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२. णमोकार मंत्र
सिरपर घी क्षेपण करते समय-'नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नं'; माताका स्तन मुंह में देते समय-"विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूया, गर्भमलको भूमिके गर्भ में रखते समय-'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमात' सर्वमात' बसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा, त्वत्पुत्रा इव मवपुत्रा' चिरंजीविनीभूयास:' माताको स्नान कराते समय-'सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये विश्वेश्वरि विश्वेश्वरि ऊजितपुण्ये ऊजितपुण्ये जिनमात जिनमात' स्वाहा,'बालकको ताराओसे व्याप्त आकाशका दर्शन कराते समय'अनन्तज्ञानदी भव ।११०-१३१॥ ८. नामकर्म क्रियाके मन्त्र'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव', विजयाष्टसहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनामभागी भव ।१३२-१३३। ६. बहिर्यान क्रियाके मन्त्रउपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिक्रान्तिभागी भव, परमराज्यनिष्कान्तिभागी भव, आईत्यनिष्क्रान्तिभागी भव ।१३४-१३६। १० निषधा क्रियाके मन्त्र-- दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी भव ११४०। ११. अन्नप्राशन क्रियाके मन्त्र-दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षीणामृतभागी भव ।१४११४२२१२, ध्युष्टिक्रियाके मन्त्र-उपनयमजन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्ष बर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव ।१४३१४६। १३ चौल या केशक्रियाके मन्त्र-उपनयनमुण्डभागी भव, निग्रन्थमुण्डभागी भव, निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव । १४०-१५१३ १४.लिपिसंरख्यान क्रियाके मन्त्र--शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थपारगामी भव ।१५२॥ १५. उपनीति क्रियाके मन्त्र--परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्रलिङ्गभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव । १६. व्रत चर्या आदि आगेको क्रियाओंके मन्त्र-शास्त्र परम्पराके अनुसार समझ लेने चाहिए ।२१७१
प्रथम खण्डके कर्ता आचार्य पुष्पदन्तकी रचना मानना इष्ट है। यहाँ यह भी नही कहा जा सकता कि सम्भवतः आचार्य पुष्पदन्तने इस सूत्रको कही अन्यत्रसे लेकर यहाँ रख दिया है और यह उनकी अपनी रचना नहीं है, क्योकि, इसका स्पष्टीकरण ध १/४,१,४४/१०३/४ पर की गयी चर्चासे हो जाता है। वहाँ धवलाकारने ही उस ग्रन्थके आदिमें निबद्ध णमो जिणाणं' आदि चवालीस मगलात्मक सूत्रोंको निबद्ध मंगल स्वीकार करनेमें विरोध बताया है, और उसका हेतु दिया है यह कि वे सूत्र महाकर्म प्रकृतिप्राभृतके आदिमें गौतम स्वामीने रचे थे, वहाँसे लेकर भूतबलि भट्टारकने उन्हे वहाँ लिख दिया है। यद्यपि पुन धवलाकारने उन सूत्रोको वहाँ निबद्ध मंगल भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है, और उसमे हेतु दिया है यह कि दोनोंका एक ही अभिप्राय होनेके कारण गौतम स्वामी और भूतबलि क्योकि एक ही है, इसलिए वे सूत्र भूतबलि आचार्य के द्वारा रचित ही मान लेने चाहिए। परन्तु उनका यह समाधान कुछ युक्त प्रतीत नहीं होता। अत: निबद्ध मगल वत्तार धवलाकारने इस णमोकार मन्त्रको पुष्पदन्त आचार्यकी मौलिक रचना स्वीकार की है। (ध. २/प्र. ३४-३५/ H. L. Jain. २. श्वेताम्बराम्नायके 'महानिशोथ सूत्र/अध्याय ५' के अनुसार 'पचममंगलसूत्र' सूत्रत्यकी अपेक्षा गणधर द्वारा और अर्थकी अपेक्षा भगवान् वीर द्वारा रचा गया है। पीछेसे श्री बडूरसामी (वैरस्वामी या वज्रस्वामी) ने इसे वहाँ लिख दिया है। महानिशीथ सूत्रसे पहलेकी रची गयी, श्वेताम्बराम्नायके आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिण्डनियुक्ति नामक चार मूल सूत्रोकी, भद्रबाहुस्वामी कृत चूणिकाओमे णमोकार मन्त्र पाया जाता है। इससे संभावना है कि यही णमोकार मंत्र महानिशीथ सूत्रमे पंच मगलसूत्रके नामसे निर्दिष्ट है और वह वज्रसूरिसे बहुत पहलेको रचना है। (ध. २/प्र. ३६/H L Jain) ३. श्वेताम्बराम्नायके अत्यन्त प्राचीन भगवतीसूत्र नामक मूल ग्रन्थमैं यह पंच णमोकार मन्त्र पाया जाता है, परन्तु वहाँ णमो लोए सव्वसाहूणं' के स्थानपर 'णमो बंभीए लिवीए' ( ब्राह्मी लिपिको नमस्कार ) ऐसा पद पाया जाता है। इसके अतिरिक्त उडीसाको हाथीगुफामे जो कलिग नरेश खारवेल का शिलालेख पाया जाता है
और जिसका समय ईस्वी पूर्व अनुमान किया जाता है, उसमें आदि मंगल इस प्रकार पाया जाता है- णमो अरहताण । णमो सवसिधाण ।' यह पाठ भेद प्रासंगिक है या किसी परिपाटीको लिये हुए है, यह विषय विचारणीय है (ध. २/प्र.४१/१५/HL Jain)। ४. श्वेताम्बराम्नायमें किसी किसीके मतसे णमोकार सूत्र अनार्ष है-(अभिधान राजेन्द्र कोश पृ. १८३५) (ध.२/प्र.४१/२२/H. L. Jain)।
३. णमोकार मंत्रकी उच्चारण व ध्यान विधि अन. ध /8/२२-२३/८६६ जिनेन्द्रमुद्रया गाां ध्यायेत प्रीतिविकस्वरे । हृतपङ्कजे प्रवेश्यान्तनिरुध्य मनसानिलम् ।२२. पृथग् द्विद्वये कगाथाशचिन्तान्ते रेचयेच्छनै । नवकृत्व प्रथोक्त दहत्यह सुधीर्महत् । ।२३। -प्राण वायुको भीतर प्रविष्ट करके आनन्दसे विकसित हृदय कमल में रोक्कर जिनेन्द्र मुद्रा द्वारा णमोकार मन्त्रकी गाथाका ध्यान करना चाहिए । तथा गाथाके दो दो और एक अश का क्रमसे पृथक्पृथक् चिन्तवन करके अन्तमे उस प्राणवायुका धीरे-धीरे रेचन करना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्राणायामका प्रयोग करनेवाला संयमी महान् पापकर्मोको भी क्षय कर देता है। पहले भागमें (श्वासमें) णमो अरहताण णमो सिद्धाणं इन दो पदोका, दूसरे भागमें णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं इन दो वदोका तथा तीसरे भागमें णमो लोए सव्वसाहूणं इस पदका ध्यान करना चाहिए । (विशेष/दे० पदस्थ/७१)
२. णमोकार मंत्र
१. णमोकारमंत्र निर्देश ष, ख. १/१.१/सूत्र १/८ णमो अरिहंताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाणं. णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्वसाहणं ।। इदि - अरिहतोको नमस्कार हो, सिद्धोंको नमस्कार हो, आचार्योंको नमस्कार हो और लोकमें सर्व साधुओंको नमस्कार हो।
२. णमोकार मंत्रका इतिहास ध. १/१,१,१/११/७ इद पुण जीवट्ठाणं णिबद्ध-मंगलं । यतोन्इमेसि चोद्दसण्हं जीवसमासाण इदि एत्तस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध णमोअरिहताण' इच्चादि देवदाणमोकारदसणादो। यह जोवस्थान नामका प्रथम खण्डागम 'निबद्ध मंगल' है, क्योकि, 'इमेसि चोदसण्हं जीवसमासाण' इत्यादि जीवस्थानके इस सूत्रके पहले णमो अरिहंताण' इत्यादि रूपसे देवता नमस्कार निबद्धरूपसे देखने में आता है। नोट-१. इस प्रकार धवलाकार इस मंत्र या सूत्रको निबद्ध मगल स्वीकार करते है। निबद्ध मगलका अर्थ है स्वयं ग्रन्थकार द्वारा रचित (दे० मगल/१/४) अत' स्पष्ट है कि उनको इस मन्त्रको
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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