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________________ योनिमति ३८८ रतिकार रघुनाथ- नव्यम्यायका प्रसिद्ध प्रणेता। समय--ई० १५२०॥ -दे० न्याय/१/७॥ रघुवंश-दे० इतिहास१०११ । रज-ध १/१,१,१/४३/७ ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव बहिरङ्गान्तरगाशेषत्रिकालगो चरानन्तार्थव्यङजनपरिणामात्मवस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबन्धकत्वाद्रजासि । मोहोऽपि रज. भस्मरजसा पूरिताननानामिव भूयो मोहावरुद्धात्मना जिह्मभावोपलम्भाव। -ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म धूलिकी तरह बाह्य और अन्तरग समस्त त्रिकालके विषयभूत अनन्त अर्थ पर्याय और व्यञ्जन पर्याय स्वरूप वस्तुओको विषय करने वाले बोध और अनुभवके प्रतिबन्धक होनेसे रज कहलाते है। मोहको भी रज कहते है, क्योंकि, जिस प्रकार जिनका मुख भस्मसे व्याप्त होता है उनमें जिह्म भाव अर्थात कार्यकी मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोहसे जिनका आत्मा व्याप्त हो रहा है उनके भी जिह्मभाव देखा जाता है । रजत-१ माल्यवान पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक ५/४,२. मानुषोत्तर पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/१०३.रुचक पवेतस्थ एक कूट -दे० लोक५/१३ । रजस्वला-दे० सुतक । रज्जू-१ औदारिक शरीरमे मास रज्जुओ का प्रमाण-दे० औदारिक/९/७२. क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष-दे० राजू। जायते सेसा सेसेसु जोगीसु ।११०३। -शखावर्त योनिमें नियमसे गर्भ नष्ट हो जाता है ।११०२। कूर्मोन्नत योनिमें तीर्थकर, चक्री, अर्धचक्री, दोनो बलदेव ये उत्पन्न होते है और बाकी की योनियों में शेष मनुष्यादि पैदा होते है ।११०३। (ति.प./४/२६५२), (गो. जी / /८१-८२/२०३-२०४)। ६. जन्म व योनिमें अन्तर स सि /२/३२/१८८/७ योनिजन्मनेरविशेष इति चेत् । न, आधाराधेयभेदात्तभेद । त एते सचित्तादयो योनय आधारा । आधेया जन्मप्रकारा । यत सचित्तादियोन्यधिष्ठाने आत्मा समूच्छेनादिना जन्मना शरीराहारेन्द्रियादियोग्यान्पुद्गलानुपादत्ते । प्रश्नयोनि और जन्म में कोई भेद नही। उत्तर-नहीं, क्योकि आधार और आधेयके भेदसे उनमे भेद है। ये सचित्त आदिक योनियाँ आधार है, और जन्म के भेद आधेय है, क्योकि सचित्त आदि योनि रूप आधारमें सम्मूच्र्छन आदि जन्मके द्वारा आत्मा, शरीर, आहार और इन्द्रियों के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है । (रा वा/२/३२/ १३/१४२/१६) । योनिमति-योनिमति मनुष्य व तियंच निर्देश-दे० वेद/३। योग-नेयायिक दर्शनका अपर नाम-दे० न्याय/१७ । [ ] रइधू-अपभ्रंश जैन कवि थे । कृतियें-मेहेसर चरिउ, सिरिवाल चरिउ, बलहद्द चरिउ, सुक्कोसल चरिउ, धण्णकुमार चरिउ, जसहर चरिउ, सम्मइजिण चरिउ, पउम चरिउ, सम्मत्त गुण णिहाण कव्व, विससार, सिद्ध तत्थसारो इत्यादि । समय-वि. १४५७-१९३६ । (ती/४/१९८)। रक्कस-बेदारेगरेके राजा थे। समय-ई०१७७ (सि वि /म /७५/१. महेन्द्र)। रक्तकंबला-समेह पर्वतस्थ एक शिला है। इस पर ऐरावत क्षेत्रके तीर्थंकरोका जन्म परमाणकके सम्बन्धी अभिषेक किया जाता है। -दे० लोक/२/६ । रक्ताशला-समेरु पर्वतस्थ एक शिला है। जिस पर पूर्व विदेहके तीर्थंकरोका जन्म कल्याणके अवसर पर अभिषेक किया जाता है। -दे० लोक/६। रक्ताकुंड-ऐरावत क्षेत्रस्थ एक कुण्ड, जिसमेसे रक्ता नदी निक लती है। -दे० लोक/३/१०। रक्ताकूट-शिस्त्र पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/१/४ । रक्तादेवी-रक्ताण्ड व रक्ताकूटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक/४॥ रक्तानदी-ऐरावत क्षेत्रकी प्रधान नदी-दे० लोक/३/११,५/४ । रक्तोदाकुण्ड-ऐरावत क्षेत्रस्थ एक कुण्ड-दे० लोक/३/१० ।। रक्तोदादेवी-रक्तोदाकुण्डकी स्वामिनी देवी-दे० लोक१/४ | रक्तोदानदी-ऐरावत क्षेत्रको प्रधान नदी-दे० लोक/३/११,५/४ । रक्षा बन्धन व्रत-श्रावण शु १५ के दिन विष्णुकुमार मुनिने अकम्पनादि ७०० मुनियो पर राजा बलि द्वारा किया गया उपसर्ग दूर किया था। इस दिनको रक्षाबन्धन कहते है। इस दिन उपवास करे और पोला सूत हाथमे बाँधे । और 'ओ ह्री विष्णुकुमारमुनये नम' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत-विधान स./पृ १०८) । रघुइक्ष्वाकु वश मे अयोध्या नगरीका राजा था। (प पू./२२/ १६०) । अनुमानत इसीसे रघुव शकी उत्पत्ति हुई हो। स. सि./८/8/३८५/१३ यदुदयाइदेशादिष्वौत्सुक्यं, सा रति । अरतिस्तद्विपरीता। -जिसके उदयसे देशादिमें उत्सुकता होती है वह रति है। अरति इससे विपरीत है। (रा वा./८/६/४/५७४/१७); (गो कमी प्र./६३/२८/७)। ध. ६/१,६-१,२०/५७/५ रमण रति., रम्यते अनया इति वा रति । जेसि कम्मरवधाणमुदएण दव्व-खेत्त-काल-भावेसु रदी समुप्पज्जइ, तेसि रदि त्ति सण्णा। दब-खेत्त-काल-भावेसु जेसिमुदएण जीवस्स अरई समुप्पज्जइ तेसिमरदि त्ति सणा। रमनेको रति कहते है अथवा जिसके द्वारा जीव विषयो में आसक्त होकर रमता है उसे रति कहते है। जिन कम स्कन्धोके उदयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावो मे राग उत्पन्न होता है, उनकी 'रति' यह सज्ञा है। जिन कर्म स्कन्धोके उदयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोमें जीवके अरुचि उत्पन्न होती है, उनकी अरति सज्ञा है। (ध १३/५.६,६६/ ३६१/६)। ध. १२/४,२.८.१०/२८५/६ नप्तृ-पुत्र-कलत्रादिषु रमणं रति । तत्प्रतिपक्षा अरति । - नाती, पुत्र एव स्त्री आदिको में रमण करनेका नाम रति है। इसकी प्रतिपक्षभूत अर ति कही जाती है। नि, सा/ता. वृ/६ मनोज्ञेषु वस्तुषु परमा प्रीतिरेव रति । = मनोहर वस्तुओ में परम प्रीति सो रति है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. रति राग है। -दे० कपाय/४। २ रति प्रकृतिका बन्ध उदय व सत्व । -दे० वह वह नाम । ३. रति प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम। -दे० मोहनीय/२/६ । रति उत्पादक वचन-दे० वचन। रतिकर-नन्दीश्वर द्वीपकी पूर्वादि चारो दिशाओमे चार-चार बावडि। है। प्रत्येक बावडीके दोनो बाहर वाले कोनों पर एकएक ढोलाकार (Cylindiical) पर्वत है। लाल वर्गका होनेके कारण इनका नाम रतिकर है। इस प्रकार कुल ३२ रतिकर है। प्रत्येकके शीशपर एक एक जिनमन्दिर है-विशेष दे० लोक/४/५। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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