात् । -१ केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योकि, वह त्रिकालविषयक समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला, अतीन्द्रिय, अक्रमवृत्ति, व्यवधानसे रहित और आत्मा एवं पदार्थकी समीपता मात्रसे प्रवृत्त होनेवाला है । ( ज प/१३/४६) २ अवधि और मन पर्यय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष है, क्योकि उनमें राकल प्रत्यक्षका लक्षण नही पाया जाता (यह ज्ञान विनश्वर है । तथा मूर्त पदार्थोमे भी इसकी पूर्ण प्रवृत्ति नही देखी जाती। (क पा. १/१,१/ ६१६/१)। ज, प./१३/५० दवे खेत्ते काले भावे जो परिमिदो दु अवबोधो। बहुविधभेदपभिण्णो सो होदि य वियलपच्चरखो ।५०जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमे परिमित तथा बहुत प्रकारके भेद प्रभेदोसे युक्त है वह विकल प्रत्यक्ष है।
३. प्रत्यक्ष ज्ञानके उत्तर भेद १. साव्यवहारिक प्रत्यक्षके भेद प्या, म./२८/३२१/६ साव्यवहारिक द्विविधम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्त-
भेदात। तद् द्वितयम् अवग्रहहाबायधारणाभेदाइ एकैकशश्चतुर्वि. कल्पम् । = साव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मनसे पैदा होता है। इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले उस साव्यवहारिक प्रत्यक्षके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा चार चार भेद है। (न्या. दी./२/ ६११-१२/३१-३३)।
२. पारमार्थिक प्रत्यक्षके भेद R. सि /१/२०/१२/६ तद् द्वेधा-देशप्रत्यक्ष सर्व प्रत्यक्ष च। वह प्रत्यक्ष ( पारमार्थिक प्रत्यक्ष ) दो प्रकारका है-देश प्रत्यक्ष और सर्व प्रत्यक्ष । (रा. वा/१/२१ उत्थानिका 10८/२५) (ज, प./१३/४६) (द्र, स./टी./५/१५/१), (प. धम् 14६७)। ध.१/४,१,४५/१४२/६ तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं, सकलविकल प्रत्यक्षभेदात ।
--प्रत्यक्ष सकल प्रत्यक्ष व विकल प्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकारका है। (न्या दी/२/8१३/३४/१०)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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