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________________ भक्ष्याभक्ष्य २०३ ४. बनस्पति विचार ला.स /२/२६ योक्ति न भक्ष्य स्यादन्नादि पलदोषत। आसवारिष्ट ४. कच्चे दूध-दही के साथ विदल दोष संधानथानादीना कथात्र का ५॥ जहाँ बासी भोजनके भक्षणका त्यागका कराया, वहाँपर आसन, अरिष्ट, सन्धान व अथान अर्थात सा ध/५/१८ आमगोरससपृक्त, द्विदल प्रायशोऽनबम् । वर्षास्वदलित अॅचार-मुरब्बेको तो बात ही क्या। चात्र नाहरेत ।१८। कच्चे दूध, दही व मट्ठा मिश्रित द्विदलको, बहुधा पुराने द्विदलको, वर्षा ऋतु में बिना दले द्विदलको नही खाना १.बीधा व सन्दिग्ध अन्न अभक्ष्य है चाहिए ।१८। (चा पा./२१/४३/१८)। अ. ग श्रा/६/८४ विद्ध' पुष्पितमन्न कालिङ्गद्रोणपुष्विका त्याज्या। बत विधान सं./पृ ३३ पर उद्धृत-योऽपक्कतकं द्विदलान्नमिश्र भुक्त =ीधा और फूई लगा अन्न और कलीदा व राई ये त्यागना योग्य विधत्ते मुस्त्रबाष्पसगे। तस्यास्यमध्ये मरणं प्रयत्ना सन्मूछिका है। (चा. पा /टो./२४/४/१६) जीवगणा भवन्ति ।- कच्चे दूध दही मट्ठा व द्विदल पदार्थोके मिलनेला.स /२/श्लोक न विद्ध त्रसाश्रित यावद्वर्ज येत्तदभक्ष्यवत् । शतश. से और मुखकी लारका उनमें सम्बन्ध होनेसे असख्य सम्मुर्छन शोधित चापि सावद्यानै गादिभि ।१६। सदिग्ध च यदन्नादि श्रित त्रस जीव राशि वैदा होती है, इसके महान् हिंसा होती है। अत' वा नाश्रित त्रसै । मन.शुद्धिप्रसिद्धार्थ श्रावक क्वापि नाहरेत् ॥२०॥ वह सर्वथा त्याज्य है। (ला, सं/२/१४५) । शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्याद ग्रहणं कृती। कालस्यातिकमाइ भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत् ।३२। धुने हुए या बीधे हुए अन्नमें भी अनेक त्रस ५. पक्के दूध-दहीके साथ विदक दोष जीव होते है। यदि सावधान हाकर नेत्रोके द्वारा शोधा भी जाये तो बत विधान स./पृ. ३३ जब चार मुहरत जाहीं, एकेन्द्रिय जिय उपजाही। भो उसमेसे सब त्रस ज बोका निकल जाना असम्भव है। इसलिए बारा घटिका जब जाय, बेइन्द्रिय तामें थाय । षोडशघटिका हूँ सैकडों बार शोधा हुआ भो घुना व बोधा अन्न अभक्ष्यके समान जबही, तेइन्द्रिय उपजे तबही। जब बीस घडी गत -जानी, उपजै त्याज्य है ।१६। जिस पदार्थमे त्रस जोबोके रहनेका सन्देह हा । चौइन्द्रिय प्राणी। गमिया घटिका जब चौबीस, पचेन्द्रिय जिय (इसमें त्रस जोब है या नही ) इस प्रकार सन्देह बना ही रहे तो भी पूरित तीस । है है नही सशय आनी, यो भाषै जिनवर वाणी। श्रावकको मन शुद्धिके अर्थ छोड देना चाहिए ।२०। जिस अन्नादि बुधि जन लाख ऐसो दोष, तजिये ततछिन अघकोष। कोई ऐसे पदार्थको शोधे हुए कई दिन हो गये हों उनको ग्रहण नही करना कहवाई, खै है एक याम ही माही। मरयाद न सधि है मूल तजि है, चाहिए। जिस पदार्थको शोधनेपर मर्यादासे अधिक काल हो गया जे बत अनुकूल । खावे मे पाय अपार छाडे शुभगति है सार। है, उनको पुन शाधकर काममे लेना चाहिए ॥३२॥ ६. द्विदलके भेद ३. गोरस विचार वत विधान सग्रह/पृ. ३४ १, अन्नद्विदल-मूग, मोठ, अरहर, मसूर, उर्द, चना, कुलथी आदि । २ काष्ठ द्विदल-चारोली, बादाम, पिस्ता, १. दहीके लिए शुद्ध जामन जीरा, धनिया आदि। ३ हरीद्विदल-तोरइ, भिण्डी, फदकुली, बत विधान स./३४ दही बांधे कपडे माही, जब नीर न बूद रहाही। घीतोरई, खरबूजा, ककड़ी, पेठा, परवल, सेम, लौकी, करेला, खीरा तिहि को दे बडी सुखाई राखे अति जतन कराई। प्रासुक जलमे धो आदि घने बाज युक्त पदार्थ । नोट-(इन वस्तुओमें भिण्डी व लीजे, पयमाही जामन दोजे। मरयादा भाषी जेह, यह जावन सो परवलके बोज दो दाल वाले नहीं होते फिर भी अधिक बीजोकी लव लीजै । अथवा रुपया गरमाई, डारे पयमें दधि थाई। अपेक्षा उन्हे । द्वदलमे गिनाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है। और २. गोरसमें दुग्धादिके त्यागका क्रम रखरबूजे व पेठेके बीजसे ही द्विदल होता है, उसके गूदेसे नही। ४ शिखरनी-दही और छाछमे कोई मीठा पदार्थ डालनेपर उसकी क. पा. १/१,१३,१४/गा.१९२/पृ. २५४ पयोबतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति मर्यादा कुल अन्तर्मुहूर्त मात्र रहती है। १. काजी- दही छाछमें राई दधिवत । अगोरसवतो नो चेत तस्मात्तत्त्व त्रयात्मकम् ।११२॥ व नमक आदि मिलाकर दालके पकोडे आदि डालना। यह सर्वथा = जिसका केवल दूध पीनेका नियम है वह दही नही खाता दूध ही अभक्ष्य है पीता है, इसी प्रकार जिसका दही खानेका नियम है वह दूध नही पीता है और जिसके गोरस नही खानेका व्रत है, वह दूध और दही ४. वनस्पति विवार दोनोको नही खाता है। १११२। ३. दूध अमक्ष्य नहीं है १. पंच उदुम्बर फलों का निषेध व कारण सा. ध /२/१० पर उदघृत फुटनोट-मासं जीवशरीर, जीवशरीर भवेन्नपुसि उ/७२ ७३ यो निस्दुम्बर युग्म प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि । या मासम् । यद्व निम्ब। वृक्षो, वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्ब ह। शुद्ध दुग्ध त्रसजीवाना तस्मात्तंषा तभक्षणे हिसा १७२। यानि तु पुनर्भवेयु न गोमास, वस्तुवै चिध्यम दृशम् । विषघ्न रत्ममाहेयं विषं च विपदे कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिसा विशिष्टरागादियत ।१० हेय पल पय पेय, समे सत्यपि कारणे। विषद्रोरायुषे पत्रं, रूपा स्यात् ।७३। ऊमर, कमर, पिलखन, बड और पीपलके फल मूल तु मृतये मतम् ।११ जो जोवका शरीर है वह मास है ऐसी त्रस जीवोकी गे नि है इस कारण उनके भक्षणमें उन त्रस जीवोंकी तर्क सिद्ध व्याप्ति नहीं है, किन्तु जो मास है वह अवश्य जीवका शरीर हिसा होती है ।७२। और फिर भी जो पाँच उदुम्बर रूखे हुए काल है ऐसी व्याप्ति है। जेसे जो वृक्ष है बह अवश्य नीम है ऐसी व्याप्ति पाकर भ्रस जीवोसे रहित हो जाये तो उनको भी भक्षण करनेवालेके नहीं अपितु जो नीम है वह अवश्य वृक्ष है ऐसी व्याप्ति है ।। गायका विशेष रागादि रूप हिसा हाती है 1७३। ( सा. ध /२/१३)। दूध तो शुद्ध है. मास शुद्ध नहीं। जैसे-सर्पका रत्न तो विषका वसु श्रा५८ उंबार-बड-पिपल पिपरीय-सधाण-तरुपसूणाइ । णिच्च नाशक है किन्तु विष प्राणोका घातक है। यद्यपि मास और दूध तसस सिद्धाई ताह परिवज्जिनवाइ ।५८५-ऊंबर, मड, पीपल, कटूदोनोकी उत्पत्ति गायसे है तथापि ऊपरके दृष्टान्तके अनुसार दुध ग्राह्य मर और पाकर फल. इन पाँचो उदुम्बर फल, तथा सधानक है मास त्याज्य है। एक यह भो दृष्टान्त है कि-विष वृक्षका पत्ता (ॲचार ) और वृक्षोके फूल ये सब नित्य त्रस जीवोसे ससिक्त अर्थात् जीवनदाता वा जड मृत्युदायक है ।११॥ भरे हुए रहते है, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए ।५८। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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