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परिणाम
३ सदृश व विसदृश परिणाम
पं. ध. / ५ / १८२ सहशोत्पादो हि यथा स्यादुष्ण परिणमन् यथा वह्नि । स्यादित्यसदृशजन्मा हरितात्पीतं यथा रसालफलम् | १२| सहश उत्पाद यह है कि जैसे परिणमन करती हुई अग्नि उष्णकी उष्ण ही रहती है, और आमका फल हरितवर्ण से पीतवर्ण रूप हो जाता है यह असदृश उत्पाद है | १८२०
पं. ध / पू / ३२७-३३० जोवस्य यथा ज्ञान परिणाम परिणमस्तदेवेति । सहास्योदाहतिरिति [जातैरनतिक्रमा ३२४५ यदि वा तदिह ज्ञान परिणाम परिणमन्न तदिति यत । स्वावसरे यत्सत्वं तदसत्त्व परत्र नययोगात् । ३२८ | अत्रापि च सदृष्टि सन्ति च परिणामतोऽपि कालाशा | जातेरनतिक्रमत सदृशत्वनिबन्धना एवं | ३२० अपि नययोगाद्विसदृशसाधनसिद्धयै त एव कालाशा । समय समयः
समय सोऽपीति बहुप्रतीतित्वात् ॥ ३३०| - जैसे जीवका ज्ञानरूप परिणाम परिणमन करता हुआ प्रति समय ज्ञानरूप ही रहता है यही ज्ञानत्वरूप जातिका उल्लघन नहीं करनेसे सदृशका उदाहरण है | ३२७ | तथा यहाँ पर वही ज्ञानरूप परिणाम परिणमन करता हुआ यह यह नहीं है 'अर्थात् पूर्वज्ञानरूप नहीं है। यह मिसहकार है क्योकि विवक्षित परिणामका अपने समय को सत्य है. दूसरे समय में पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे वह उसका सत्त्व नहीं माना जाता है |३२| और इस विषय में भी खुलासा यह है कि परिणाम से जितने भी ऊर्ध्वाश कल्पनारूप स्वकाल के अंश है वे सब अपनी अपनी द्रव्यत्व जातिको उल्लंघन नहीं करनेके कारण से सदृशपनेके द्योतक है |३२| तथा वे ही कालके अश 'वह भी समय है, वह भी समय है, वह भी समय है' इस प्रकार समयोमे बहुतकी प्रतीति होनेसे पर्यायाधिकनकी अपेक्षाने निहताकी सिद्धिके लिए भी समर्थ
४ तीव्र व मन्द परिणाम
स. सि /६/६/३२३/१० बाह्याभ्यन्तरहेतुदीरणवशादुद्रिवत परिणामस्तीव । तद्विपरीतो मन्द । =बाह्य और उदीरणा वश प्राप्त होनेके कारण जो उत्कट परिणाम होता है वह तीव्रभाव है । मन्दभाव इससे उलटा है (रा. बा./६/६/१/५११ / ३२३।
४. सखना सम्बन्धी परिणमन निर्देश
भ.आ./वि/१०/२६४/१० उद्धाय परिणाम इति
जीव
=
व्यस्य क्रोधादिना दर्शनादिना वा भवनं परिणाम इति यद्यपि सामान्येनोकं तथापि व्यस्थ कार्यस्यालोचन मह परिणाम इति गृहीतस्तद्भाव परिणाम ऐसा पूर्वाचार्यका वचन है अर्थात् जीवारिक पदार्थ क्रोधादिक विकारोंसे अथवा सम्यग्दर्शनादिक पर्यायोसे परिणत होना यह परिणामशब्दका सामान्य अर्थ है । तथापि यहाँ यतिको अपने कर्तव्यका हमेशा खयाल रहना परिणाम शब्दक प्रकरण सगत अर्थ समझना चाहिए ।
५. परिणाम हो बन्ध या मोक्षका कारण
प्रो. सायो / १४ परिणा मैं बंधु जि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियाणि । जाणे विणु जीव तहुँ तह भाव हु परियाणि | १४| परिणामसे ही tant बन्ध कहा है और परिणामसे ही मोक्ष कहा है । यह समझ कर, हे जीव तू निश्चयसे उन भावोंको जान | १४ |
६. माला के दानोंवत् सत्का परिणमन
प्र. सा./त.प्र / १६ स्वभावानतिक्रमास्त्रिलक्षणमेव सत्त्वमनुमोदनीयम् मुकादम घथेन हि परिगृहीतामिनि
फलदामनि समस्तेष्वपि स्वधाममुच्चकारात् मुक्ताफलेपूतरोरेषु
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परिदेवन
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धामयुतरोतर सुन्तालानामुदयनात्पूर्वपूर्ण मुसाफसानामा सर्वत्रापि परस्परानुस्मृतिस्थ सूत्रस्यापस्थानाय प्रसिद्धि वरति रावेन हि परिगृहीतनिवृत्तिनाने समस्तेयपि स्वापसरेच्चास परिणामेत्तरोत्तरे वसरेषुत्तरोतर परिणामा नामुश्यनात्पूर्वपूर्व परिणामामामनुश्यना सर्वत्रापि परस्परानुस्मृतिश्याम्यानाम्यं प्रसिद्धिमवतरति स्वभाव से ही त्रिलक्षण परिणाम पद्धति (परिणामोको परम्परा) प्रवर्तमान द्रव्य स्वभावका अतिक्रम नही करता इसलिए सत्को त्रिलक्षण ही अनुमोदित करना चाहिए मोतियो हारको भांति जैसे जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐमे लटकते हुए मोतियो के हार में, अपनेअपने स्थानोंमें प्रकाशित होते हुए समस्त मोतियो पो पीके स्थानोंमें पीछे-पीछे मोती अगर होते है इसलिए, और पहले-पहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिए सर्वत्र परस्पर अनुस्मृतिका रचयिता सूत्र अवस्थित होनेसे त्रिह्मणश्व प्रसिद्धिको प्राप्त होता है। इसी प्रकार जिसने नित्य वृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिममित) होते हुए मे अपने-अपने अवसरोमे प्रकाशित होते हुए समस्त परिणामोमें पीछे-पीछे अवसरोपर पीले-पीले परिणाम प्रगट होते है इसलिए और पहले-पहले के परिणाम नही प्रगट होते है इसलिए, था सर्वत्र परस्पर अनुस्मृति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होनेसे प्राप्त होटा है (सा. २३) (प्र. सा / १/८०) (१/४०२-४०३) ।
का/त प्र / १६ का भावार्थ मालाके दानोके स्थानपर बाँसके पर्व से सबके परिणमनकी सिद्धि
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. उपयोग अर्थ में परिणाम ।
२. शुभ व अशुभ परिणाम।
३. अन्य व्यक्तिके गुप्त परिणाम भी जान लेने सम्भव है
४. परिणामोंकी विचित्रता निगोद से निकलकर मोक्ष |
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-दे० उपयोग/11 - दे० उपयोग /lI |
- दे० विनय / ५।
- दे० जन्य / १ । ५ अगत गुणस्थानसे पहिले सर्व परिणाम अप प्रवृत्तकरण रूप होते है । - दे० करण / ४ । परिणाम प्रत्यय प्रकृतियाँ - दे० प्रकृति बन्ध / २ | परिणाम योगस्थान दे० योग / ५। परिणाम शक्ति
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
सा./आ०/१९ शक्ति में १६ व्यस्व भावभूतधौपव्ययोत्पादशतिमितरकालिमात्रमयी परिणामशक्ति द्रव्य स्वभाव ऐसे भव्य-व्यय-उत्पादो स्पर्शित जो समान रूप में असमान रूप परिणाम उन स्वरूप एक अलि मात्र पीसी परिणाम है। परिणाम शुद्ध प्रत्याख्यान - दे० प्रत्याख्यान / १ | परिणामी
-वह द्रव्योमें परिणामी अपरिणामी विभाग- दे० /२०
परिदावन - घ. १३/३,४,२९ / ४६ / १२ संतापजनन परिदावणं णाम ।
सन्ताप उत्पन्न करना परिदावण कहलाता है।
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परिदेवन - सि./६/१२/२२६ / २ सपरिणामयम् गुण स्मरणानुकीर्तनपूर्वक स्वरानुपाभितापविषयमा रोदनं परिदेवनम् । =सक्लेशरूप परिणामोके होनेपर गुणोका स्मरण और दूसरेके उपकारको अभिलाषा करुणाजनक रोना परिदेवन है । (रा.वा./६/१९/६/५१६ / ३९ ) ।
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