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मतिज्ञान
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२. मतिज्ञान सामान्य निर्देश
(ध. १/१,१,२/६३/३); (ध. ६/१.६,१,१४/१६,१६,२१), (ध.६/४, १,४५/१४४,१४६,१५६), (ध.१३/५०५,३५/२३६-२४१): (क.पा १/१, १/१०/१४/१), (ज.प/१३/५५-५६), (गो जी /मू/३०६-३१४/ ६५८-६७२); (त सा./१/२०-२३)।
२. उपलब्धि स्मृति आदिकी अपेक्षा प.खं. १३/५६ सूत्र ४१/२४४ सण्ण सदी मदी चिता चेदि ।४॥ त.स./१/१३ मतिस्मृतिसज्ञाचिन्ताऽभिनिओध इत्यनर्थान्तरम् ।१३।
=मति, स्मृति, सज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध ये सब पर्यायवाची नाम है।
का. ता. वृ./प्रक्षेपक गाथा/४३-१/८५ गदिणाणं पण तिमिह उबलद्धी भावणं च उवओगोमतिज्ञान तीन प्रकारका है-उपलब्धि, भावना, और उपयोग। त. सा./१/११-२० स्वसवेदनमक्षोत्थ विज्ञान स्मरण तथा। प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा ११ बुद्धिमेधादया याश्च मतिज्ञानभिदा हिता ।।२०।-स्वसवेदनज्ञान, इन्द्रियज्ञान, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तक, स्वार्थानुमान, बुद्ध, मेधा आदि सब भतिज्ञानके
प्रकार हैं। पं. का./ता. वृ./४३.१/०६/३ तथे वावग्रहहावायधारणाभेदेन चतुर्बिध वरकोष्ठबीजपदानुसारिसी भन्नश्रातृताबुद्धिभेदेन वा, तच्च मतिज्ञान . । -वह मति ज्ञान अवग्रह आदिके भेदसे अथवा बर कोष्ठ बुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी बुद्धि ओर सम्भिन्नश्रोतृबुद्धि इन चार ऋद्धियोके भेदसे चार प्रकारका है।
२. मतिज्ञानका विषय अनन्त पदार्थ व अल्प पर्याय त सू /१/२६ मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ।२६। मतिज्ञान
और श्रुतज्ञानको प्रवृत्ति कुछ पर्यायोसे युक्त सम द्रव्योमें होती है। रा. वा /१/१६/१/७०/२ द्रव्यतो मतिज्ञानी सर्वद्रव्याण्यसर्व पर्यायाण्युपदेशेन जानाति । क्षेत्रत उपदेशेन सर्व क्षेत्राणि जानाति। अथवा क्षेत्रं विषय । कालत उपदेशेन सर्व कालं जानाति । भावत उपदेशेन जीवादोनामौदयिकादीन् भावात् जानाति । रा वा./१/२६/३-४/८७/ १६ जीवधर्माधर्माकाशकालपुद्गलाभिधानानि षडत्र द्रव्याणि, तेषा सर्वेषा संग्रहार्थ द्रव्येष्विति बहुत्वनिर्देश क्रियते ।३। . तानि द्रव्याणि मतिश्रुतयोविषयभावमापद्यमानानि कतिपयैरेव पर्यायबिषयभावमास्कन्दन्ति न सर्वपर्यायैरनन्तरपीति । तत्कथम् । इह मति: चक्षुरादिकरणानिमित्ता रूपाद्यालम्बना, सा यस्मिन् द्रव्ये रूपादयो वर्तन्ते न तत्र सर्वान् पर्यायानेब (सर्वानेव पर्यायान) गृह्णाति, चक्षुरादिविषयानेवालम्बते । १. द्रव्यको दृष्टिसे मतिज्ञानी सभी द्रव्योंकी कुछ पर्यायोको उपदेशसे जानता है। इसी प्रकार उपदेश द्वारा वह सभी क्षेत्रको अथवा प्रत्येक इन्द्रियके प्रतिनियत क्षेत्रको-दे० इन्द्रिय/३/६ । सर्वकालको व सर्व औदयिकादि भावोंको जान सकता है। २. सूत्रमे 'दव्येषु' यह बहुवचनान्त प्रयोग सर्वद्रव्योंके सग्रहके लिए है। तहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य है । वे सब द्रव्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषय भावको प्राप्त होते हुए कुछ पर्यायोके द्वारा ही विषय भावको प्राप्त होते है, सब पर्यायोके द्वारा नहीं और अनन्त पर्यायों के द्वारा भी नहीं। क्योंकि मतिज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियोसे उत्पन्न होता है और रूपादिको विषय करता है, अत स्वभावत वह रूपी आदि द्रव्योंको जानकर भी उनकी सभी पर्यायोको ग्रहण नहीं करता बक्कि चक्षु आदिकी विषयभूत कुछ स्थूल पर्यायोको ही जानता है। (स, सि./१/२६॥ १३४/१). दे० ऋद्धि/२/२/३(क्षायोपशमिक होनेपर भी मतिज्ञान द्वारा अनन्त अर्थोंकाजाना जाना सम्भव है।
३. असख्यात भेद ध.१२/४,२,१४,१/४८०/५ एवमसखेज्जलोगमेत्ताणि सुदणाणि । मदिणाणि वि एत्तियाणि चेव, सुदणाणस्स मदिणाणपुर गमत्तादो कज्जभेदेण कारणभेदुवल भादा वा-श्रुतज्ञान असख्यात लोकप्रमाण है--दे० श्रुतज्ञान॥१मतिज्ञान भा इतने ही है, क्योकि, श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ही होता है, अथवा कारणके भेदसे क्योकि कार्यका भेद पाया जाता है, अतएव वे भो असख्यात लोकप्रमाण है। (प.ध./उ./ २१०-२६२)।
३. कुमतिज्ञानका लक्षण 1. सं./प्रा./१/११९ विसजतकूडपजरवधादिसु अणुवेदसकरणेण । जाखलु
पवत्तइ मई मइअण्णाण त्तिण विति ।११८ - परोपदेशके बिना जा विष, यन्त्र, कूट, पंजर, तथा बन्ध आदिके विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे ज्ञानीजन मत्यज्ञान कहते है। ( उपदेशपूर्वक यही श्रुतज्ञान
है) (ध. १/१,११५/ गा. १७६/३५८); (गो. जो./मु /३०३/६५४)। पं. का/त. प्र/४१ मिथ्यादशनादयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम्। मिथ्यादर्शनके उदयके साथ आभिनिबाधिक ज्ञान ही कुमतिज्ञान है। विशेष दे, ज्ञान/IIII
३. अतीन्द्रिय द्रव्योमें मतिज्ञानके व्यापार सम्बन्धी
समन्वय प्र. सा /मू./४० अत्थ अक्रवणिवदिदं ईहापुवेहि जे विजाणं ति। तेसि परोक्वभूद णादुमसक्क ति पण्णत्त ।४०-जो इन्द्रिय गोचर पदार्थको ईहा आदि द्वारा जानते है, उनके लिए परोक्षभूत पदार्थको जानना अशक्य है, ऐसा सर्वज्ञदेवने कहा है। स. सि./१/२६/१३४/३ धर्मास्तिकायादीन्यतीन्द्रियाणि तेषु मतिज्ञानं न प्रवर्तते। अत सर्व द्रव्येषु मतिज्ञानं वर्तत इत्ययुक्तम् । नैष दोषः। अनिन्द्रियाख्य करणनस्ति तदालम्बनो नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमलब्धिपूर्वक उपयोगाऽवग्रहादिरूप प्रागेवोपजायते। ततस्तत्पूर्व श्रुतज्ञान तद्विषयेषु स्वयोग्येषु व्याप्रियते।-प्रश्न-धर्मास्तिकाय आदि अतीन्द्रिय है। उनमें मतिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अत' 'सब द्रव्यों में मतिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है', यह कहना अयुक्त है। उत्तरयह कोई दोष नही, क्योकि, अनिन्द्रिय (मन)मामका एक करण है। उसके आलम्बनसे नो इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमरूप लब्धिपूर्वक अवग्रह आदिरूप उपयोग पहले ही उत्पन्न हो जाता है, अतः तत्पूर्वक होनेवाला श्रुतज्ञान अपने योग्य इन विषयों में व्यापार करता है । ( रा वा /१२६/५/८७/२७)। ध १३/५,५,७१/३४१/१ णोइ दियदि दिय कधं मदिणाणेण घेष्पदे । ण ईहालिगावठ्ठ भबलेण अदि दिएसु वि अत्थेसु बुत्तिदसणादो। - प्रश्न--नोइन्द्रिय नो अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञानके द्वारा कैसे ग्रहण होता है। उत्तर-नही ईहारूप लिगके अबलम्बनके बलसे अतीन्द्रिय
२. मतिज्ञान सामान्य निर्देश १. मतिज्ञान दर्शनपूर्वक इन्द्रियोंके निमित्तसे होता है
पं. का./ता. बृ./ प्रक्षेपक गा./१३-१/८५ तह एव चदुवियप्पं दसणपुच
हवदिणाणं । बह चारो प्रकारका मतिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है।- विशेष दे० दर्शन/३/१। त. सू./१/१४ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।१४। वह मतिज्ञान इन्द्रिय
व मनरूप निमित्तसे होता है।
विन गाणं । वहा ./e३-/२०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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