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परिधि
परिषद
परिधि-१ Circumference (ज प्र/प्र १०७) २ परिधि
२. परिषह जयका लक्षण निकालनेकी प्रक्रिया-दे० गणित/11/७/२।
स सि /8/२/०६/६ परियहस्य जय परिपहज । - १९५८ । जतना परिपोडिन-कायोत्सर्ग का एक अतिचार-दे० व्युत्लग/१ ।
परिषह जय है ( रा वा/8/२/६/५६२/- ।। परिभोग-दे० भोग।
भ आ /वि/१९७१/११५६/१८ “दु खोपानपाते क रहला । पह
जय ।" दुख आनेपर भी सक्लेश परिणाम न होना ही परिषहपरिमह-वस्तिकाका एक दोघ-दे० 'वस्तिका'
जय है। परिमाण-Magnitude (ध ५ प्र २७)
का अ/म् / सो विपरिमह-विजओ हादि-पीडाण अहरउद्दाः । परिमाणहीन-Dinensionless (ध ५/ २७)।
सवणाण च मुणीण उपसम-भावेण ज सहण । - अत्यन्त भयानक
भूख आदिकी वेदनाको ज्ञानी मुनि जो शान्तभासे सहन करते है, परिमित--Finite. (जप./प्र १०७) ।
उसे परिषजय कहते हैं । । परिलेखा-दे० परीलेखा।
द्र स टी /३/१४६/१० "क्षुधादिवेदनाना तीवोदयेऽपि समतारूप परिवते-१ आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४/४, २ बस्तिका परमसामायिकेन • निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानन्द___ का एक दोष-दे० बस्तिका ।
लक्षणसुखामृतम वित्तरचलनं स परिषहजय इति । -क्षुधादि बेदपरिवतन-१ अससंचार-दे० गणित/II/३/१।२ पंच परिवर्तन
नाओके तीव्र उदय होने पर भी.. समता रूप परम् सामायिक के द्वारा
निज परमात्माकी भावनासे उत्पन्न, विकार रहित, नित्यानन्द रूप रूप संसार-दे० संसार ।
सुखामृत अनुभवसे, जो नही चलना सो परिषहजन है। परिवत्ता -ध/४.१.५४/२६२/११ अविसरणह्र पुणो पुणो भावागमपरिमलण परियट्टणा णाम ! = ग्रहण किया हुआ अर्थ विस्मृत ३. परिषहके भेद न हो जावे, एतदर्थ बार-बार भावागमका परिशीलन करना परिवर्तना है । (ध.१४/५,६,१२/६/५)।
त.सू /१/१ क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्या
शय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कार पुरस्कारप्रज्ञाज्ञाना - परिशातन-ध.६/४,१,६६/३२७/१ तेसिं चेव अप्पिदसरीरपोग्ग
दर्शनानि ॥ ॥ = क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, लखधाणं संचएण विणा जाणिज्जरा सा परिसादणकदी णाम ।
अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, - ( पाँचों गरीरोमेंसे) विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धोंकी सचयके
रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन बिना जो निर्जरा होतो है वह परिशातन कृति कहलाती है।
नाम वाले परिषह है ।। (मू आ /२५४-२५५), (चा.सा /१०८/३), * अन्य सम्बन्धित विषय
(अन.ध./६/८६-११२), (द्र.स/टी/३५/१४६/६ ) ।
* परिषहजय विशेषके लक्षण दे वह बह नाम। १. पॉचों शरीरोंकी संघातन परिशातन कृति
-~-दे० ध.६/३५५-४५१) । २. पाँचों शरीरोकी जवन्य उत्कृष्ट परिशातन कृति
२. परिषह निर्देश
-दे० ध.४/३३६-४३८ । ३. सघातन परिशातन ( उभयरूप) कृति -दे० सघातन ।
१. परिषहके अनुभवका कारण कषाय व दोष होते हैं परिशेष न्याय-(ध१/१.१,४४/२७६/१) यह भी नहीं यह भी
स सि./९/१२/४३१/४ तेषु हि अक्षीणकषायदोषत्वात्सर्वे संभवन्ति । नहीं तो शेष यह ही रहा।
-प्रमत्त यादि गुणस्थानोमें कषाय और दोषोके क्षीण न होने से सब परिषह-गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास. मच्छर आदिकी बाधाएँ आनेपर
परिषह सम्भव है। आर्त परिणामोंका न होना अथवा ध्यानसे न चिगना परिषह जय २. परिषहकी ओर लक्ष्य न जाना ही वास्तविक है। यद्यपि अल्प भूमिकाओमे साधकको उनमें पीडाका अनुभव
परिषहजय है होता है, परन्तु वैराग्य भावनाओ आदिके द्वारा वह परमार्थ से चलित नहीं होता।
स सि./8/8/४२०/१० क्षुदबाधा प्रत्यचिन्तनं शुद्विजय । -वधाजन्य
बाधा का चिन्तन नही करना क्षधा परिषह जय है।
नोट-इसी प्रकार पिपासादि परिषहोकी ओर लक्ष्य न जाना ही वह १. भेद व लक्षण
वह नामकी परिघह जय है। -दे० वह वह नाम । १.परिषहका लक्षण
३ मार्गणाकी अपेक्षा परिषहों की सम्भावना त स/ मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषाढव्याः परीषहा ।८ मार्ग से , चा.सा./१३२/७ नरकतिर्यग्गत्यो सर्वे परिषहा. मनुथ्यगतावाद्यभगा च्युत न होनेके लिए और कर्मोको निर्जराके लिए जो सहन करने
भवन्ति देवगतौ घातिकर्मोत्थपरिषहै सह वेदनीयोत्पन्नक्षुत्पिपायोग्य हो वे परिषह है ।।
सावधै सह चतुर्दश भवन्ति । इन्द्रियकायमार्गणयो सर्वे परिषहा' स, सि/8/२/४०६/८ क्षुदादिवेदनोत्पत्तौ वर्मनिर्जरार्थ सहन परिषहः । सन्ति वै क्रियकद्वितयस्य देवगतिभगा तिर्यग्मनुष्यापेक्षया द्वावि
- क्षुदादि वेदनाके होनेपर कर्मोकी निर्जरा करनेके लिए उसे सह शति. शेषयोगानां वेदादिमार्गणानां च स्वकीयगुणस्थानभङ्गा भवन्ति। लेना परिषह है । (रा. वा/8/२/६/५६२/६)
- नरक और तियंचगतिमें सब परिषह होती हैं। मनुष्यगतिमें रा, वा /8/२/६/२६२/२ परिषह्यत इति परीषह।६। -जो सही जाय ऊपर कहे अनुसार ( गुणस्थानवत् ) होती हैं। देवगतिमें घातीवह परिषह है।
कर्मके उदयसे होनेवाली सात परिषह और वेदनीयकर्म के उदयसे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०३-५
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