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वीतशोक
वीतशोक- - १. एक ग्रह - दे. ग्रह । २ विजयार्धको उत्तर श्रेणीका
एक नगर -- दे. विद्याधर ।
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वीतशोका- १. अपर बिदेहके सरित क्षेत्रकी प्रधान नगरी-दे, लोक / २२. नन्दीश्वर द्वीपको दक्षिण दिशामे स्थित एक नापी०४/२/१९ वीर१. नि. /सा./ता.वृ./१ बोरो विक्रान्त वीरयते शूरयते विक्रा मति कर्मारातीन् विजयत इति वीर श्री वर्द्धमान-सन्मतिनाथ - महतिमहावीराभिधाने सनाथ परमेश्वरो महादेवाधिदेव पश्चिमसोनाथ वीर अर्थादि विक्रान्त (पराक्रमी), मीरता प्रगट करे, शौर्य प्रगट करे, विक्रम (पराक्रम) दर्शाये, कर्म शत्रुओपर विजय प्राप्त करे, वह 'वोर' है । ऐसे वीरको जो कि श्री वर्द्धमान, श्री सन्मतिनाथ, श्री अतिवीर तथा श्री महावीर इन नामोसे युक्त है. जो परमेश्वर है, महादेवाधिदेव है तथा अन्तिम तोर्थनाथ है ।-(विशेष महामौर २ म. पू. /सर्ग/रो अपर नाम गुज
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था । ( ४७/३७५ ) । पूर्व भव नं. ६ मे नागदत्त नामका एक वणिकपुत्र था । (८/२३१) । पूर्व भव न. ५ में वानर ( ८ / २३३ ) । पूर्व भव न. ४ मे उत्तरकुरुमे मनुष्य (६/१०) पूर्वभय न. ३ मे ऐशान स्वर्ग मे देव १०७) पूर्वभवनं २ में रविमेव राजाका पुत्र चित्रा (१०/१९५१) | पूर्वभव न. १ में अच्युत स्वर्गका इन्द्र ( १० / १७२ ) अथवा जयन्त स्वर्ग मे अहमिन्द्र ( ११ / १०, १६० ) । वर्तमान भवमे वीर हुआ (१६/३) [ युगपत् सर्वभव दे . ५/४०/२०४३७५] भरत चक्रवर्तीका छोटा भाई था ( १६ / ३ ) । भरत द्वारा राज्य माँगनेवर दीक्षा धारण कर सी (३४२/९२६) भरतको के पाव भगवान् ऋषभदेव के गुणसेन नामक गणधर हुए (४०/३७५)। अन्तमे मोक्ष सिधारे ( ४७ / ३६६ ) । ३ विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक नगर - दे, विद्याधर । ४ सौधर्म स्वर्गका वाँ पटल - दे स्वर्ग /५/३ ।
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वीरचंद्र १ नागसेन (ई. १०४७) के शिक्षा गुरु । समय तदनुसार ईश ११ पूर्व । (दे, नागसेन । २ नन्दिसघ बलात्कार गण की सूरत शाखा में लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य । कृतिये-वीर विलास फाग, जम्बू स्वामी लि. जिनान्तर सीमन्धर स्वामी गीत इत्यादि काव्य । समय-वि १६६६ १४८५ (वे इतिहास /०/४). (ती./३/२७४)।
वीर जयंतीव्रत भगवान् वीरकी जन्म तिथिको अर्थात् चैत्र शु. १३ को उपवास करे। 'ओ हो श्री महावीराय नमः ' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे ।
वीरनंदि -१ नन्दिसघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप वसुनन्दिके शिष्य तथा रत्ननन्दिके गुरु थे । समय - विक्रम शक ४३१-६६१ ०१-६२१) - ( दे इतिहास / ०/ २) २ नन्दि संघ देशीयगण के अनुसार आप पहले मेघ के शिष्य थे और पीछे विशेष अध्ययन के लिए अभयनन्दि की शाखा में आ गए थे इन्द्रनन्दि तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के सहधर्मा थे, परन्तु ज्येष्ठ होने के कारण आपको नेमिचन्द्र गुरु तुल्य मानते है । कृतिये - चन्द्रप्रभ चरित्र (महाकाव्य), शिल्पसंहिता, आचारसार । समय - नेमिचन्द के अनुसार ई १५०-६६६ । (दे इतिहास / ७/५), (तो / ३ / ५३-५५) । ३. नन्दिसंघ देशीयगण की गुणनन्द शाखा के अनुसार आप दाम नन्दि के शिष्य तथा श्रीधर के गुरु थे। समयवि. १०२५-१०५५ (ई. १६८-६६८) । (दे इतिहास / ७ / ५) । ४. नन्दिसघ देशीयगण के अनुसार आप मेघचन्द्र त्रैविद्य देव के शिष्य है । कृति - आचारसार तथा उसकी कन्नड़ टीका । समय- मेघचन्द्र के
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वीर्य
समाधिकाल (शक १०३७ ) के अनुसार ई. श. १२ का मध्य । (ती / ३ / २७१) ।
वीरनिर्वाण संवत् इतिहास / २२.१०
(विशेष दे कोश १/ परिशिष्ट / १ ९) । वीर मातंडी - वामुण्डराय ( ई. श १०-११ ) द्वारा रचित गोमट्टसारको कन्नड वृत्ति | वीरवित
पुन्नाटसबकी गुर्वावली के अनुसार आप सिह्ननके शिष्य तथा पद्मसेनके गुरु थे-दे इतिहास / ७/८ ।
वीर शासन दिवस दे. महावीर
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वीर शासन जयंतीव्रत भगवान् बीरकी दिव्यध्वनिकी प्रथम तिथि श्रावण कृ. १ को उपवास करे । 'ओ ही श्री महावीराय नम इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत विधान सग्रह / पृ १०४ ) वीरसागर - बम्बई प्रान्तके वीर ग्राम निवासी एक खण्डेलवाल जैन थे। पिताका नाम रामदास था। श्री शान्तिसागर के शिष्य तथा १६८१ आ. शिवसागर के गुरु थे। आश्विन शु. ११ मि. को दक्षिस हुए। अपने अन्तिम दो वर्षों में आचार्य पदपर आसीन रहे । समयवि. १९८१-२०१४ ( ई १६२४-१६५७ )
के अन्वय
१. पचस्तूप सघ
वीरसेनमें आप आर्यनन्दि के शिष्य और जिनसेन के गुरु थे। चित्रकूट निवासी ऐलाचार्य के निकट सिद्धान्त शास्त्रों का अध्ययन करके आप बाटग्राम (बडौदा ) आ गए। वहा के जिनालय में षटखण्डागम तथा कषायपाहुड की आ arपदेव कृत व्याख्या देखी जिससे प्रेरित होकर आपने इन दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर धक्ला तथा जयघवला नाम की विस्तृत टीकाये लिखी। इनमें से जयधवला की टीका इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने ई. ८३७ में पूरी की थी। धवला की पूर्ति के विषय में मतभेद है। कोई ई. ८९६ में और कोई ई. ७८१ में मानते है । हरिवश पुराण में पुन्नाटसघीय जिनषेण द्वारा जयधवलाकार जिनसेन का नामोल्लेख प्राप्त होने से यह बात निश्चित है कि शक ७०३ (ई. ७८१) में उनकी विद्यमानता अवश्य थी। (दे, कोष २ में परिशिष्ट १) पुन्नाट संथ को गुर्वावली के साथ इसकी तुलना करने पर हम वीरसेन स्वामी को शक ६६०-७०४१ (ई ७७० - ८२७) में स्थापित कर सकते है /१/२४५ (ती./२/२२४) २. माधुर
की गुर्वावली के अनुसार आप रामसेन के शिष्य और देवसेन के गुरु थे । समय - वि. ६५० - ६८० (ई ८८३-१२३) । (दे इतिहास / ७ /११) । ३ लाडवागड गच्छ का गुर्वावली के अनुसार आप ब्रह्ममेन के शिष्य और गुणसेन के गुरु थे। समय- वि. १९०५ (ई. १०४८) । (दे. इतिहास / ७ /१० ) । वीरसेन - *ह पु / ४३ / श्लो. न - वटपुर नगर का राजा था | १६३। राजा मनु द्वारा स्त्रीवा अपहरण हो जाने पर पागल हो गया | १७७ | तापस होकर तप किया, जिसके प्रभावसे धूमकेतु नामका विद्याधर हुआ |२२१| यह प्रद्युम्न कुमारको हरण करनेवाले धूमकेतुका पूर्व भव है। दे० धूमकेतु
वीरासन — दे आसन ।
वीर्य -
ससि /६/६/३२३ / १२ द्रव्यस्य स्वशक्तिविशेषो वीर्यम् । द्रव्यकी अपनी वीर्य है। रा.वा./६/६/६/१२/७) ।
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