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माघ
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मान
माघ-गुजरात नरेश श्रीपालके मन्त्री सुप्रभदेवके दो पुत्र थे-दत्त व
अभ्यास किया है, वह देने योग्य भी है तो भी जिस कारणसे वह शुभ कर । दत्त के पुत्र महाकवि माध थे। इन्होंने 'शिशुपाल वध'
नहीं दिया जाता वह मात्सर्य है । (रा. वा 18/१०/8/५१७/१५)। नामक ग्रन्थकी रचना की है। ( उपमिति भव प्रपच कथा/प्र.२/
स, सि./७/३६/३७२/१ प्रयच्छतोऽष्यादराभावोऽन्यदातृगुणासहनं वा प्रेमीजी)।
मात्सर्यम् । दान करते हुए भी आदरका न होना या दूसरे दाताके
गुणोंको न सह सकना मात्सर्य है । (रा. वा/७/३६/४/५५८/२६ ) । माघनान्द-१. मुलसघ की पहाबली के अनुसार आप आ. अलि
माथुरसंघ-दे० इतिहास/६/१। के शिष्य होते हुए भी उनके तथा धरसेनस्वामी के समकालीन थे। पूर्वधर तथा अत्यन्त ज्ञानी होते हुए भी आप बडे तपस्वी थे । इसकी माधव-मीमांसा दर्शनका एक टीकाकार-दे० मीमांसा दर्शन । परीक्षा के लिये प्राप्त गुरु अहं दूली के आदेश के अनुसार एक बार माधवचन्द्र-नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य गणितज्ञ । आपने नन्दिवृक्ष (जो छायाहीन होता है) के नीचे वर्षायोग धारण
कृति--त्रिलोकसार की संस्कृत टीका, बन्धविभगी। समय-वि.श. किया था। इसीसे इनको तथा इनके संघ को नन्दि की संज्ञा प्राप्त
११ का पूर्वाध (लगभग ई.६८१)। (जै./१/३६३)। २. क्षपणसार के हो गई थी। नन्दिसंघ की पट्टावली में आपका नाम क्योंकि भद्र
कर्ता । समय-प्रन्थ रचनाकाल वि. १२६० (ई. १२१३) । (जै // बाहु तथा गुप्तिगुप्त (अदिलि) को नमस्कार करने के पश्चात् सबसे
४४१) (ती/३/२६१) । पहले आता है और वहां क्योंकि आपका पट्टकाल वी, नि. ५७५ से प्रारम्भ किया गया है, इसलिये अनुमान होता है कि उक्त घटना
माधव सिह-जयपुरके राजा। समय-वि. १८११.१८२४ (ई० . इसी काल में घटी थी और उसी समय आ अर्ह वलि के द्वारा
१७५४-१७६७), (मा. मा प्र./प्र. २६/६, परमानन्द)। स्थापित इस सघ का आध पट आपको प्राप्त हुआ था। यद्यपि माधवसेन-माथुर संघकी गुर्वावलोके अनुसार आप नेमिषेणके नन्दिसघ की पट्टावली में आपकी उत्तरावधि केवल ४ वर्ष पश्चात् शिष्य तथा श्रावकाचारके कर्ता अमितगतिके गुरु थे। समय-~-वि० बी. नि. ५७६ बताई गई है, तदपि क्योंकि मूलसघ की पट्टावली के १०२०-१०६४ (ई०६६३-२००७)-दे० इतिहास/७/११ । (अमितगति अनुसार वह ६१४ है इसलिये आपका काल वी नि ५७५ से ६१४ श्रावकाचारकी प्रशस्ति ); (यो, सा/अमितगति/प्र २/पं. गजाधर सिद्ध होता है। (विशेष दे. कोष परिशिष्ट २/६) । २. नन्दिसंघ लाल)। के देशीयगण की गुर्वावलो के अनुसार आप कुल चन्द्र के शिष्य तथा
माधवाचार्य-सायणाचार्यका अपर नाम-दे० सायणाचार्य। माधनन्दि विद्यदेव तथा देवकीति के गुरु थे। 'कोलापुरीय' आपकी उपाधि थी। समय-वि. श. १०३०-१०५८ (ई ११०८
माध्यदिन-एक अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद । ११३६)-(दे. इतिहास ७/५)। ३ शास्त्रसार समुच्चय के कर्ता। माध्यमिक-एक बौद्ध सम्प्रदाय-दे० बौद्धदर्शन। माधनन्दि न. ४ (वि. १३१७) के दादा गुरु। समय-ई श १२ का
माध्यस्थ्यअन्त । (जै /२/२०१६)।४ माघनन्दि न ३ के प्रशिष्य और कुमुद
स.सि./७/११/३४६/८ रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यम् ।-रागचन्द्र के शिष्य । कृति-शास्त्रसार समुच्चय की कन्नड टीका। समय-वि.१३१७ (ई. १२६०) । (जै /२/३६६) । ५. माघनन्दि
द्वेषपूर्वक पक्षपातका न करना माध्यस्थ्य है। (रा. वा./७/११/४/ कोलहापुरीय के शिष्य (ई. ११३३) । (दे. इति./७/५)।
५३८/२१)।
दे० सामायिक/१ [माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृह, माघवा-महातम प्रभा (सातवानरक ) काअपरनाम-देनरक/ शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म यह सब एकार्थवाचक शब्द
है।..(क्रोधी, पापी, मांसाहारी) व नास्तिक आदि जनोंमें माध्यमाठर-एक अक्रियावाद-दे० अक्रियावादो।
स्थभाव होना उपेक्षा कहलाती है।] माणव-दे० मालव।
माध्व वेदान्त
ई. ा १२-१३ में पूर्ण प्रज्ञ माध्व देव द्वारा इस मतका जन्म हुआ। न्यायमाणिकभद्र-विजया पर्वतका एक कूट और उसका रक्षक देव ।
सुधा व पदार्थ संग्रह इसके मुख्य ग्रन्थ हैं। अनेक तत्त्व माननेके -दे० लोक/७।
कारण भेदवादी हैं। -विशेष दे० वेदान्त/६ । माणिक्यनन्दि-१, नन्दिसघ बलात्कारगगकी गुर्वावलीके अनु
मानसार आप रत्ननन्दिके शिष्य तथा मेघचन्द्र के गुरु थे। समय-विक्रम शक, सं.५८५-६०१ (ई०६६३-६७६),-दे० इतिहास/७/२ । २. १. अभिमानके अर्थमें नन्दिसंघ देशीयगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप बालनन्दि(राम
रा. वा.////७४/३० जात्याद्य रसेकावष्टम्भाव परा प्रणतिर्मान-शैलनन्दि के शिष्य तथा प्रभाधन्दके गुरु थे। कृति-परीक्षामुख ।
स्तम्भास्थिदारुलतासमानश्चतुर्विधः । = जाति आदि आठ मदोंसे समय-वि०६४६-१७१ (ई०१००३-१०२८)-दे० इतिहास/७/५ ।। (दे० मद ) दूसरेके प्रति नमनेकी वृत्ति न होना मान है। वह पाषाण,
(ती/३१४३) हड्डी, लकड़ी और लताके भेदसे चार प्रकारका है।-दे० कषाय ।३। मातंग-१ पद्मप्रभु व पार्श्वनाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० तीर्थ
ध, २४१,१,१११११/३४६/७ रोषेण विद्यातपोजात्यादिमदेन वान्यस्यानकर १/३ १२. राजा विनमिका पुत्र जिससे मातंगवंशकी उत्पत्ति
वनति रोषसे अथवा विद्या तप और जाति आदिके मदसे (दे० हुई-दे० इतिहास
मद ) दूसरेके तिरस्काररूप भावको मान कहते है।
ध ६/१,६-१,२३/४१/४ मानो गर्वः स्तब्धमित्येकोऽर्थ । मान, गर्व, मातंगवंश-दे० इतिहास१०।। ।
और स्तब्धत्व ये एकार्थवाची है। मातृकायंत्र-दे० यंत्र।
ध. १३/४,२,८,८/२८३/६ विज्ञानैश्वर्यजातिकुलतपोविद्याजनितो जीव
परिणाम' औद्धत्यात्मको मान-विज्ञान, ऐश्वर्य, जाति, कुल, तप मात्सयं-स सि./६/१०/३२७/१२ कुतश्चित्कारणाद् भावितमपि और विद्या इनके निमित्तसे उत्पन्न उद्धतता रूप जीवका परिणाम विज्ञानं दानामपि यतो न दीयते तन्मात्सर्यम् । -- विज्ञानका मान कहलाता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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