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पंचस्तूपसंघ
इसपर ८००० श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है जिसपर मलयागिरि कृत एक संस्कृत टीका भी है। इसका रचनाकाल वि० श०१०है। ३ दि० संस्कृत पंचसंग्रह प्रथम-पंचसंग्रह प्रा, १ के आधारपर आचार्य अमितगतिने वि०१०७३ (ई०१०१६) में रचा है। इसमें भी पाँच प्रकरण है, तथा इसका प्रमाण १४५६ श्लोक पद्य व,१००० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है। ४ दि० संस्कृत पंचसंग्रह द्वि०-पचसग्रह प्रा०१ के आधारपर श्रीपाल सुत श्री डड्ढा नामके एक जैन गृहस्थने वि० श०११ में रचा था। इसकी समस्त श्लोक सख्या १२४३ तथा गद्यभाग ७०० श्लोक प्रमाण है। ५ पंचसंग्रह टीका-पंचसग्रहान १ पर दो संस्कृत टीकाय उपलब्ध है ।-एक वि० ११२६ में किसी अज्ञात आचार्य द्वारा लिखित है और दूसरी वि १६२० में समति कीति भट्टारक द्वारा लिखित है । विविध ग्रन्थो से उक्त प्रकरणों का स ग्रह होने से यह वास्तव में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसी है जिसे रचयिता ने 'आराधना नाम दिया है। चूणियों का शैली में रचित १४६ श्लोक प्रमाण तो इसमें गद्य भाग है और ४००० पलीक प्रमाण पद्य भाग । अधिकार सख्या पाच ही है। आ०पच नन्दि कृत अबू दीवपणति के एक प्रकरण को पूरा का पूरा
आत्मसात कर लेने के कारण यह पद्यनन्दि कृत प्रसिद्ध हो गई है। ६. इनके अतिरिक्त भी कुछ पच संग्रह प्रसिद्ध है जैसे गोमट्ट सार का अपर नाम पचसंग्रह है। श्री हरि दामोदर बेलकर ने अपने जिन रत्नकोष में 'पंचसंग्रह दीपक' नाम के किसी अन्य का उल्लेख किया है जो कि उनके अनुसार गोमटूटू सार का इन्द्र बामदेव
कृत पद्यानुवाद है। विशेष दे० परिशिष्ट । पंचस्तूपसंघ-दे० इतिहास/५/३ । पचाक-ध. १२/४.२.७.२१४/१७०/६ संखेज्जभागवड्ढो पंचको । त्ति घेत्तव्बो । -संख्यात भाग वृद्धिकी पंचांक संज्ञा जाननी
चाहिए । (गो, जी./मू./३२५/६८४) पंचाग्नि-पचाग्निका अर्थ पंचाचार । दे०-अग्नि । पंचाध्यायो-प राजमलजी (त्रि १६५०ई १५६३) द्वारा संस्कृत श्लोकोंमें रचित एक दर्शन शास्त्र। इस के दो ही अध्याय पूरे करके पण्डितजी स्वर्ग सिधार गये। अत' यह ग्रन्थ अधूरा है। पहले अध्यायमें ७६८ तथा दूसरेमें ११४४ श्लोक है ।(ती./४/८१) पंचास्तिकाय-विषय-दे० अस्तिकाय प्रिन्ध - राजा शिव कुमार
महाराज के लिए आ० कुन्द कुन्द (ई० १२७-१७६) द्वारा लिखित १७३ प्राकृत गाथा प्रमाण तत्त्वार्थ विषयक ग्रन्थ । (० २/२१)। इस पर आठ टीकार्य उपलब्ध है-१, आ० अमृत चन्द्र ई०१०५ १५५१ कृत तत्त्व प्रदीपिका। २ आ० प्रभा चन्द्र नं.४ (ई०५०१०२०) कृत पञ्चास्तिकाय प्रदीप । (जै ०/२/३४७)।३ आ.जयसेन (ई० २०११ अन्त १२ पूर्व) कृत तारपय वृत्ति (जै०/२/१२) ४. मलिषेण भट्टारक (ई० ११२८) कृत टोका। बाल चन्द्र (ई० श०१३ पूर्व) कृत कन्नड टीका (जै ०/२/१९४)। ६. प० हेमचन्द (ई०१६४३-१६७०) कृत भाषा वच निका। ७. भट्टारक ज्ञान चन्द (ई०१७१८) कृत टीका (पं० का०/०३५० पन्नालाल)। बुधजम (ई०१८३४) कृत भाषा टीका (ती०/४/२६८)। पंचेन्द्रिय जाति-दे० जाति/१ । पचेन्द्रिय जीव-दे० इन्द्रिय/४। पंजिका-क. पा.२/२,२२/२६/१४/८ वित्तिमुत्तविसमपयभंजियाए
पंजियववएसादो। - वृत्तिसूत्रोंके विषम पदोंको स्पष्ट करनेवाले विवरणको पंजिका कहते हैं।
पंडित--प.प्रम/२/१४ देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ।
परमसमाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥१४॥ जो पुरुष परमात्माको शरीरसे जुदा केवलज्ञानकर पूर्ण जानता है वही परमसमाधिमे तिष्ठता हुआ पडित अर्थात् अन्तरात्मा है । पंडितमरण-दे० मरण/१ । पप-राजा अरिकेसरीके समयके एक प्रसिद्ध जैन कन्नड कवि ।
कृतियॉ-- आदिपुराणचम्पू (म. पु/प्र. २० प पन्नालाल ), भारत या विक्रमार्जुनविजय। समय-वि. ६६८ (ई १४१) में 'विक्रमार्जुनविजय' लिखा गया था-(यशस्तिलकचम्पू/प्र २०/पं सुन्दरलाल)। पउमचरिउ-दे० पद्मपुराण । पक्ष-विश्वासके अर्थमे म. पु/३/१४६ तत्र पक्षो हि जैनाना कृस्न हिसाविवर्जनम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थै रुपबृहितम् ॥१४६। =मैत्री, प्रमाद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिंसाका त्याग करना
जैनियोका पक्ष कहलाता है। (सा.ध./१/१६) । पक्ष-न्यायविषयक प. मु/३/२५-२६ साध्यं धर्म. क्वचित्त द्विशिष्टो वा धर्मी ॥२५॥ पक्ष इति
यावत ।२६। = कही तो (व्याप्ति कालमे) धर्म साध्य होता है और कही धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है। धर्मीको पक्ष भी कहते
है ।२५-२६॥ स्या म /३०/३३४/१७ पच्यते व्यक्ती क्रियते साध्यधर्मवैशिष्टयेन हेत्वादिभिरिति पक्ष । पक्षीकृतधर्मप्रतिष्ठापनाय साधनोपन्यास । जो साध्यसे युक्त होकर हेतु आदिके द्वारा व्यक्त किया जाये उसे पक्ष कहते है। जिस स्थलमे हेतु देख कर साध्यका निश्चय करना हो उस स्थल
को पक्ष कहते है। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका--जहाँ साध्यके रहनेका शक हो । 'जैसे इस कोठेमें धूम है' इस दृष्टान्तमे कोठा पक्ष है।
२. साध्यका लक्षण न्या वि./मू /२/३८ साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धम् ।.. १३॥ न्या. दो./३/२०/६६/६ यत्प्रत्यक्षादिप्रमाणाबाधितत्वेन साधयितुं शक्यम वाद्यभिमतत्वेनाभिप्रेतम, सदेहाद्याक्रान्तत्वेनाप्रसिद्धस्, तदेव साध्यम् । = शक्य अभिप्रेत और अप्रसिद्धको साध्य कहते है। (श्लो. वा. ३/१/१३/१२२/२६६) । शक्य वह है जो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित न होनेसे सिद्ध किया जा सकता है। अभिप्रेत वह है जी वादीको सिद्ध करनेके लिए अभिमत है इष्ट है। और अप्रसिद्ध वह है
जो सन्देहादिसे युक्त होनेसे अनिश्चित है । वही साध्य है। प. मु./३/२०-२४ इष्टमबाधितमसिद्ध साध्यम् ।२०। सदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्य सिद्ध पदम् ।२१। अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयो साध्यत्व मा भूदितीष्टाबाधितवचनम् ।२२। न चासिद्धवदिष्ट प्रतिवादिन' ।२३। प्रत्यायनाय हि इच्छा वक्तुरेव ।२४। जो वादीको इष्ट हो, प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे बाधित न हो, और सिद्ध न हो उसे साध्य कहते है ।२०। -सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न पदार्थ ही साध्य हो इसलिए सूत्र में असिद्ध पद दिया है ।२१॥ वादीको अनिष्ट पदार्थ साध्य नहीं होता इसलिए साध्यको इष्ट विशेषण लगाया है। तथा प्रत्यक्षादि किमी भी प्रमाणसे बाधित पदार्थ भी साध्य नहीं होते, इसलिए अबाधित विशेषण दिया है ।२२। इनमेंसे 'असिद्ध' विशेषण तो प्रतिवादीकी अपेक्षासे और 'इष्ट' विशेषण वादीकी अपेक्षासे है, क्योकि दूसरेको समझानेकी इच्छा वादीको ही होती है ।२३-२॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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