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मतिज्ञान
अर्थों में भी मतिज्ञानकी प्रवृत्ति देखी जाती है । ( इसलिए मतिज्ञान के द्वारा परकीयमनको जानकर पीछे मन पर्ययज्ञानके द्वारा तद्गत अर्थको जाननेमें विरोध नही है।
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४. मति आदि ज्ञान व अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे घ. १४/५६,११/२०/७ मदिमिति ए पि खजीवसमियं मदिअण्णाणित्ति एद मदिणाणावरणत्र जीवसमेण सुप्पत्तीए दो एवं मदिराणि त्ति एदं पि तदुभयपच्चय । मिच्छत्तस्स सव्यघादिफद्दयाणमुदण गाणावरणीयस्स देखना विदागमुदण तस्मे धारिफयाणमुदयवखरण च मदि अण्णाणित्तप्पत्ती दो । सुदअण्णाणि विहगणाणि त्ति तदुभयपच्चइयो । आभिणिबोहियणाणित्ति तदुभयपचयो जोवभावबंधी मदिणाणावरणीयस्स देसपादिफदयाणमुदपण तिविहसम्मत्तसहाएण तदुत्पत्ती दो । आभिणिवोहियणाणस्स उदयपच्चइयत्तं घडदे. मदिणाणावरणीयस्स देसघादिफयाणमुदरण समुपती रमणीयसमियरचयत उवसमावर्तभादो। ण णाणावरणीय सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण उवसमसणिदेन आभिणिबोयिणाणुप्पत्तिदंसणादो । एव सुदणाणि ओहिणापिजनाणि चणि ओहि सण आदी मत्तल, विसेसाभावादी गति बानी भी क्षायोपशमिक है. क्योकि यह मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है। प्रश्नमत्यङ्गानि तदुभयकि कैसे है उ-माल सर्वपाती स्पर्धकों का उदय होनेसे तथा ज्ञानावरणीय के देशघाति स्पर्धकोका उदय होनेसे, और उसीके सर्वघाती स्पर्धकोका उदयक्षय होने से मति अज्ञानित्वकी उत्पति होती है. इसलिए वह तदुभयप्राथमिक है ज्ञान और विज्ञानी भी इसी प्रकार तदुभय मध्ययिक है । २. आभिनिबोधिकज्ञानी तदुभयप्रत्ययिक जीवभाव बन्ध है, क्योंकि तीन प्रकारके सम्यक्त्वसे युक्त मतिज्ञानावरणीय कर्मके देशधाति स्पर्धको के उदयसे इसकी उत्पत्ति होती है। प्रश्न - इसके उदयप्रत्थायिकपना तो बन जाता है, क्योकि मतिज्ञानावरणकर्म के देशात स्पर्धकोंके उदयसे इसकी उत्पति होती है. पर औपशमिक निमित्तकपना नही बनता, क्योकि मतिज्ञानावरण कर्मका उपशम नही पाया जाता। उत्तर-नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणीय कर्मके सर्वघाति स्पर्धको उपशम संज्ञावाले उदयाभाव से आभिनिबोधिक ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए इसका औपशमिक निमि
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कपना भी बन जाता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मनपर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी आदिका करना चाहिए क्योंकि उपर्युक्त कथनसे इनके कवनमे कोई विशेषता नहीं है ।
५. परमार्थसे इन्द्रियज्ञान कोई ज्ञान नहीं प्र.सा.प्र / ५१ परोक्ष हि ज्ञानमतिज्ञानरामोद्यन्धनुण्ठनास्वयं परिच्छेत्तुमर्थं मसमर्थस्योपात्तानुपात्त परप्रत्ययसामग्री मार्गणपायल महामोहमत्तस्य जीवदयस्वरमाद परपरिणािभिप्रायमपि पदे पदे प्राप्तम्भमतम्भ माननामेव परमार्थतोऽर्हति । अतस्तद्धेयम् । परोक्षज्ञान, अति दृढ अज्ञानरूप तमोग्रन्थि द्वारा आवृत हुआ, आत्म पदार्थको स्वय जानने के लिए असमर्थ होने के कारण. उपात्त और अनुपात्त सामग्रीको दूँढनेकी व्यग्रतासे अत्यन्त चचल वर्तता हुआ, महा मोहम जीवित होनेसे पर परिणतिका अभिप्राय करनेपर भी पद-पदपर ठगाता हुआ, परमार्थत. अज्ञानमे गिना जाने योग्य है । इसलिए वह हेय है ।
यश
पं', ध /उ./२८६-२८६,३०५,६५३ दिडमात्र षट्सु द्रव्येषु मूर्तस्यैवोपलम्भकात् । तत्र सूक्ष्मेषु नैव स्यादस्ति स्थूलेषु केषुचित् ॥ २८६ ॥ सत्सु
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३. अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश
प्रायेषु तत्रापि नामाह्येषु कदाचन। तत्रापि विद्यमानाती नागतेषु च ॥२८७॥ तत्रापि संनिधानत्वे सनिकर्षेषु सत्सु च । तत्राप्यवग्रहेहादी ज्ञानस्यास्तिक्यदर्शनात |२८| समस्तेषु न व्यस्तेषु हेतुभूतेषु सरस्वपिज्ञानमुपरि शुद्धि. २ आस्तामित्यादि दोषाणा संनिपातात्पदं पदम् । ऐन्द्रिय ज्ञानमप्यस्ति प्रदेशचलनात्मकम् ॥ ३०५ | प्राकृतं वैकृतं वापि ज्ञानमात्र तदेव यत् । यावदत्रेन्द्रियायत तत्सर्वं वैकृतं विदुः । १५३॥
इन छह द्रव्योमें मूर्त द्रव्यको ही विषय करता है, उसमें भी स्थूलमें प्रवृत्ति करता है सूक्ष्ममे नही । स्थूलोने भी किन्ही में ही प्रवृत्त होता है सबमें नही । उनमें भी इन्द्रियग्राह्यमें ही प्रवृत्त होता है इन्द्रियग्राह्यमें नहीं। उनमे वर्तमानकाल सम्बन्धीको ही ग्रहण करता है, भूत भविष्यत्को नही । उनमे भी इन्द्रिय सन्निकर्ष को प्राप्त पदार्थको विषय करता है, अन्यको नहीं । उनमें भवग्रह ईहा आदिके क्रमसे प्रवृत्ति करता है। इतना ही नही बल्कि मतिज्ञानावरण व वीर्यान्तरायका क्षयोपशम, इन्द्रियो की पूर्णता, प्रकाश व उपयोग आदि समस्त कारण के हो - पर ही होता है, हीन कारणोमें नही । इन सर्व कारणोके होनेपर भी ऊपर-ऊपर अधिक अधिक शुद्धि होनेसे कदाचित होता है। सर्वदा नहीं। इसलिए वह कहने मात्रको हो ज्ञान है २८६-२८६ इन्द्रिय ज्ञान व्याकुलता आदि अनेक दोषोका तो स्थान है ही, परन्तु वह प्रदेशचलनात्मक भी होता है | ३०५। यद्यपि प्राकृत या वैकृत सभी प्रकारके ज्ञान 'ज्ञान' कहलाते है, परन्तु वास्तव में जब तक वह ज्ञान इन्द्रियाधीन रहता है, तब तक वह विकृत ही है । ६५३
६. मतिज्ञानके भेदों को जाननेका प्रयोजन पंका/ता.वृ / ४३/८६/५ अत्र निर्विकारशुद्धानुभूत्यभिमुखं यन्मतिशानं तदेवोत्रादेवतानन्तमुखसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं सत्साधक महिवहारेणेति तात्पर्यम्। निर्विकारात्मक अनु भूति के अभिमुख जो मतिज्ञान है, वहीं उपादेयभूत अनन्त सुखका साधक होनेके कारण निश्चयसे उपादेय है । और व्यवहारसे उस ज्ञानका साधक जो बहिरंग ज्ञान है वह भी उपादेय है ।
३. अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश
१. ईहा आदिको मतिज्ञान व्यपदेश कैसे ?
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रा. वा / १/१५/१३/६२/१ ईहादीनाममतिज्ञानप्रसङ्गः । कुत । परस्परकार्यत्वात् । अवग्रहकारणम् ईहाकार्यम् ईहाकारणम् अवाय' कार्यम्, अवाय कारणम् धारणा कार्यम् । न चेहादीनाम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वमस्तीति नैष दोष', ईहादीनामनिन्द्रियनिमित्तत्वात् मतिज्ञानव्यपदेश । यद्येवं श्रुतस्यापि प्राप्नोतीति इन्द्रियगृहीतविषयत्वादहादीनाम् अनिन्द्रियनिमित्तत्वमप्युपचर्यते नतु श्रुतस्याय विधिरस्ति तस्यानिन्द्रियविषयत्वादिति श्रुतस्याप्रसंगः। यद्य चतुरिन्द्रियेहादिव्यपदेशाभाव इति चेद न हन्द्रियशकि परिणतस्य जनस्य भावेन्द्रियवापारकार्यवाद। इन्द्रियभावपरिणतो हि जीवो भावेन्द्रियमिष्यते, तस्य विषयाकारपरिणामा ईहादय इति चक्षुरिन्द्रि येहा दिव्यपदेश इति । = प्रश्न - ईहा आदि ज्ञान मतिज्ञान नही हो सकते, क्योंकि ये एक दूसरे के कारण से उत्पन्न होते हैं। तहाँ अवग्रहके कारणसे ईहा ईहाके कारण से अवाय, और अवायके कारण से धारणा होती है। उनमे इन्द्रिय व अनिन्द्रियका निमित्तपना नही है । उत्तर-ग्रह कोई दोष नही है, ईहा आदिको भी अनिन्द्रियका निमित्त होनेसे मतिज्ञान व्यपदेश बन जाता है। प्रश्न -- तब तो श्रुतज्ञानको भी मतिज्ञानपना प्राप्त हो जायेगा ?
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