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मोक्ष
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ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है । ६५६। यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्रके सदृश (या ऊँचे कटोरे सशत्र सा./२२८) आकारसे सुन्दर और ४५००,००० योजन ( मनुष्य क्षेत्र ) प्रमाण विस्तारसे संयुक्त है । ६५७॥ उसका मध्य बाहय ( मोटाई) आठ योजन है और उसके आगे घटते घटते अन्तमें एक अंगुलमात्र । अष्टम भूमिमें स्थित सिद्धक्षेत्रकी परिधि मनुष्य क्षेत्रकी परिधि समान है. पू./६/१९६१३२) (/११/२६-३६१) त्रि. सा./५२६-३३), (स. सा./ u/०६६)।
ति./१/३-४ अमखिदीर उदार फणसम्म हियत यहस्सा दंडाि गणं सिद्धाणं होदि आवासो || पदोपहगिअरुणहचउग परमो बहुहिरा गया सिद्धाण जिवास खिदि याणं |४| = उस ( उपरोक्त ) आठवीं पृथिवी के ऊपर ७०५० धनुष जाकर सिद्धों का आवास है | ३| उस सिद्धों के आवास क्षेत्रका प्रमाण ( क्षेत्रफल ) ८४०४७४०८१५६२५
योजन है ।
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२. मोक्ष व मुक्तजीव निर्देश
१. अर्हन्त व सिद्धमें कथंचित् भेदाभेद
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ध. १ / १,१.१/४६/२ सिद्धानामहतां च को भेद इति चेन्न, नष्टानष्टकर्माण सिद्धा' नष्टघातिकर्माणोऽर्हन्त इति तयोर्भेदः । नष्टेषु घातिकर्मस्वाविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न गुणकृतासयोर्भेद इति चेन्न अपाखि कर्मोदय तानि शुध्यानाग्निना दग्धाय पि न स्वकार्यकर्तृणीति चेन्न, पिण्डनिपाताभावान्यथानुपपतित्तः आयुष्याविशेषकर्मोदयास्तित्वसिद्धे तत्कार्यस्य चतुरशीक्षियो न्यात्मकस्य जातिजरामरणोपलक्षितस्य ससारस्यासत्त्वात्ते पामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच्च न तयोर्गुणकृतो भेद इति चेन्न, आयुष्यवेदनीययोगमनप्रतिबन्धयो सत्त्वात् । नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाश गाव मुखमपि न गुणस्तत एव । न वेदनीयोदयो दु खजनक केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् । किंतु सले पनि पत्वाम्यां देशभेदाच तयोर्भेद इति सिद्धम्। प्रश्न सिद्ध और बर्हन्तों में क्या भेद है। उत्तर-आठ कर्मोंको नष्ट करनेवाले सिद्ध होते है, और चार घातिया कर्मोंको नष्ट करनेवाले अरिहन्त होते है । यही दोनोंमें भेद है । प्रश्न- चार घातिया कर्मोके नष्ट हो जानेपर अरिहन्तोंकी आत्मा के समस्त गुण प्रगट हो जाते है, इसलिए सिद्ध और अरिहन्त परमेष्ठी में गुणकृत भेद नही हो सकता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, अरिहन्तीके अघातिया कर्मोंका उदय और सत्त्व दोनों पाये जाते है, अतएव इन दोनो परमेष्ठियोंमे गुणकृत भेद भी है। प्रश्न
अवातिया कर्म शुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा अधजले से हो जाने के कारण उदय और सत्वरूपसे विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं है। उत्तर-ऐसा भी नहीं है, क्योकि, शरीर के पतनका अभाव अन्यथा सिद्ध नही होता है, इसलिए अरिहन्तो के आयु आदि शेष कर्मोंके उदय और सत्त्वकी ( अर्थात् उनके कार्यकी ) सिद्धि हो जाती है । प्रश्न- कमका कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप जन्म, जरा और मरणसे युक्त संसार है । वह, अघातिया कर्मो के रहनेपर अरिहन्त परमेष्ठी के नहीं पाया जाता है। तथा अघातिया कर्म, आत्मा के अनुजीवी गुणोके पाठ करनेमे समर्थ भी नहीं है। इसलिए अरिहन्त और सिद्ध परमेष्ठीमे गुणकृत भेद मानना ठोक नहीं है ? उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योकि जीवके ऊर्ध्वगमन स्वभावका प्रतिमन्धक आयुकर्मका उदय और सुखगुणका प्रतिबन्धक नीय कर्म का उदय अरिहन्तोके पाया जाता है, इसलिए अरिहन्त और सिद्धो में गुणकृत भेद मानना ही चाहिए। प्रश्न -- ऊर्ध्वगमन आत्मा
२. मोक्ष व मुक्तजीव निर्देश
का गुण नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर उसके अभाव में आत्माका भी अभाव मानना पड़ेगा। इसी कारणसे सुख भी आत्माका गुण नहीं है। दूसरे वेदनीय कर्मका उदय दुःखको भी उत्पन्न नहीं करता है, अन्यथा केवली भगवान्के केवलीपना मन नहीं सकता उत्तर-यदि ऐसा है तो रहो. अर्थात् यदि उन दोनों में गुणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होओ, क्योंकि वह न्यायसंगत है। फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा और देश भेदकी अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है ।
२. वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष है
पप्र. / टी / २/४/११७/१३ जिना कर्तार ब्रजन्ति गच्छन्ति । कुत्र गच्छन्ति । परलोकशब्दवाच्ये परमात्मध्याने न तु कायमोक्षे चेति । = जिनेन्द्र भगवान् परलोक्में जाते है अर्थात् 'परलोक' इस शब्द के वाच्यभूत परमात्मध्यानमें जाते है, कायके मोक्षरूप परलोकमें नही ।
३. मुक्त जीव निश्चय से स्वमें ही रहते हैं; सिद्धालय में रहना व्यवहारसे है
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नि. सा / ता वृ./१७६ / क २६४ लोकस्याग्रे व्यवहरणत: संस्थितो देवदेव स्वात्मन्युविता निश्चयेने मारते २६४ - देवाधि देव उमहारसे लोकके अपने स्थित है. और निश्चयसे निज आत्मामें ज्योके त्यो अत्यन्त अविचल रूपसे रहते हैं।
४. अपुनरागमन सम्बन्धी शंका-समाधान प्रसा/१७ भगविहीणो य भयो सभवपरिवजिदो विशासो हि। | १७| = उस सिद्ध भगवान्के विनाश रहित तो उत्पाद है और उत्पाद रहित बनाया है विशेष उत्पाद/
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रा. वा /१०/४/४-८/६४२-२७ बन्धस्याव्यवस्था अश्वादिवदिति चेत ; न; मिथ्यादर्शनाद्यच्छेदे कार्यकारणनिवृत्ते |४| पुनर्वन्धप्रसंगी जानत पश्यतश्च कारुण्यादिति चेत्, न, सर्वास्रवपरिक्षयात् ॥५॥
भक्तिस्नेह कृपास्पृहादीनां रागविकल्पत्वाद्वीतरागे न ते सन्तीति । अकस्मादिति चेत् अनिर्मोन ॥६॥ मुक्तिप्राप्त्यनन्तरमेव बन्धोपपत्ते' | स्थानवत्वात्पात इति चेत्; न; अनासवत्वात् ॥७॥
आस्रवतो हि पानपात्रस्याध पतनं दृश्यते, न चाखवो मुक्तस्यास्ति | गौरवाभावाच्च • यस्य हि स्थानवत्वं पातकारणं तस्य सर्वेषां पदार्थानां पात स्यात् स्थानवत्त्वाविशेषात् । रा. बा/१०/२/३/६४५/६ पर उदये बोजे यथाऽपतं प्रादुर्भवति नाङ्कुर । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुर । प्रश्न१ जैसे घोडा एक बन्धन से छूटकर भी फिर दूसरे बन्धन से बँध जाता है, उस तरह जीव भी एक बार मुक्त होनेके पश्चात् पून बँध जायेगा ! उत्तर - नहीं, क्योंकि, उसके मिथ्यादर्शनादि कारणोंका उच्छेद होनेसे वचनरूप कार्यका सर्वथा अभाव हो जाता है |४| प्रश्नसमस्त जगत्को जानते व देखते रहनेसे उनको करुणा भक्ति आदि उत्पन्न हो जायेंगे, जिसके कारण उनको बन्धका प्रसंग प्राप्त होता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, समस्त आखत्रोंका परिक्षय हो जाने से उनको भक्ति स्नेह कृपा और स्पृहा आदि जागृत नही होते है । वे वीतराग है, इसलिए जगतके सम्पूर्ण प्राणियोको देखते हुए भी उनको करुणा आदि नही होती है ।। प्रश्न- अकस्मात ही यदि बन्ध हो जाये तो ? उत्तर- तब तो किसी जीवको कभी मोक्ष ही नहीं हो सकती, क्योंकि तब तो मुक्ति हो जानेके पश्चात् भी उसे निष्कारण ही बध हो जायेगा । ६। प्रश्न- स्थानवाले होनेसे उनका पतन हो जायेगा ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, उनके आस्रवोका अभाव है। आसवाले ही पानपात्रका अथवा गुरुत्व (भार) युक्त ही ताड़
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