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पुण्य
४. पुण्यकी कथंचित् इष्टता
दे० पुष/१/१ (प्रशस्त भी राग कारणकी विपरीतता से विपरीत रूपसे
फलित होता है। पं.ध.उ./४४४ नापि धर्म' क्रियामात्र मिथ्यादृष्टेरिहार्थत । नित्यं रागादिसद्भावात प्रत्युताधर्म एव स ।४५४। -मिथ्याष्टिके सदा रागादिभावका सद्भाव रहनेसे केवल क्रियारूप व्यवहार धर्मका अर्थात् शुभयोगका पाया जाना भी धर्म नही है। किन्तु अधर्म ही है।४४४। भा पा /पं. जयचन्द/११७ अन्यमतके श्रद्धानीकै जो कदाचित् शुभ लेश्याके निमित्त पुण्य भी बन्ध होय तौ ताकू पाप हीमें गिणिये।
९. मिथ्यात्व युक्त पुण्य तीसरे भव नरकका कारण है भ, आ /वि./५८/१८५/६ मिथ्यादृष्टेर्गणा पापानुबन्धि स्वल्पमिन्द्रियसुख दत्त्वा बहारम्भपरिग्रहादिषु आसक्तं नरके पातयन्ति - मिथ्यादृष्टिके ये अहिंसादि गुण (या वत) पापानुबन्धी स्वल्प इन्द्रियमुखकी प्राप्ति तो कर देते है, परन्तु जीवको बहुत आरम्भ और परिग्रहमे
आसक्त करके नरकमें ले जाते है। पप्र टी/२/१७/१७४/- निदानबन्धोपार्जितपुण्येन भवान्तरे राज्यादि
विभूतौ लब्धाया तु भोगान् त्यक्तुं न शक्नोति तेन पुण्येन नरकादिदुःख लभते रावणादिवत् । -निदान बन्धसे उत्पन्न हुए पुण्यसे भवान्तरमें राज्यादि विभूतिकी प्राप्ति करके मिथ्यादृष्टि जीव भोगोका त्याग करनेमे समर्थ नहीं होता, अर्थात उनमें आसक्त हो जाता है। और इसलिए उस पुण्यसे बह रावण आदिकी भाँति नरक आदिके दु खोको प्राप्त करता है। (द्र सं./टी./३८/१६018), (स, सा./ता. वृ २२४-२२७/३०५/१७)।
४. पुण्यकी कथंचित् इष्टता
१. पुण्य व पापमें महान् अन्तर है भ आ /मू./६१ जस्स पुण मिच्छदिद्विस्स णत्थि सील वदं गुणो चावि।
सो मरणे अप्पाण' कह ण कुणइ दीहसंसार ।६१ = जब वतादि सहित भी मिथ्यावृष्टि संसारमे भ्रमण करता है (दे० पुण्य/३/८) तब
तादिसे रहित होकर तो क्यो दीर्घ ससारी न होगा। मो. पा /मू./२५ वर वरतवेहि सग्गो मा दुक्ख होउ णिरइ इयरेहि। छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेय ।२५। जिस प्रकार छाया और आतपमें स्थित पथिकोके प्रतिपालक कारणोमें बडा भेद है, उसी प्रकार पुण्य व पापमे भी बडा भेद है। बत, तप आदि रूप पुण्य श्रेष्ठ है, क्योकि उससे स्वर्गकी प्राप्ति होती है और उससे विपरीत अबत व अतप आदिरूप पाप श्रेष्ठ नहीं है, क्योकि उसमे नरककी प्राप्ति होती है। ( इ उ /३); ( अन. ध./८/१५/७४०)। त. सा /४/१०३ हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेष पुण्यपापयो । हेतु शुभा
शुभौ भावी कार्ये चैव सुखासुखे ।१०३ -हेतु और कार्यको विशेपता होनेसे पुण्य और पापमें अन्तर है । पुण्यका हेतु शुभभाव है और पापका अशुभभाव है । पुण्यका कार्य सुख है और पापका दुख है।
२. इष्ट प्राप्तिमें पुरुषार्थसे पुण्य प्रधान है भ. आ /मू /१७३१/१५६२ पाओदएण अत्यो हत्थ पत्तो वि णस्सदि णरस्स। दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तेण ।१७३१। =पापका उदय आनेपर हस्तगत द्रव्य भी नष्ट हो जाता है और पुण्यका उदय आनेपर प्रयत्नके बिना ही दूर देशसे भी धन आदि इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति हो जाती है। (कुरल काव्य/३८/६); (पं.वि/१/१८८)। और भी. नियति/३/५ ( देव ही इष्टानिष्टको सिद्धिमें प्रधान है। उसके सामने पुरुषार्थ निष्फल है।)
आ. अनु./३७ आयु श्रीर्व पुरादिक यदि भवेत्पुण्य पुरोपाजितं, स्यात सर्व न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि ।३७ -यदि पूर्वोपार्जित पुण्य है तो आयु, लक्ष्मी और शरीरादि भी यथेच्छित प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु यदि वह पुण्य नही है तो फिर अपनेको क्लेशित करनेपर
भी वह सब बिलकुल भी प्राप्त नही हो सकता। (पं वि/१/१८४)। पबि//३६ वाञ्छत्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते। =
ससारमे मनुष्य सुखकी इच्छा करते है परन्तु वह उन्हे विधिके द्वारा दिया गया प्राप्त होता है। का अ/मू./४२८,४३४ लच्छि वंछेह णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ । बीएण विणा कत्थ वि कि दीसदि सस्स णिपत्ती ।४२८. उज्जमरहिए वि लच्छिसंपत्ती। धम्मपहावेण. १४३४- यह जीव लक्ष्मी तो चाहता है, किन्तु सुधर्मसे (पुण्यक्रियाओंसे ) प्रीति नहीं करता। क्या कहीं बिना बीजके भी धान्यकी उत्पत्ति देखी जाती है ।।४२८॥ धर्म के प्रभावसे उद्यम न करनेवाले मनुष्यको भी लक्ष्मीकी प्राप्ति हो जाती है।४३४ (पं. वि./१/१८६)। अन. ध /१/३७,६० विश्राम्यत स्फुरत्पुण्या गुडखण्डसितामृत । स्पर्धमाना' फलिष्यन्ते भावा स्वयमितस्तत ॥३७॥ पुण्यं हि समुखीनं चेत्सुखोपायशतेन किम् । न पुण्य समुखीनं चेत्सुखोपायशतेन किम् । ६०। -हे पुण्यशालियो। तनिक विश्राम करो अर्थात अधिक परिश्रम मत करो। गुड, खाण्ड, मिश्री और अमृतसे स्पर्धा रखनेवाले पदार्थ तुमको स्वयं इधर उधरसे प्राप्त हो जायेगे ।४२८। पुण्य यदि उदयके सम्मुख है तो तुम्हे दूसरे सुखके उपाय करनेसे क्या प्रयोजन है, और वह सन्मुख नही है तो भी तुम्हे दूसरे सुत्रके उपाय करनेसे
क्या प्रयोजन है ।।४३६। स. सा /ता, वृ./प्रक्षेपक २१६-१/३०९/१३ अनेन प्रकारेण पुण्योदये सति सुवर्ण भवति न च पुण्याभावे । - इस प्रकारसे (नागफणीकी जड, हथिनीका मूत, सिन्दूर और सीसा इन्हे भट्टीमे धौकनीसे धौकनेके द्वारा) सुवर्ण केवल तभी बन सकता है, जब कि पुण्यका उदय हो, पुण्यके अभावमे नहीं बन सकता।
३. पुण्यकी महिमा व उसका फल कुरल काव्य/४/१-२ धर्मात साधुतर कोऽन्यो यतो विन्दन्ति मानवा ।
पुण्य स्वर्गप्रद नित्य निर्वाणं च सुदुर्लभम् ।। धर्मान्नास्त्यपरा काचित सुकृतिदेहधारिणाम् । तत्त्यागान्न परा काचिद् दुष्कृतिदेहभागिनाम् ।२। -धर्म से मनुष्यको स्वर्ग मिलता है और उसीसे मोक्षकी प्राप्ति भी होती है, फिर भला धर्मसे बढकर लाभदायक वस्तु और क्या है। १॥ धर्म से बढकर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देनेसे बढकर और कोई बुराई भी नहीं ॥२॥ घ. १/१,१,२/१०५/४ काणि पुण्ण-फलाणि । तित्थयरगणहर-रिसि
चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहर-रिद्धीओ। -प्रश्न-पुण्यके फल कौनसे है। उत्तर-तीर्थकर, गणघर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरोकी ऋद्धियाँ पुण्यके फल है। म. पू./१७/१६१-१६६ पुण्याद् विना कुतस्तादृगरूपसंपदनीदृशी। पुण्याद् विना कुतस्ताहम् अभेद्यगात्रवन्धनम् ।१९११ पुण्याइ विना कुतस्ताङ निधिरत्नद्धिरू जिता। पुण्याद विना कुतस्तादृग इभाश्वादिपरिच्छद. १६२ = पुण्यके बिना चक्रवर्तके समान अनुपम रूप, सम्पदा, अभेद्य शरीरका बन्धन, अतिशय उत्कट निधि, रत्नोंकी ऋद्धि, हाथी घोडे आदिका परिवार १११-१४२० (तथा इसी प्रकार) अन्त पुरका वैभव, भोगोपभोग, द्वीप समुद्रोकी विजय तथा सर्व आज्ञा व ऐश्वर्यता आदि ।१६३-१६६। ये सब कैसे प्राप्त हो सकते है। (पं. वि /१/१८८)। पं.वि /१/१८६ कोऽप्यन्धोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा ग्रस्तोऽपि लावण्यवान्, नि.प्राणोऽपि हरिविरूपतनुरप्याद्य ष्यते मन्मथ । उद्योगोज्झित
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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