________________
मोक्ष
फल आदिका पतन देखा जाता है। परन्तु मुक्त जीवके न तो आस्रव है और न ही गुरुत्व है ।। यदि मात्र स्थानवाले होनेसे पतन होवे तो आकाश आदि सभी पदार्थोंका पतन हो जाना चाहिए, क्योकि, स्थानवत्त्वकी अपेक्षा सब समान है । २, दूसरी बात यह भी है कि जैसे बीजके पूर्णतया जल जानेपर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मबीजके दग्ध हो जानेपर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। (त. सा. / ८ /७); ( स्या. म. / २६/३२८/२८ पर उद्धृत ) ।
ध. ४/१५,३१०/४७७/५ ण च ते संसारे णिवदति णट्ठासवत्तादो । ३. कोंके नट हो जानेसे ने ससारमें पुन. सौटकर नहीं जाते। मो.सा./ अधिकार / श्लोक-न निवृत सुखीभवत पुनरायाति संसृति । सुई हि पदं हिला दुखद प्रपद्यते। (०/१८) युज्यते रजसा नारमा भूयोऽपि विरजीकृत पृथकृत कुछ स्पर्श पुन फीटेन युज्यते । (१-५३) । ४, जो आत्मा मोक्ष अवस्थाको प्राप्त होकर निराकुलतामय सुखका अनुभव कर चुका वह पुनः ससारमें लौटकर नहीं आता, क्योंकि, ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष होगा जो सुखदायी स्थानको छोड़कर दुखदायी स्थानमें आकर रहेगा। ( १८ ) ५. जिस प्रकार एक बार कोटसे नियुक्त किया गया स्वर्ण पुनः कीट युक्त नहीं होता है उसी प्रकार जो आत्मा एक बार कर्मोंसे रहित ही चुका है, वह पुन कर्मोंसे संयुक्त नहीं होता १५३३
दे० मोक्ष /६/५.६ ६. पुनरागमनका अभाव माननेसे मोक्षस्थानमें जीवोकी भीड हो जावेगी अथवा यह ससार जीवोसे रिक्त हो जायेगा ऐसी आशकाओको भी यहाँ स्थान नही है ।
५. जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोदसे निकलते हैं
मो. जी./जी.अ./११७ / ४४१ / १५ कदाचिदसमयाधिकमासाभ्यन्तरे राशि निर्गतेषु अष्टोत्तरपट्ातणीवेषु मुतिगतेषु सानोजीमा पिनिगोदभवं व्यवस्था चतुर्गतिमवाप्नुवन्तीयमर्थ - कदाचित आठ समय अधिक वह मासमे चतुर्गति जीवराशि से निकलकर १०० जीव मोक्ष जाते है और उसने ही जीव (उतने ही समय मे ) निश्य निगोह भयको छोडकर चतुर्गतिरूप भगको प्राप्त होते हैं। बोर भी दे० मोक्ष/४/१९ ) ।
।
दे० मार्गणा (राम मार्गणा व गुणस्थानोगे आयके अनुसार ही व्यथ होनेका नियम है)।
स्या. मं / २६ / ३३१ / १३ पर उद्धृत - सिज्झन्ति जत्तिया खलु इह सववहारजीवरासीको ऐति अणाइयस्सर रासीओ ततिक्षा सम्म |२॥ इति वचनाद्व । यावन्तश्च यतो मुक्ति गच्छन्ति जीवास्तावन्तोऽनादि निगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छन्ति । जितने जीव व्यवहार राहिसे निकलकर मोक्ष जाते है, उतने ही अनादि वनस्पतिराशिसे निकलकर व्यवहार राशिमें आ जाते है ।
-
३२५
३. सिद्धोंके गुण व भाव आदि
प. प्र./टी./१/२५/३० / ९ तदेव मुक्त भीमस्ट स्वात्मस्वरूपमुपादेय मिति भावार्थ । = वह मुक्त जीव सदृश स्वशुद्वात्मस्वरूप कारणसमयसार ही उपादेय है, ऐसा भावार्थ है ।
६. जीव मुक्त हो गया है इसके चिह्न
दे० सल्लेखना /६/३/४ ( क्षपकके मृत शरीरका मस्तक व दन्तपंक्ति यदि पक्षिगण ले जाकर पर्वत के शिखरपर डाल दे तो इस परसे यह बात રૂ. जानी जाती है कि वह जीव मुक्त हो गया है । )
७. सिद्धोंको जाननेका प्रयोजन
प.प्र./९/२६ जड भिम्मलु णाणमत सिद्धिर्हिसि देउ तेहउ विसइ बंभु पर देहहं म करि भेउ । २६ । - जैसा कार्यसमयसार स्वरूप निर्मल ज्ञानमयी देव सिद्धलोकमे रहते है, वैसा ही कारणसमयसार स्वरूप परब्रह्म शरीर में निवास करता है । अत हे प्रभाकर
भट्ट तू सिद्ध भगवान् और अपनेमे भेद मत कर ।
1
Jain Education International
३. सिद्धोंके गुण व भाव आदि
१. सिद्धोंके आठ प्रसिद्ध गुणका नाम निर्देश
लघु सिद्धभक्ति सम्मान सीरियस हे अवग अगुरुलघुव्यावा बहुगुणा हाँति सिद्धाणं -सायिक सम्य अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व, ये सिद्धोके आठ गुण वर्णन किये गये है । (वसु. श्रा /५३७ ); (द्र. स. / टी / १४ / ४२ / २ पर उद्धृत ); ( प. प्र. / टी / १/६१/६२/८ पर उधृत ) (५ / ६१०-६१०), (विशेष देखो आगे शीर्षक नं. १३) ।
२. सिद्धों में अन्य गुणका निर्देश
भ.आ./मू / २१५७/१८४७ अकसायमवेदत्तमकारकदा विदेहदा चेव । अचलत्तमलेपतं चहुंति अच्चतियाई से | २१५७ = - अकषायत्व, अदरख, अकारकस्म, देहराहित्य, अचलल अपत्य ये सिद्धो के आत्यंतिक गुण होते है . १३/५.४.२६/ २९/७०)।
घ. ७/२.१,७/गा. ४-११/१४-१५ का भावार्थ - ( अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अकषायत्व रूप चारित्र, जन्ममरण रहितता (अवगाहनत्व ), अशरीरत्व ( सूक्ष्मत्व ), नीच ऊँच रहितता ( अगुरुलघुत्व ), पंचक्षायिक लब्धि ( अर्थात् - क्षायिकदान, क्षायिकतामायिकभोग क्षाविपभोग और क्षायिकवीर्य ) ये गुण सिद्धोंमें आठ कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हो जाते हैं ।४-११ । (विशेष दे० आगे शीर्षक नं. ३)
घ १३५.४.२६ / श्लो १०/६१ पत क्षेत्राचैव कामतो भारतस्तथा । सिद्धामगुणसंयुक्ता गुणा द्वादशमा स्मृता |३०| - सिद्धोके उपरोक्त गुणों में (दे० शीर्षक नं. १) द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावकी अपेक्षा चार गुण मिलानेपर बारह गुण माने गये है ।
टी/१४/४२ / ६ इति मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विशेषभेदनयेन निर्गतित्वं निरिन्द्रियत्वं निष्कायत्व, निर्योगत्व, निर्वेदत्वं, निष्कषायत्वं, निर्नामत्वं निर्गोत्वं, निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तथैवास्तित्ववस्तुप्रमेयत्वादिसामान्यगुणः स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या । = इस प्रकार सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्योंके लिए है मध्यम रुचिवा शिष्य के प्रति विशेष भेदन मनसे गतिरहितता, इद्रिपर हितता, शरीररहितता योगरहितता, वेदरहिराता रहता. नामरहितता, गोत्ररहिता था बापुरहिता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व अस्तुत्व प्रमेयत्वादि सामान्यगुण, इस तरह जैनागमके अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए।
३. उपरोक्त गुणोंके अवरोधक कर्मोंका निर्देश
प्रमाण - १ (प्र. सामू ६०) २ ( ७/२.१०/गा. ४-११/१४) । गोजी/जी/ ०/९०८ पर उधृत दो गाथाएँ) ४. (रा. सा /-/ ३०-४० ) ( सा / ११-८१३) (प्र./टी./१२/११/६२/ १६) ५ (प्र.सा./त.प्र./१६ (वि /८/६ ): ७ (पं. भव. / १९१४) संकेत विशेष देखो नीचे इन संदर्भोंकी व्याख्या ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
1
-
www.jainelibrary.org