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पुरुषार्थ
२. पुरुषार्थको मुख्यता व गोणता
१. ज्ञान हो जानेपर भी पुरुषार्थ ही प्रधान है।
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जो मोहरागदोसे मिगदि उपलम्भ जोह सुवदे सो सम्वोक्स पावदि अचिरेण काले अत एव सर्वारम्भेण मोहक्षपणाय पुरुषकारे निषीदामि। =जो जिनेन्द्र के उपदेशको प्राप्त करके मोह-राग-द्वेषको हनता है यह अल्प कालमें सर्व दुखोसे होता है इसलिए सम्पूर्ण प्रयत्नपूर्वक मोहका क्षय करनेके लिए मै पुरुषार्थ का आश्रय ग्रहण करता हूँ । २. यथार्थ पुरुषार्थ से अनादिके कर्म क्षण भरमें नष्ट हो जाते हैं
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कुरल./६२/१० शश्वत्कर्मप्रसक्तो यो भाग्यचक्रे न निर्भर । जय एवास्ति तस्याहो अनि भाग्यविपर्यये । १० जो भाग्य चलके भरोसे न रहकर लगातार पुरुषार्थ किये जाता है वह विपरीत भाग्यके रहनेपर भी उसपर विजय प्राप्त करता है | १०| १.प्र.५७ पिट्ठे तुति राहु कम्म पृथ्व किया। सो पर जे जाहि जोड़ा देह वसंतु ण काई 1200 - जिस परमात्माको देस्यनेसे शीघ्र ही पूर्व उपार्जित कर्म चूर्ण हो जाते है। उस परमात्मा को देह में बसते ! भी हे योगी तू क्यों नहीं जानता । २७१ (१. प्र / हुए .३२) ।
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३. पुरुषार्थ द्वारा अयथा काल भी कमका विपाक हो जाता है
ज्ञा. / ३५/२७ अपक्वपाक क्रियतेऽस्ततन्द्वैस्तपोभिरुग्रैर्वरशुद्धियुक्तैः । क्रमाढगुगश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतान्त करणेर्मुनीन्द्रः ॥ २७
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- नष्ट
हुआ प्रमाद जिनका ऐसे मुनीन्द्र उत्कृष्ट विशुद्धता सहित होते हुए उपके द्वारा अनुक्रमसे गुणप्रेमी निर्जराका आश्रय करके बिना पके को भी पकाकर स्थिति पूर्ण हुए बिना ही निर्जरा करते हैं |२७| ( ज्ञा. / ३५/३६ ) ।
दे. पूजा निर्जरा, तप, उदय, उदीरणा, धर्मध्यान आदि = ( इनके द्वारा असमयमें कमौका पाक होकर अनादिके कर्मोंको निर्जरा होनेका निर्देश किया गया है।
४. पुरुषार्थकी विपरीतता अनिष्टकारी है
स सा. / . / १६० ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराधं प्रवर्तमानकर्ममलावादेवमास्थाय सर्व सर्वमध्यात्मानमविजानदज्ञानभावेन वेदमेयमनतिष्ठते। ज्ञान अर्थाद आश्नद्रव्य, अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममलके द्वारा लिप्त या व्याप्त होनेसे ही. बन्ध अवस्था में सर्व प्रकार से सम्पूर्ण अपनेको जानता हुआ, इस प्रकार प्रत्यक्ष अज्ञान भावसे रह रहा है।
५. स्वाभाविक क्रियाओं में पुरुषार्थ गौण है
. /उ. / ३७६,८१७ प्रयत्नमन्तरेणापि दृडूमोहोपशमो भवेत् । अन्तमुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमाद | २०११ नेद स्यात्पौरुषाय किंतु नून स्वभावतः। ऊर्ध्वगुणश्रेणी यत सिद्धियोत्तरम्॥१७॥ - भव्यत्व, काललब्धि आदि सामग्रीके मिलनेपर प्रयत्नके बिना भी गुण श्रेणी निर्जरा के अनुसार अन्तर्मुहूर्त में ही दर्शन मोहका उपम हो जाता है | ३०१ | निश्चयसे तरतमरूपसे होनेवाली शुद्धताका उत्कर्षपना पौरवाधीन नहीं होता, स्वभावसे ही सम्पन्न होता है. कारण कि उत्तरोत्तर श्रेणी निर्जराने स्वयमेव शुद्धताकी तरतमता होती जाती है।८१७॥
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पुलवि
दे० केवली (केवली के आसन, विहार व उपदेशादि बिना प्रयत्नके ही होते है।
६. अम्य सम्बन्धित विषय
१. कर्मोदयमें पुरुषार्य कैसे चले।
- दे० मोक्ष
२. मन्दोदयमें ही सम्यक्त्वोत्पत्तिका पुरुषार्थ कार्यकारी है। -३० उपशम / २/२
२. नियति भवितव्यता, देव व कालपिके सामने पुरुषार्थकी गौणता व समन्वय - दे० नियति ।
४. पुरुषायें व कालब्धि भाषाका ही भेद है।
- दे० पद्धति ।
पुरुषार्थ नय - प्र.सा./ / परि नय नं. २२ पुरुषकारमयेन पुरुषा कारोपलब्धमधुकुक्कुटीकपुरुषकारवादीवद्यत्नसाध्यसिद्धि |३२| आत्मद्रव्य पुरुषकार नयसे जिसकी सिद्धि यत्न साध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषकारसे नीलूका वृक्ष प्राप्त होता है ऐसे पुरुषकारवादीको भाँति । पुरुषार्थवाद-गोस् /८१० आलसको विरुस्यो फ किंचि ण भंजदेवखीरादिपाणं ना पउसे विणा हि ॥१०॥ - आलस्यकरि संयुक्त होय उत्साह उद्यम रहित होइ सो विभी फलको भोगवे नाही। जैसे- स्तनका दूध उद्यमही ते पीवनेमे आवे है पौरुष विना पौवनेमें न आने से से सर्व पौरुष करि सिद्धि है, ऐसा पौरूपवाद है |
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पुरुषार्थ सिद्धयुपाया अमृतचन्द्र
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द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध ग्रन्थ । इसमें २४३ श्लोक है। इस पर प० टोडरमल ( ई० १७६६ ) ने भाषामें टीका लिखी है । परन्तु उसे पूरी करनेसे पहिले ही विधिने उनसे शरीर छीन लिया। उनकी इस अधूरी कृतिको उनके पीछे पं० दौलतराम ( ई० १७७० ) ने पूरा किया। (जे २/१७३ (सी./२/४०८) पुरुषोत्तम - १. व्यन्तर देवोंका एक भेद - दे० व्यंतर । २ म. पु / ६०/५०-६६ पूर्वभवन २ में पोदनपुरका राजा वसुषेण था फिर अगले भयमे सहसार स्वर्ण में देन हुआ। मर्तमान भयमे चौघा नारा यण हुआ । विशेष परिचय - दे० शलाका पुरुष / ४ ॥ पुरस्कार परिषदे० सत्कार |
पुरोत्तम- - विजयार्ध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । पुरोहित - पुलवि - १४/५, ६,६३/ पृष्ठ नं./पंक्ति
- चक्रवर्तीके चौदह रत्नोंमेंसे एक-दे० शलाका पुरुष / २ |
पुलवियाओ णिगोदा ति भणति (८५/१४) आवासन्तरे द्विदाओ कच्छउ डरबक्सारतो पिपिसिवियाहि समानाओ दियाओं शाम एस्केकाहि आवासे ताओ अस खेज्जलोगमेत्ताओ होति । एक्केक म्हि एक्केक्किस्से पुलविया असंखेज्जोगमेचाणि निगोदसरीराणि ओराचिय-तेजाकम्मइयपोग्गतोमायाय कारणानि कन्द्र उर्ड डर न स्वार पुल मियाए अंतोटूट्ठिददव्वसमाणाणि प्रधपुध अनंताणं तेहि णिगोदजीवेहि आउणाणि होति । (८६/८ पुसपियाँको ही निगोद कहते है। (८३/१४), घ. १४/५.६.५२/४००/१) जो आवासके भीतर स्थित है और जो कच्छउड अण्डर वक्खारके भीतर स्थित पिशवियोके समान है उन्हे पुलवि कहते है। एक-एक आवास में वे असख्यात लोक प्रमाण होती है। तथा एक-एक आवासकी अलग-अलग एक-एक पुलविमें असंस्थात लोक प्रमाण शरीर होते है जो कि बहारिक तैजस और कार्मण पुद्गलोके उपादान कारण होते है और जो कच्छउडअडर
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