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मतिज्ञान
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३. अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश
उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि (अवग्रह द्वारा) इन्द्रियोसे ग्रहण कर लिये गये पदार्थोको विषय करनेके कारण ईहा आदिको अनिन्द्रियका निमित्तपना उपचारसे कहा जाता है। श्रुतज्ञानकी यह विधि नहीं है, क्योंकि, वह तो अनिन्द्रियके ही निमित्तसे उत्पन्न होता है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो चक्षु इन्द्रियके ईहा आदिका व्यपदेश न किया जा सकेगा। उत्तर-नहीं; क्योकि इन्द्रियशक्तिसे परिणत जीवकी भाव इन्द्रियमें, उसके व्यापारका कार्य होता है। इन्द्रियभावसे परिणत जीवको ही भावेन्द्रिय कहा जाता है। उसके विषयाकार रूप परिणाम ही ईहा आदि हैं। इसलिए चक्ष इन्द्रियके
भी ईहा आदिका व्यपदेश बन जाता है । (ध.६/४,१,४५/१४७/२६) ध.६/४,१,४१/१४८/२ नावायज्ञान मति', ईहानिर्णीतलिङ्गावष्टम्भमलेनोत्पन्नत्वादनुमानवदिति चेन्न, अवग्रहगृहीतार्थविषयलिङ्गादीहाप्रत्ययविषयीकृतादुत्पन्ननिर्णयात्मकप्रत्ययस्य अवग्रहगृहीतार्थविषयस्य अवायस्थ अमतित्वविरोधाद। न चानुमानमवगृहीतार्थ विषयमवग्रहनिर्णीतबलेन तस्यान्यवस्तुनि समुत्पत्ते । तस्मादवग्रहादयो धारणापर्यन्ता मतिरिति सिद्धम् । -प्रश्न-अवायज्ञान मतिज्ञान महीं हो सकता, क्योंकि, वह ईहासे निर्णीत लिंगके आलम्बन बलसे उत्पन्न होता है, जैसे अनुमान । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि अवग्रहसे गृहीतको विषय करनेवाले तथा ईहा प्रत्ययसे विषयीकृत लिंगसे उत्पन्न हुए निर्णयरूप और अवग्रहसे गृहीत पदार्थको विषय करनेवाले अवाय प्रत्ययकै मतिज्ञान न होनेका विरोध है । और अनुमान अवग्रहसे गृहीत पदार्थको विषय करनेवाला नहीं है, क्योंकि वह अवग्रहसे निति लिगके बलसे अन्य बस्तुमें उत्पन्न होता है। ( तथा अवग्रहादि चारो ज्ञानोकी सर्वत्र क्रमसे उत्पत्तिका नियम भी नहीं है। (दे० शीर्षक नं. ३)। इसलिए अवग्रहसे धारणापर्यन्त चारों ज्ञान मतिज्ञान है। यह सिद्ध होता है। (और भी दे० श्रुतज्ञान/I/३)।
नहीं होती है, क्योकि, उस प्रकारकी व्यवस्था पायी मही जाती है। इसलिए कही तो केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है, कही अवग्रह और ईहा, ये दो ज्ञान ही होते है, 'कही पर अवग्रह ईहा और अवाय, ये तीनो भी ज्ञान होते है; और कहीं पर अवग्रह, ईहा, अवाय
और धारणा ये चारो ही ज्ञान होते है। ध/४,१.४५/१४८/५ न चावग्रहादीना चतुर्णा सर्वत्र क्रमेणोत्पत्तिनियम. अवग्रहानन्तर नियमेन सशयोत्पत्त्यदर्शनात् । न च संशयमन्तरेण विशेषाकाङ्क्षास्ति येनावग्रहान्नियमेन ईहोत्पद्यते । न चेहातो नियमेन निर्णय उत्पद्यते, क्वचिनिर्णयानुत्पादिकाया ईहाया एवं दर्शनात् । न चावायाइधारणा नियमेनोत्पद्यते, तत्रापि व्यभिचारोपलम्भात् । = तथा अवग्रहादिक चारोंकी सर्वत्रसे उत्पत्तिका नियम भी नहीं है, क्योकि, अवग्रहके पश्चात नियमसे संशयकी उत्पत्ति नही देखी जाती। और संशयने बिना विशेषकी आकांक्षा होती नहीं है, जिससे कि अवग्रहके पश्चात् नियमसे ईहा उत्पन्न हो । न ही ईहासे नियमत निर्णय उत्पन्न होता है, क्योकि, कहीं पर निर्णयको उत्पन्न न करनेवाला ईहा प्रत्यय ही देखा जाता है। अवायसे धारणा भी नियमसे नहीं उत्पन्न होती, क्योकि, उसमें भी व्यभिचार पाया जाता है।
२. अवग्रहादिकी अपेक्षा मतिज्ञानका उत्पत्तिक्रम रा वा./२/११/१३/६९/२६ अस्ति प्राग अवग्रहाद्दर्शनम् । तत' शुक्लकृष्णादिरूपविज्ञानसामोपेतस्यात्मन' 'कि शुक्लमुत कृष्णम्' इत्यादि विशेषाप्रतिपत्तेः संशयः । ततः शुक्ल विशेषाकाङ्क्षण प्रतीहनमीहा । तत' 'शुक्लमेवेदं न कृष्णम्' इत्यवायनमवाय.। अवेतस्यार्थस्याविस्मरणं धारणा । एवं श्रोत्रादिषु मनस्यपि योज्यम् । अवग्रहसे पहले [विषय विषयीके सन्निपात होनेपर (दे० अवग्रहका लक्षण) ] वस्तुमात्रका सामान्यालोचनरूप दर्शन होता है. (फिर रूप है' यह अवग्रह होता है)। तदनन्तर 'यह शुक्ल है या कृष्ण' यह संशय उत्पन्न होता है। फिर 'शुक्ल होना चाहिए' ऐसी जाननेकी आकांक्षारूप ईहा होती है। तदनन्तर 'यह शुक्ल ही है, कृष्ण नहीं' ऐसा निश्चयरूप अवाय हो जाता है। अवायसे निर्णय किये गये पदार्थ का आगे जाकर अविस्मरण न हो, ऐसा सस्कार उत्पन्न होना धारणा है। इस प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियो व मनके सम्बन्धमें लगा लेना चाहिए । (दे० क्रमपूर्वक अवग्रह आदिके लक्षण ), (श्लो. वा ३/९/१५/श्लो. २-४/४३७), (गो.जो.जी प्र./३०८-३०६/६६३,६६५)। ३. अवग्रहादि समो भेदोंके सर्वत्र होनेका नियम नहीं है घ.६/१,६-१,१४/१८/८ ण च ओग्गहादि चउण्हं पिणाणाण सव्वत्थ कमेण उत्पत्ती, तहाणुवलंभा। तदो कहि पि ओग्गहो चेय, कहि पि ओग्गहो ईहा य दो च्चेय, कहि पि ओग्गहो ईहा अवाओ तिण्णि वि होति, कहिं पि ओग्गहो ईहा अवाओ धारणा चेदि चत्तारि वि हो ति। -अवग्रह आदि चारों हो ज्ञानोंकी सर्वत्र क्रमसे उत्पत्ति
४. मति स्मृति आदिकी एकार्थता सम्बन्धी शंका
समाधान दे० मतिज्ञा /१/१/२/२ (मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क व आभिनि
बोध, ये सब पर्यायवाची नाम है)। स. सि./१/१३/१०७/१ सत्यपि प्रकृतिभेदे रूढिवलाभावात पर्यायशब्द. त्वम् । यथा इन्द्र' शक पुरन्दर इति इन्दनादिक्रियाभेदेऽपि शचीपतेरेकस्यैव संज्ञा। समभिरूढनयापेक्षया तेषामर्थान्तरकल्पनाया मत्यादिष्वपि स क्रमो विद्यत एव । कितु मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तोपयोग नातिवर्तन्त इति अयमत्रार्थो विवक्षित' । 'इति'शब्द ' प्रकारार्थः । एवंप्रकारा अस्य पर्यायशब्दा इति। अभिधेयार्थों वा। मति स्मृति: संज्ञा चिन्ता आभिनिबोध इत्येतैर्योऽर्थोऽभिधीयते स एक एव इति । १. यद्यपि इन शब्दोंको प्रकृति या व्युत्पत्ति अलग-अलग है, तो भी रूढिसे ये पर्यायवाची है। जैसे-इन्द्र, शक्र और पुरन्दर। इनमें यद्यपि इन्दन आदि क्रियाओंकी अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपतिको वाचक सज्ञाएँ है। अब यदि समभिरूढ नयकी अपेक्षा इन शब्दो का अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति स्मृति आदि शब्दोंमें भी पाया जाता है। २. किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप निमित्तसे उत्पन्न हुए उपयोगको उल्लंघन नहीं करते है, यह अर्थ यहाँपर विवक्षित है। ३ अथवा प्रकृतमें (सूत्रमें) इति शब्द प्रकारार्थवाची है, जिसका यह अर्थ होता है, कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञानके पर्यायवाची शब्द है। अथवा प्रकृत में 'मति' शब्द अभिधेयवाची है, जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा. चिन्ता
और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है, वह एक ही है। (रा वा./९/१३/२-३/५८/१, ६/५६/५ में उपरोक्त तीनों विकल्प है)। रा.वा /१/१३/३-७/१८/१०-३२ यस्य शब्दभेदोऽर्थभेदे हेतुरिति मतमतस्य वागादि नवार्थेषु गोशब्दाभेददर्शनाद वागाद्यर्थानामेकत्वमस्तु। अथ नैतदिष्टम्, न तर्हि शब्दभेदोऽन्यत्वस्य हेतु.। किच. मत्यादीनामेकद्रव्यपर्यायादेशात स्यादेकत्व प्रतिनियतपर्यायादेशाच्च स्यान्नानास्वम्-मननं मति , स्मरण स्मृति इति । स्यान्मतम्-मत्यादय अभिनिबोधपर्यायशब्दा नाभिनिबोधस्य लक्षणम् कथम् । मनुष्यादिवत् । .. तन्न, कि कारणम् । ततोऽनन्यत्वात् । इह पर्यायिणोऽनन्या पर्यायशब्द., स लक्षणम् । कथम् । औष्ण्याग्निवत् । तथा पर्यायशब्दा मत्यादय आभिनिबोधिज्ञानपर्यायिणोऽनन्यत्वेन अभिनिबोधस्य लक्षणम् ।
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