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बैर
योग अर्थात् दर्शन विशुद्धतादि गुण है, उनसे सयुक्त होनेका नाम वैयावृत्त्ययोगयुक्तता है। इस प्रकारकी उस एक ही वैयावृत्त्ययोगयुक्तता से तीर्थंकर नामकर्म बँधता है। यहाँ शेष कारणोंका यथासम्भव अन्तर्भाव कहना चाहिए ।
८. वैयावृत्य गृहस्थोंको मुख्य और साधुको गौण है
प्र. सा./मू./२५३-२५४ नाचणमि निसान गुरुमालबुद्धसमयानं । लोगिगजणसभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा । २५३ | एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाण । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥२५४
म. सा. / / २५४ एवमेष प्रशस्तचर्या रागसंगमाइगीणः श्रमणानां गृहिणां तु क्रमत परम निर्वाणसौख्यकारणत्वाच मुख्य रोगी, गुरु बाल तथा वृद्ध श्रमणोकी वैयावृत्यके निमित्त शुभोपयोगयुक्त लोकको साथी बातचीत निश्चित नहीं है | २५३॥ यह प्रशस्तभूत चर्या रागसहित होनेके कारण श्रमणोको गौण होती है। और गृहस्थीको क्रमश परमनिर्माण सौख्यका कारण होनेसे मुख्य है ऐसा शास्त्रोंमें कहा है।
* अन्य सम्बन्धित विषय
* एक वैयावृत्त्यसे ही तीर्थंकरत्वका बन्ध सम्भव है
-३० भावना / २०
* सल्लेखनागत क्षपकके योग्य वैयावृत्तको विशेषताएँ -३०
खना - दे० सावध /
+ वैयावृत्यका अर्थ सावध कर्मयोग्य नहीं वैर-साम्यभावके प्रभाव से जाति विरोधी भी जीव अपना पैर छोड
देते है । - दे० सामायिक /३/७ ।
वैरकुमार
बृ. कथा कोष / कथानं १२ / पृष्ठ - इसके पिता सोमदत्तमैं इसके गर्भ में रहनेपर हो दोक्षा लेती थी। इसकी माता इसको ध्यानस्थ अपने पतिके चरणोमे छोड गयी। तब दिवाकर नामके विद्याधर ने इसे उठा लिया । ६१ । अपने मामासे विद्या प्राप्त की । एक विद्याधर कन्यासे विवाह किया और अपने छोटे भाईको युद्ध हराया । ६२-६३। जिसके कारण माता रुष्ट हो गयी, तभी अपने विद्याधर पिता से अपनी कथा सुनकर पिता सोमदत्त के पास में दीक्षा ले ली । ६४-६५। बौद्धोके रथसे पहले जैनोका रथ चलवाकर प्रभावना की।६६७९ वैराग्य
राजा / ७ /१२/४/११/१३ विरागस्य भावकर्म माराग्यम् (विषयोंसे विरक्त होना विराग है । दे० विराग ) विरागका भाव या कर्म वैराग्य है
द्र स / टा. / ३५ / ११२/८ पर उद्धृत - संसारदेहभोगेसु विरतभावो य वैरग्गं । =ससार देह तथा भोगों में जो विरक्त भाव है सो वैराग्य है।
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दे सामायिक (माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, बेराग्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य, परमशान्ति, ये सब एकार्थवाची है । ) २. वैराग्य की कारणभूत भावनाएँ
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साम्य,
त. सू. /७/१२ जगत्का यस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् | १२ | ससि / ७ / १२ /३० /३ जगत्स्वभावस्तावदनादिनिधनो बेत्रासनमा हरीमृदइनिभ अत्र जीवा अनारिस सारेऽनम्सकाल नानायोनिषुद्र ख भाज भोज पर्यटन्ति । न चात्र किचिन्नियतमस्ति जलबुदबुदापम जीवितम् विद्यन्मेधादिविवारचा भोगसंपद इति। एवमादिणगभावचिन्तनसंसारात्सयेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता
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दुखहेतुत्वं निसारता अशुचित्वमिति । एवमादिकायस्वभाव नाद्विषयराग निवृत्ते वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावो भावतिथ्यौ । -संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभावकी भावना करनी चाहिए । १२ । जगत्का स्वभाव यथा - यह जगत् अनादि है, अभिधन है, बेत्रासन, महरी और मृदंगके समान है (दे. लोक / २) । इस अनादि संसारमें जोव अनन्त कालतक नाना योनियों दुखको पून' पुन भोगते हुए भ्रमण करते है। इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है। जीवजसके बुलबुले के समान है, और भोग सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुषके समान चंचल है । इत्यादिरूपसे जगत् के स्वभावका चिन्तन करनेसे संसारमें संवेग या भय उत्पन्न होता है। कायका स्वभाव यथा - यह शरीर अनित्य है, दुखका कारण है, निसार है और अशुचि है इत्यादि इस प्रकार कायके स्वभावका चिन्तन करनेसे विषयोसे आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अत जगत् और कायके स्वभावकी भावना करनी चाहिए । ( रा. वा. / ७ / १२ / ४ / ५३६/१५ ) ।
दे अनुप्रेक्षा (अनित्य अवारण आदि १२ भावनाओका पुनः पुन चिन्त
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इसीलिए वे १२ वैशग्य भावना
जन करना वैराग्य के अर्थ होता है कहलाती है)। ★ सम्यग्दष्टि विरागी है दे, राग/ ६ । वैराग्यमाला - आ. श्रीचन्द्र (ई. १४६८ - १५१८ ) द्वारा रचित एक उपदेशात्मक संस्कृत ग्रन्थ
वैशत्रिक मू आ / भाषा / २७० आधी रातके बाद दो घडी बीत जानेपर वहाँसे लेकर दो घडी रात रहे तबतक कालको वैरात्रिक काल कहते है । वैरिसिंह एक राजा । समय- वि. ६०० ( ई ८४३ ) ( सा. ध / पं आशाधरका परिचय / ६ ) !
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वैशेषिक
वैरोटी - १, भगवान् अनन्तनाथकी शासक यक्षिणी-दे तीर्थंकर / ५ / ३ । २ एक विद्या ( - दे. विद्या) ।
वैवस्वत यम- - इक्ष्वाकु वंशके एक राजा थे ( रामाकृष्णा द्वारा कुशावली ।
शोधित
वैशाख - वृ कथाकोष / कथा नं ८ / पृष्ठ - पाटलीपुत्र नगर के राजा विशाखका पुत्र था । सात दिनकी नव विवाहिता पत्नीको छोड़ मित्र मुनिदत्त मुनिको आहार दानकर दीक्षा ले ली। २८ । स्त्री मरकर - व्यतरी हुई, जिसक उपसर्ग के कारण एक महीना तक उपवास करना पडा । चेलनाने परदा डालकर आहार दिया। अन्त में मोक्ष पधारे | 2 | वैशेषिक - १. सामान्य परिचय
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(वैशेषिक लोग भेदवादी है. ये द्रव्य गुण पर्याय तथा वस्तुके सामान्य व विशेष अशोकी पृथक् पृथक् सत्ता स्वीकार करके समवाय सम्बन्धसे उनकी एकता स्थापित करते है । ईश्वरको सृष्टि व प्रलयका कर्ता मानते है । शिवके उपासक है, प्रत्यक्ष व अनुमान दो प्रमाण स्वीकार करते है । इनके साधु वैरागी होते है | ) २. प्रवर्तक, साहित्य व समय
इस मत के आद्य प्रवर्तक कणाद ऋषि थे, जिन्हे उनकी कापोती वृत्तिके कारण कण भक्ष तथा उलूक ऋषिका पुत्र होनेके कारण औलूक्य कहते थे। इन्होने ही वैशेषिक सूत्रकी रचना की थी। जिसपर अनेकों भाष्य व टीकाएँ प्राप्त है, जैसे- प्रशस्तपाद भाष्य, रावण भाष्य, भारद्वाज वृत्ति। इनमे से प्रशस्तपाद भाष्य प्रधान है जिसपर अनेकों वृत्तियाँ लिखी गयी है, जैसे—मरोवर योगी श्रीधरकृत न्यायकन्दली, उदयनकृत किरणावली. श्री वत्सकृत लीलावती, जगदीश मट्टाचार्यकृत भाग्य वृद्धि तथा शंकर मिश्रकृत
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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