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पक्ष
३. साध्यामास या पक्षाभासका लक्षण
वि./मू./२/२३/१२ ततोऽपम् साध्याभास विरुद्वादिसाधनाविषय" स्वत |३| इति साध्यसे विपरीत विरुद्धादि साध्याभास है । आदि सम्यसे अनभिप्रेत और प्रसिद्धका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ये तीनों ही साधन विषय नहीं है, इसलिए ये साध्याभास है । ( न्या. दी./३/२०/७०/३) ।
१२-१४ तानिष्टाविपाभास |११| अनिष्ट मीमांसकस्यानित्यशब्द | १३ | सिद्ध श्रावण. शब्द. ११४॥ इष्ट असिद्ध और अबाधित इन विशेषणोसे विपरीत -अनिष्ट सिद्ध व बाधित ये पक्षाभास है। १२० शब्दकी अनिता मोमासको अनि है क्योंकि मीमांसक शब्दको नित्य मानता है | १३ | शब्द कानसे सुना जाता है यह सिद्ध है | १४ |
* बाधित पक्षामास या साध्याभासके भेद व लक्षण - दे० बाधित ।
४. अनुमान योग्य साध्योंका निर्देश
प. सु/३/३०-३३ प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥३०॥ अग्निमानय देश' परिणामी शब्द इति यथा ॥ ३१॥ व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव । ३२ । अन्यथा तदघटनात् ॥३३॥ - [ कही तो धर्म साध्य होता है और कही धर्मी साध्य होता है (दे० पस/१] वहाँ प्रमाणसिद्ध धर्मी और उभयसिद्ध धर्मीने ( साध्यरूप) धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है। जैसे- 'यह देश अग्निवाला है', यह प्रमाण सिद्ध धर्मीका उदाहरण है क्योकि यहाँ देश प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध है। 'शब्द परिणमन स्वभाववाला है' यह उभय सिद्ध धर्मीका उदाहरण है; क्योकि, यहाँपर शन्दका धर्मी उभय सिद्ध है । ३०-३१। व्याप्ति में धर्म ही साध्य होता है। यदि व्याभिकालने धर्मको छोडकर धर्मी साध्य माना जायेगा तो व्याप्ति नही बन सकेगी । ३२-३३॥
५. पक्ष व प्रतिपक्षका लक्षण
न्या. सू./टी./१/४/४१/४०/१६ तो साधनोपालम्भी पक्षप्रतिपक्षाध्य व्यतिषक्तानुबन्धेन प्रर्तमानी पतिपक्षा४१ स्वा.सू./टी./१/२/१/४१/२९ एकाधिकरणस्यी विरुद्ध धर्मो पक्षप्रतिपक्षी प्रत्यनीकभावादस्त्यात्मा नास्यामेति नानाधिकरणी विरुद्धौ न पक्षप्रतिपक्षौ यथा नित्य आत्मा अनित्या बुद्धिरिति । -साधन और निषेध का क्रमसे आश्रय ( साधनका ) पक्ष है। और निषेधका आश्रय प्रतिपक्ष है (स्था में /३० / ३३४ / १६) एक स्थानपर रहनेवाले परस्पर विरोधी दो धर्म अपना मत ) और प्रतिपक्ष (अपने विरुद्ध मादीका मत अर्थाद प्रतिवादीका मत ) कहते है। जैसे कि - एक कहता है कि आत्मा है, दूसरा कहता है कि आत्मा नही है । भिन्न भिन्न स्थानमे रहनेवाले परस्पर विरोधी धर्म पक्ष प्रतिपक्ष नही कहाते । जैसे - एक ने कहा आत्मा नित्य है और दूसरा कहता है कि बुद्धि अमिय है।
६. साध्य से अतिरिक्त पक्षके ग्रहण का कारण
प. मु/३/३४-३६ । साध्यधर्माधार संदेहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ॥२४॥ साध्यधर्मिणि साधनधर्मायगोधनाय पक्षधर्मोपसंहारad | ३५ | को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥ ३६ ॥ - साध्यविशिष्ट पर्वतादि धर्माने हेतुरूप धर्मको समझाने के लिए जैसे उपनयका प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार साध्य ( धर्म ) के आधार में सन्देह दूर करनेके लिए प्रत्यक्ष सिद्ध होनेपर भी पक्षका प्रयोग किया जाता है। क्योंकि ऐसा कौन मादी प्रतिवादी है, जो कार्य, व्यापक, अनुपलम्भके भेदसे तीन प्रकारका हेतु कहकर समर्थन
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करता हुआ भी पक्षका प्रयोग न करे ? अर्थात् सबको पक्षका प्रयोग करना ही पडेगा ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१ प्रत्येक पके लिए पश्पक्षका निषेध ३०/४२ पक्ष विपक्ष के नाम निर्देश- दे० अनेकांत ॥४१ ३ कालका एक प्रमाण दे० गणित / II / ४ |
पक्षपात
१. लक्षण व विषय आदि - दे० श्रद्धान |५| २ सम्यग्दृष्टिको पक्षपात नही होता - दे० सम्यग्दृष्टि |४| पक्षेप- “शलाका ।
पटच्चर—भरक्षेत्र मध्य का एक देश।०४। पटल --- १ त्रि. सा. / ४७६ / भाषा तिर्यकरूप बरोबर क्षेत्र विषै जहाँ विमान पाईए ताका नाम पटल है । २ Dix (ज. प / प्र १०७ ) विशेष दे. पट्टन — दे० पत्तन । नरव ५ वर्ग २९ पट्टावली- - दे० इतिहास / ४.५ । पणट्ठी (२६६) १६६५३६० गणित पण्यभवन सुमेरु पर्वत नन्दनादिनों भवन / दे० लोक /७ ।
पद
पण्हसवण- घरसेनाचार्यका ही दूसरा नाम हम भी है. क्योकि 'प्रज्ञाश्रमण' का प्राकृत रूप 'पण्हसवण' है। यह एक ऋद्धि है, जो सम्भवत धरसेनाचार्यको थी, जिसके कारण उन्हें भी कदाचित् 'पण्हसवण' के नामसे पुकारा गया है । बि० १५५६ में लिखी गयी बृहट्टिप्पणिका नामकी ग्रन्थ सूचीमें जो 'योनि प्राभृत' ग्रन्थका कर्ता 'पपण को बताया है, वह वास्तव मे घरसेनाचार्य की ही कृति थी। क्योकि सूचीमें उसे भूतबलिके लिए लिखा गया सूचित किया गया है .. १/३० / H L ) बै०धरसेन
पत्तन - ति प /४/१३६६ वररयणाणं जोणीपट्टणणामं विणिद्दिट्ठ ।
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= जो उत्तम रत्नोकी योनि होता है उसका नाम पट्टन कहा गया है। | १३ | त्रि सा / भाषा / ६७६) ।
"सेनाका एक अंग- दे० सेना ।
ध १३/५,५,६३/३३५/६ नावा पादप्रचारेण च यत्र गमनं तत्पत्तनं नाम । = नौकाके द्वारा और पैरोसे चलकर जहाँ जाते है उस नगरकी पत्तन मंशा है। पत्ति
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/१/१। पूर्व में स्थित सोमदेवका
पत्नी - दे० स्त्री । पत्रचारणऋद्धि दे०
पत्रजाति पत्र जाति वनस्पतिमें भक्ष्याभक्ष्यविचार-दे० भक्ष्याभक्ष्य /४। पत्रपरीक्षा-आ० विद्यानन्य (०७७-४०) द्वारा संस्कृत भाषामे रचित न्याय विषयक ग्रन्थ है। इस पर पं जयचन्द छाबड़ा (ई० १८०६-१०३४) कृत भाषा टीका प्राप्त है। तो /२/६५०) ।
पद ---- १. गच्छ अर्थात् Number of Terms. २. सिद्ध पद आदिकी अपेक्षा
न्या. / वि /टी./१/७/१४० / २६ पद्यन्ते ज्ञायन्तेऽनेनेति पद । = जिसके द्वारा जाना जाता है वह पद है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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ध १०/४,२, ४, १/१८/६ जस्स जम्हि अवट्ठाणं तस्स तं पदं जहा सिद्धिखेत्तं सिद्धाणं पदं । अत्थालावो अत्थावगमस्स पद पद्यते गम्यते परिच्छिद्यते इति पदम् । • जिसका जिसमें अवस्थान है वह उसका पद अर्थात् स्थान कहलाता है। जैसे सिद्धिक्षेत्र सिद्धोका पद है ।
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