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मानतुंग
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सि./१९२ कविरवेन सकलजनपूज्यतया कुलजातिविशुछपा था निरुपममलेन च सपदिभिसासन अथवा भि सप्तभिर्वा... वपुर्लावण्यरसविसरेन वा आत्माहंकारो मान । कविश्व कौशल के कारण समस्वनो द्वारा पूजनीयपसे, कुतजातिको विशुद्विसे, निरुपम बलसे, सम्मत्तिको वृद्धिके विलाससे. सात ऋद्धियों से, अथवा शरीर लावण्यरस के विस्तारसे होनेवाला जो आत्म- अहंकार वह मान है ।
२. प्रमाण या मापके अर्थ में
घ. १२/४.२,८१०/२०५/६ मार्ग प्रस्थादिः होनाधिकभावमापन्नः । -हीनता अधिकताको प्राप्त प्रस्थादि मान कहलाते है। न्या. वि. //१/११६/४२६/१ मान सोलन-मान अर्थाद तोल या माप ।
* अम्य सम्बन्धित विषय
१. मान सम्बन्धी विषय विस्तार
२. जीवको मानी कहनेकी विवक्षा
३. आहारका एक दोष
४. वसलिकाका एक दोष
५. आठ मद ।
६. मान प्रमाण व उसके भेदाभेद ७. मानकी अनिता
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-दे० कषाय । - दे० जीव / १/३१
- दे० आहार / II / ४ /४/ - दे० वसतिका । - दे० मद । - दे० प्रमाण / ५।
- ३० वर्ग व्यवस्था // 4
पुत्र
थे
मानतुरंग - काशीमासी धनदेव ब्राह्मण के पहले स्वेताम्बर साधु थे, पीछे दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली दोनों ही आम्नायों में सम्मानित है। राजा द्वारा ४८ तालों में बन्द किये जाने की कथा इनके विषय में प्रसिद्ध है। कृति-भक्तामर स्तोत्र । समय - राजा हर्ष (ई ६०८) के समकालीन होने से तथा बा, सिद्धसेन (वि ६२५) कुठ कम्याण मन्दिर स्तोत्र से प्रभावित होने से लगभग वि. ६७५ (ई. ६१८) । (eft./9/945, 2008)|
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मानव १. एक ग्रह दे० ग्रार्धकी उत्तरप्रेमीका एक नगर-३० विद्याधर । २. चक्रवर्तीकी नवनिधियों नेसे एक दे० शलाकापुरुष/४ जीवको मानव कहनेकी विवक्षा दे० जी// ३ / ५।
मानव योजना क्षेत्रका एक प्रमाण दे० गणित/1/९/३ मानवतिक - भरतक्षेत्र में पूर्व आर्यखण्डका एक देश - दे० मनुष्य / ४ ॥ मानवी - एक मिद्याचै० निया ।
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मानस - विजयार्थकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर दे० विद्यार मानस. १३/५२.३/१२/१० मम्मि भने लिगं माणसं, अधवा मणो चैव माणसो । मनमें उत्पन्न हुए चिह्नको मानस कहते है अथवा मनकी ही संज्ञा मानस है। I
मानसरोवर - भरतक्षेत्र में मध्य आर्यखण्डकी एक नदी - दे० मनुष्य / ४ ।
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मानसाहार - ३० आहार //१
मानसिक दुःख दे० दु.ख । मानसी *१. भगवान् शान्तिनाथको शासिका यक्षिणी-दे० तीर्थ२/५/३२. एक विद्यादे० निया
मानुषोत्तर
मानस्तंभ - वि. १/४/गा का भावार्थ
१. समवशरण की मानस्तम्भ भूमियो के अभ्यन्तर भाग में कोट होते है । ७६२ । जिनके भीतर अनेकों वनखण्ड देवोके क्रीड़ा नगर, वन, वापियाँ आदि शोभित है । ७६३-७६५। उनके अभ्यन्तर भागमें पुन कोट होते है, जिनके मध्य एकके ऊपर एक तीन पीठ है।७६०-७० प्रथम पीठकी ऊँचाई भगवान् ऋषभदेव के समयवारण में ॐ धनुष इसके आगे नाम पर्यन्त प्रत्येक में १/२ धनुषकी हानि होती गयी है। पार्श्वनाथके समवशरणमें इसकी ऊँचाई ५/६ धनुष और वर्धमान भगवान् के समवशरण में से धनुष है। द्वितीय व तृतीय पीठोकी ऊँचाई समान होती हुई सर्वत्र प्रथम पीठसे आधी ६० तीनों पीठोंकी चारों दिशाओं में सीडियों है। प्रथम पीठपर आठ-आठ और शेष दोनो पर चार-चार है । ७७१। तृतीय पीठका विस्तार धनुषसे प्रारम्भ होकर आगे प्रत्येक तीर्थ में 34 कम होता गया, पार्श्वनाथ के समवशरण में ३५ और वर्धमान भगवाद के समवशरण में धनुषा ३७०४ २. तृतीय पीठपर मानस्तम्भ होते हैं। जिनकी ऊचाई अपने-अपने तीर्थंकरकी ऊंचाई १२ गुणी होती है। भगवान् उपभनाथ के समवशरण मे मानस्तम्भका बाहल्य २३६५२ धनुष प्रमाण था । पीछे प्रति तीर्थंकर ११८ धनुष कम होते-होते भगवा पार्श्वनाथ के मानस्तम्भका बाहल्य २३५ धनुष प्रमाण था और भगवान् वर्द्धमान के मानस्तम्भका ४६६ धनुष प्रमाण था । ७७६-७७७। सभी मानस्तम्भ मूल भागमें वज्रद्वारों से युक्त होते हैं और मध्यभागमें वृत्ताकार होते है । [७७८-७७६। ऊपरसे ये चारो ओर चमर, घण्टा आदिसे विभूषित तथा प्रत्येक दिशामें एक-एक जिन प्रतिमासे युक्त होते है १७८०-७८१। इनके तीन-तीन कोट होते है। कोटो के बाहर चारों दिशाओं में बीवियों व ग्रह होते है जो कमतो व कुण्डो से शोभित होते है ।७८२-७६११ ( इसका नकशा - दे० समवशरण ) । नोट - ३. [ मानस्तम्भके अतिरिक्त सर्व ही प्रकारके देवोके भवनो में तथा अकृत्रिम चैत्यालयों में भी उपरोक्त प्रकार ही मानस्तम्भ होते है हाँ भवनवासियोंके भवनोंके लिए (दे० त्रि. सा. / २१६) व्यन्तर देवोके भवनो के लिए - दे० त्रि सा / २५५३ अकृत्रिम लिए दे० त्रि. सा./ १००३ १०१२] ।
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१. मानस्तम्भ नामकी सार्थकता
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ति १/४/०८२ महासयमिच्छा वि दुरो समेत संभाज होति गतिमाणा माणत्वं ति भणिदं ७८२ कि दूरसे ही मानस्तम्भोके देखने से मानसे युक्त मिथ्यादृष्टि लोग अभिमानसे रहित हो जाते हैं, इस लिए इनको मानस्तम्भ कहा गया है।
मानुष - १. मानुषोत्तर पर्वतके रजतकूटका रक्षक एक भवनवासी देव - लोक ५/१० १ २. एक यक्ष- दे० यक्ष ।
मानुषोत्तर-मध्यलोक पुष्कर द्वीप के मध्य स्थित एक कुण्डाकार
पर्व-३० लोक/४/४ स.सि./३/३६/२२८/१० पुष्करद्वीपमध्यभागी महतो मानुषीचरो नाम शैल' । तस्यात्प्रागेव मनुष्या न बहिरिति । ततो न बहि. पूर्वोक्तविभागोऽस्ति यतोऽस्यान्वर्थसंज्ञा पुष्कर द्वीप के ठीक मध्य में चूडीके समान गोल मानुषोत्तर नामका पर्व है। उसके पहले-पहले ही मनुष्य हैं, उसके बाहर नही ( क्योंकि उसको उल्लंघन करनेकी शक्ति मनुष्यों में नहीं है--(दे० मनुष्य / ४ / २) इसलिए इस पर्वतका मानुषोत्तर यह नाम सार्थक है (रा./१/१५ /१६७/३० ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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