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मंत्र
8.
मन्त्रमें प्रयुक्त 'सर्व'
शब्दका अर्थ
मू. आ./५१२ णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजति साधवो । समासव्वेसु भूदेसु तम्हा ते सब्बसाधवा । ५१२ | = निर्वाण के साधनीभूत मूलगुण आदिकमे सर्वकाल अपने आत्माको जोड़ते है और सब जोवोमें समभावको प्राप्त होते है, इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते है । घ. १३१.१.२/१२/१ सर्व नमस्कारेष्ववतनसर्वन्नोकशब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगत त्रिकाल गोचरार्हदादिदेवताप्रणमनार्थम्
= पाँच परमेष्ठियोको नमस्कार करनेमे, इस नमोकार मन्त्रमें जो 'सर्व' और 'लोक' पद है वे अन्तदीपक है, अत सम्पूर्ण क्षेत्रमे रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहत आदि देवताओका नमस्कार करनेके लिए उन्हे प्रत्येक नमस्कारात्मक पदके साथ जोड़ लेना चाहिए। (भ. आ./वि./७५४/११८/२१ ) ।
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५. चत्तारि दण्डकमे 'साधु' शब्दसे आचार्य आदि तीनोंका ग्रहण
भा. पा./ यु. व टी./ १२२ / २०१-२०४ कार्याहि पंच व गुरवे मंगलच सरलोयपरिरिए १२२ उसरलोयपरिरिए मंगललोकोत्तमशरणतामीरमर्थ अर्हम्मगल अर्होकोसमा अच्छ
रणं । सिद्धमंगल सिद्धलोकोत्तमा सिद्धशरण । साधुमंगल साधुलोकोत्तमा साधुशरणं । साधुशब्देनाचार्योपाध्याय साव सम्यन्ते तथा केगल धर्मोकोलमा धर्मशरणं चेति द्वादशमन्त्रा सूचिता' चतुःशब्देनेति ज्ञातव्य | = - 'मंगलचउसरणलोयपरियरिए' इस पदसे मंगल लोकोत्तम, व शरणभूत अर्थ होता है । अथवा 'चउ' शब्द से बारह मन्त्र सूचित होते है । यथाअर्हन्तमगल अन्ततोकोटमा बर्हन्तारण सिद्धमंगलं, सिद्धलोकोसमा सिद्धरण, साधुमगलं साधुलोकोतमा, साधुशरणं और केवलिप्रणीतधर्ममंगल, धर्मलोकोत्तमा, धर्मशरण । यहाँ साधु शब्द से आचार्य उपाध्याय व सर्व साधुका ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार पचगुरुओको ध्याना चाहिए।
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६. अहन्तको पहले नमस्कार क्यों
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ध. १/१,१,२/५३/७ विगताशेषलेपेषु सिद्धषु सत्स्वर्हता सलेपनामादौ किमिति नमस्कार क्रियत इति चेन्नैष दोष गुणाधिकसिद्ध पु श्रद्धाधिम्यनिबन्धनत्वाव असत्य व्यासागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीना, सजातरचैतत्प्रसादादियुपकारापेक्षया नादावहनमस्कारः क्रियते न पक्षपातो दोषाय शुभपते श्रेयहेतुलात अद्वैतप्रधाने गुणीभूतद्वैते द्वैतनिबन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च । आप्तश्रद्धाया आठागमपदार्थ विषयश्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वख्यापनार्थ वार्हतमादी नमस्कार । - प्रश्न - सर्व प्रकार के कर्मलेपसे रहित सिद्ध परमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मोक लेपसे युक्त अरिहको आदिमें नमस्कार क्यों किया जाता है। उत्तर-१. यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सबसे अधिक गुणवाले सिद्धोंमें श्रद्धाकी अधिकताके कारण अरिहंत परमेष्ठी ही है (स्था में / १२ / २२१ / ११) २. अथवा यदि अरिहत परमेष्ठी न होते तो हम लोगोको आठ, आगम, और पदार्थका परिज्ञान नहीं हो सकता था । किन्तु अरिहन्त परमेष्ठीके प्रसादसे हमें इस बोधकी प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकारकी अपेक्षा भी आदि में अरिहंतोंको नमस्कार किया जाता है (द्र स / टी १/६/२) । ३. और ऐसा करना पक्षपात दोषोत्पादक भी नहीं है, किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याणका ही कारण है । ४. तथा द्वैतको गौण करके अद्वैतकी प्रधानता किये गये नमस्कार में ईतमुलक पक्षपात मन भी तो नहीं सकता है (अर्थाद यहाँ परमेष्ठियोके उपक्तियोंको नमस्कार नहीं किया गया है बल्कि उनके गुणोंको नमस्कार किया गया है और उन गुणोकी अपेक्षा पाँचोमे कोई भेद नहीं है )
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मटंब
५.
आसकी श्रद्धासे ही आप्त, आगम और पदार्थोंके विषयमें दृढ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बातके प्रसिद्ध करनेके लिए भी आदिमें अरिहंतोको नमस्कार किया गया है।
मंत्र न्यास - दे० प्रतिष्ठा विधान ।
मंत्री-त्रि सा / ६८३ /भाषा टीका-मन्त्री कहिए पंचाग मन्त्र विषै प्रवीण ।
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मंत्रोपजीवी- आहारका एक दोष दे० आहार [II/४
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१.
२ वसतिकाका एक दोष- दे० वसतिका । मंद दे० तीन
मंदप्रबोधिनी- आ० नेमिचन्द सिद्धान्तको महसार पन्ध पर आ०अभय चन्द्र ( ई० श०१३ अन्त) कृत सस्कृत टीका । (जै /१/४६४) । मंदर - १. सुमेरु पर्वतका अपर नाम-३० मुगेरु २, पूर्व पुष्करार्थका मेरु-दे० लोक४/१ ३. पूर्व विदेहका एक वक्षार पर्वत - दे० लोक ५ / ३१ ४ नन्दन बनवा. कुण्डल पर्वतका तथा रुचक पर्वतका कूट - ६० लोक/२/५१२१२५. विजयाषीत्तर श्रेणीका एक नगर ३० विद्याधर . ( म.पू./१/२ नं.) पूर्वभवमेकमवारुणी, पूर्णचन्द्रवैदूर्यदेव यशोधरा कापिष्ठ स्वर्गरुप्रभवे नायुध देव, द्वितीय नरक, श्रीधर्मा, ब्रह्मस्वर्गका देव, जयन्त तथा धरणेन्द्र होते हुए वर्तमानभव में विमलनाथ भगवान् के गणधर हुए
रत्ना
(३१०-३१२) ।
मंदराकार क्षेत्र०/३२ दे० ( ज प / प्र / ३२) । मंदराभिषेक क्रिया - दे० संस्कार/२ ।
मंदरायं-पुन्नाट संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप अर्ह दूब लिके शिष्य तथा मित्रवीरके गुरु थे। समय वी नि ५८० ( ई०५३ ) - दे० इतिहास / ०/८
मंदोदरी- - ( प. पु. / सर्ग / श्लो.) दक्षिणश्रेणीके राजा मयकी पुत्री तथा रावणको पटरानी (१)। रावणकी मृत्यु तथा पुत्र आदिके वियोगसे दुखी होकर दीक्षा ले ली। (०८/६४)
मख ---- याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, ये सब पूजा विधि पर्यायवाचक शब्द है--दे० पूजा / १/१
मगध - १. भरतक्षेत्र पूर्व
खण्डका एक देश-३० मनुष्य / ४ २. बिहार प्रान्त गगाके दक्षिणका भाग राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) गया और उरुविच (बुद्धगया) इसी प्रान्त में है (म. पु. / प्र. ४६ / पं. पन्नालाल ) ।
★ मगधदेशके राज्यवंश (दे० इतिहास / ३/३) । मगधसारनलक विजयाकी श्रेणीका एक नगर-दे० दक्षिण विद्याधर ।
मघवा नरककी छठी पृथिवी अपर नाम तम. प्रभा - दे० नरक / ५ । मघवान् - (म. पु. / ६१ / श्लो. न ) पूर्व भवनं २ में नरपति नामक राजा । ( ६-१० ) । पूर्वभवमें मध्यम ग्रैवेयकमें अहमिन्द्र [१०] तथा वर्तमान भयमे तृतीय चक्रवर्ती ६१ विशेष दे०का पुरुष / २० मघा - एक नक्षत्र - दे० नक्षत्र ।
मघा संवत् ३०हास /२
मटंब ति प /४/१३११ पणयमाणामपामभूदं मनणामं खु जो ५०० ग्रामोंमें प्रधानभूत होता है उसका नाम मटन है। (च. ११/५-२-१२/१३/६) (म. पु. /९६/९०२) (त्र सा०४६०६)
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