________________
रतिकूट
३८९
रत्नप्रभा
१३, १४ व १५ को उपवास करे। कृष्ण १ को दोपहरको पारणा करे। इन दिनोमे पूर्ण ब्रह्मचर्यसे रहे। 'ओ ही सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य रे। (वत-विधान स./पृ. ४०)। रत्ननदि-नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावली के अनुसार आप वोरनन्दि न. १ के 'शिष्य तथा माणिक्य नं.१ के गुरु थे। समयशक सं०५६१-५८५ (ई.६३६-६६३) -दे० इतिहास/७/२।
रतिकूट-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर । -देव
विद्याधर। रतिप्रिय-किनरनामा व्यन्तर जातिका एक भेद । -दे० किन्नर। रतिषेण-म पु./११/श्लोक नं. "पुष्कलावती देशको पुण्डरीकिणी नगरीका राजा था (२-३)। पुत्रको राज्य देकर जिनदीक्षा ग्रहण की (१२-१३)। सोलहकारण भावनाओका चिन्तवन कर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया। अन्तमें सन्यास मरण कर बैजयन्त विमानमें अहमिन्द्र हुआ ( १३-१५)। रत्न-१. चक्रवर्ती, बलदेव व नारायणके वैभव--दे० शलाकापुरुष/
२,३,४, २. चक्रवर्तीकी नवनिधियो में से एक निधि-दे० शलाकापुरुष/२,३,४.३. रुचक पर्वतस्थ एक कूट -दे० लोक/७। रत्नकीति-१क्षेमकीर्ति (ई. १८) के शिष्य । कृतिआराधनासार की संस्कृत टीका। समय-क्षेमकीर्ति जी के अनुसार ई. १०००-१०३५ । (आ सा/प्र.२/पं.गजाधर लाल)। २. मेधचन्द्र के शिष्य, ललितकीर्ति के विद्या शिष्य । कृति-भद्रबाहू चारित्र। समय-वि, १२६६, ई. १२३६ । (भद्रबाहु चारित्र । प्र.७। डा. कामता प्रशाद)। ३. काष्ठा संघी रामसेन के शिष्य. लक्ष्मणसेन के गुरु । समय-वि. १४५६, ई. १३६६ । (दे. इतिहास/७/६), (प्रद्युम्नचारित्र को अन्तिम प्रशस्ति); (प्रद्य म्न चारित्र। प्र/प्रेमी जी)। ४. भट्टारक अनन्तकीर्ति के शिष्य, ललितकीर्ति के गुरु । कृतिभद्रबाहु चारित्र जिसमें टूढिया मत की उत्पत्ति का कालं वि. १५२७ (ई. १४७०) बताया गया है । श्लोक १५७-१५६ । अत इनका समयलगभग वि. १५७२ (ई १५१५) (ती./३/४३६)। ५. उपदेश सिद्धांत रएनमाला के रचयिता एक मराठी कवि। समय-ग्रन्थ का रचना काल शक १७३४, ई. १८१२ । (ती /४/३२२) । रत्नकरंड श्रावकाचार-आ. समन्तभद्र (ई.श, २) द्वारा रचित
संस्कृत छन्दबद्ध इस ग्रन्थमें ७ परिच्छेद तथा १५० श्लोक है। श्रावकाचार विषयक यह प्रथम ग्रन्थ है । (ती०/२/१११) । इस पर निम्न टीकाएं उपलब्ध है-१. आ. प्रभाचन्द्र ७.(ई ११८५-१२४३) कृत संस्कृत टोका, २ प. सदासुख (ई १७६५-१८६६) कृत भाषा
टीका, जो अत्यन्त विस्तृत व प्रामाणिक है। रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र इन तीन गुणो
को रत्नधय कहते है। इनके विकल्परूपसे धारण करना भेद रत्नत्रय है, और निर्विकल्प रूपसे धारण करना अभेद रत्नत्रय है। अर्थात सात तत्त्वो व देव, शास्त्र व गुरु आदिकी श्रद्धा, आगमका ज्ञान, व व्रतादि चारित्र तो भेद रत्नत्रय है, और आत्म-स्वरूपकी श्रद्धा, इसीका स्त्रसवेदन ज्ञान और इसी में निश्चल स्थिति या निर्विकल्प समाधि अभेद रत्नत्रय है। रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है। भेद रत्नत्रय व्यवहार मोक्षमार्ग और अभेद रत्नत्रय निश्चय मोक्षमार्ग है। -दे०
मोक्षमार्ग । रत्नत्रय कथा-आ पद्मनन्दि (ई. १२८०-१३३०) कृत सस्कृत
ग्रन्थ । रत्नत्रयचक्र यंत्र-दे० यत्र । रत्नत्रय यंत्र-दे० यत्र। रत्नत्रय विधान-इस ग्रन्थ पर प. आशाधर (ई. ११७३-१२४३)
ने सस्कृत भाषामे टोका लिखी है। रत्नत्रय विधान यंत्र-दे० यत्र । रत्नत्रय व्रत-प्रत्येक वर्ष तीन बार-भादो. माघ व चैत मासमे
आता है। शुक्ला द्वादशीको दोपहर के भोजनके पश्चात् धारणा ।
-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर । रत्नप्रभरुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/५/१३ । रत्नप्रभा
१. रत्नप्रभा नामकी सार्थकता स. सि /३/१/२०३/७ चित्रादिरत्नप्रभासहचरिता भूमि' रत्नप्रभा ।
-जिसकी प्रभाचित्र आदि रत्नोको प्रभाके समान है वह रत्नप्रभा भूमि है। (रा. वा/३/१/३/१५६/१७), ( ति. प./२/२०); (ज. प.! १२/१२०)। २. रत्नप्रमा पृथिवीके तीन माग तथा उनका स्वरूप विस्तार आदि ति.प./२/8-१८ खरपंक्पब्बहुला भागा रयणप्पहाए पुढवीए। बहलत्तण सहस्सा सोलस चउसीदि सीदिय ।।। खरभागो णादवो सोलस भेटेहि सजुदो णियमा ।चित्तादीओ खिदिओ तेसि चित्ता बहुवियप्पा ।१० णाणाबिवण्णाओ महिओ वह सिलातला उबबादा। बालुषसकरसीसयरुप्पसुवण्णाण वइरं च ।११। अयतंबतउयसस्सय सिलाहिगुलाणि हरिदाल । अजणपबालगोमज्जगाणि रुजगक अब्भपडलाणि ।१२। तह अभबालुकाओ फलिहं जलकतसूरकताणि । चंदप्पहवेरुलियं गेरुवचदण लोहिदं काणि ।१३। वव्वयवगमोअमसारगतलपदीणि विविहवण्णाणि । जा होति त्ति एदेण चित्तेत्ति य वण्णिदा एसा ।१४। एदाए बहलतं एकसहस्स हवंति जोयणया । तीएहेट्ठा कमसो चोद्दस अण्णा य दिमही ।१४ तण्णामा बेरुलियं लोहिययंक मसारगल्लं च । गोमज्जयं पवालं जोदिरसं अजणं णाम ।१६। अजणमूल अंक फलिहचंदणं च बच्चगय । बहुला सेला एदा पत्तेक्क इगिसहस्सबहलाइ ।१७ ताण खिदीण हेहापासाण णाम रयणसेलसमा । जोयण सहस्सबहलं वेत्तासणसण्णिहाउ सठाओ १८-१. अधोलोकमे सबसे पहली रत्नप्रभा पृथिवी है उसके तीन भाग है-खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग। इन तीनो भागोका बाहल्य क्रमश सोलह हजार, चौरासी हजार और अस्सी हजार योजन प्रमाण है ।। २. इनमेसे खर भाग नियमसे सलह भेदोसे सहित है। ये सोलह भेद चित्रादिक सोलह पृथिवी रूप है। इनमेंसे चित्रा पृथिवी अनेक प्रकारकी है।१०॥ यहाँ पर अनेक प्रकारके वर्णो से युक्त महीतल, शिलातल, उपपाद, बालु, शकर, शीशा, चाँदी, सुवर्ण इनके उत्पत्तिस्थान, वज्र तथा अयस् (लोहा) ताँबा, त्रपु (रांगा), सस्यक (मणि विशेष ), मन शिला, हिगुल (सिगरफ), हरिताल, अजन, प्रवाल (मूंगा) गोमध्यक (मणि विशेष) रुचक अक (धातु विशेष), अभ्रपटल (धातुविशेष ), अभ्रवालुका (लालरेत), स्फटिक मणि, जलकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, चन्द्रप्रभमणि (चन्द्रकान्तमणि), वैडूर्यमणि, गेरु, चन्दन, लोहिताक (लोहिताक्ष), वप्रक ( मरकत ) बकमणि ( पुष्परोड़ा), मोचमणि ( कदली वर्णाकार नीलमणि) और मसारगल्ल ( मसृणपाषाणमणि विद्र मवर्ण) इत्यादिक विविध वर्णवाली धातुएँ है। इसलिए इस पृथिवीका चित्रा इस नामसे वर्णन किया गया है ।११-१४। इस चित्रा पृथिवीकी मोटाई १ हजार योजन है । ३. इसके नीचे क्रमसे चौदह अन्य पृथिवियों स्थित है ।१५॥ वैडूर्य, लोहिताक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org