________________ परिशिष्ट 632 व्याख्या प्रज्ञप्ति परिकम टोका-इन्द्रनन्दी कृत तावतार के कथनानुसार आ काल में होने की सूचना उपलब्ध होने से इनको हम वि. श. 12 के कुन्दकुन्द ने पटवण्डागम के आद्य 5 खंडों पर 12000 श्लोक प्रमाण पूर्वार्ध में स्थापित कर सकते है / 360 / (जै./९/पृष्ठ संख्या)। इस नाम की एक टीका रची थी / 264 / धवला टीका में इसके उद्धरण प्राय 'जीवस्थान' नामक प्रथम खड के द्वितीय अधिकार महाबन्ध-३०,००० श्लोक प्रमाण यह सिद्धान्त ग्रन्थ आ भूतबली महाबन्ध-... 'द्रव्य प्रमाणानुगम' में आते है, जिस पर से यह अनुमान होता है (ई. 66-156) द्वारा रचित षट्वंडागम का अन्तिम खंड है, जो कि इस टीका में जीवों की सख्या का प्रतिपादन बहूलता के साथ अत्यन्त विशाल तथा गम्भीर होने के कारण एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के किया गया है। धवलाकार ने कई स्थानों पर 'परिकर्म सूत्र' कहकर रूप में प्रसिद्ध हो गया है। विबरणात्मक शैली में अति विस्तार युक्त इस टीका का ही उल्लेख किया है, ऐसा प्रतीत होता है / 268 / तथा सुबोध होने के कारण किसी भी आचार्य ने इस पर कोई टीका कुन्द कुन्द की समयसार आदि अन्य रचनाओं की भांति यह ग्रन्थ नहीं लिखी / आ. वीरसेन स्वामी ने भी खंडों पर तो विस्तृत गाथाबद्ध नहीं है, तदपि प्राकृत भाषाबद्ध अवश्य है। प. कैलाशचन्द टीका लिखी, परन्तु इस षष्टम खंड पर टीका लिखने की आवइसे कुन्दकुन्द कृत मानते हैं / (जै /१/पृष्ठ संख्या)। श्यकता नही समझी। (जै./१/१५२)। इस ग्रन्थ में स्वामित्व भागा भाग आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा विस्तार को प्राप्त प्रकृति, स्थिति, बप्पदव-इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार श्लोक न.१७१-१७६ के अनुसार अनुभाग व प्रदेश बन्ध का और उनके मन्धकों तथा 'बन्धनीयों का भागीरथी और कृष्णा नदी के मध्य अर्थात धारवाड या बेलगांव विवेचन निबद्ध है। (जै./१/१५३) / इस ग्रन्थ की प्रारम्भिक भूमिका जिले के अन्तर्गत उत्कलिका नगरी के समीप 'मगणवल्ली' ग्राम में 'सत्कर्म' नाम से प्रसिद्ध है, जिस पर 'सत्कर्म पत्रिका' नामक आ शुभनन्दि तथा शिवनन्दि (ई श 2-3) से सिद्धान्त का श्रवण व्याख्या उपलब्ध है / (दे. सत्कर्म पब्जिका)। करके आपने कषायपाहुड सहित. षटव डागम के आद्य पाच खंडों पर 60,000 श्लोक प्रमाण और उसके महाबन्ध नामक षष्टम विशेषावश्यक भाष्य-आ जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण द्वारा रचित खंड पर 8000 श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखी थी। (जै /1/2711, यह एक विशालकाय सिद्धान्त विषयक श्वेताम्बर ग्रन्थ है / ग्रन्थ (तो./२/६५) / इन्होने षट्ख डागम से 'महाबन्ध' नामक षष्टम खंड समाप्ति में इसका समाप्ति काल वि 666 बताया गया है। परन्तु पं. को पृथक करके उसके स्थान पर उपर्युक्त 'ब्याख्या प्रज्ञप्ति' का सुखलाल जी के अनुसार यह इसका लेखन काल है। ग्रन्थ का रचना संक्षिप्त रूप उसमे मिला दिया था। समय-इनके गुरु शुभनन्दि को काल उसमे पूर्व लगभग वि, 650 में स्थापित किया जा सकता है। बी नि श 5 का विद्वान कल्पित करके डा नेमिचन्द्र ने यद्यपि (जै./२/३३१)। बी. नि श.५-६ ई. श. 1) में प्रतिष्ठित किया है, परन्तु इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार के अनुसार ये वि. श. 7 (ई. श 6-7) के विद्वान है। व्याख्या प्रज्ञप्ति-षटखण्डागम के छ' खंडों से अधिक वह अति रिक्त खड जिसे आ, भूतबली ने छोड दिया था, और जिसे आ. बप्पदेव (वि श.७) ने 60,000 श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखकर मरूयागार-कर्म प्रकृति/२६३,सित्तरि या सप्ततिका / 3181, पूरा किया था / बाटग्राम (बडौदा) के जिनमन्दिर में इसे प्राप्त करके पचसंग्रह / 360 / आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों के टीकाकार एक प्रसिद्ध हो श्री बीरसेन स्वामी ने 'सत्कर्म' नाम से धवला के परिशिष्ट रूप स्वेताम्बराचार्य / समय-'कर्मप्रकृति' की टीकाये गर्गर्षि (वि.श 10) एक अतिरिक्त रखड की रचना की थी। (दे सत्कर्म) (इन्द्रनन्दि और पचसग्रह की रचना गुजरात के चालुक्यवंशी नरेश के शासन- श्रुतावतार श्ल 173-181); (जै /1/276), (ती/२/६६) / समाप्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org